[साभार: साहित्य शिल्पी http://www.sahityashilpi.com/2009/04/blog-post_6453.html ]
डा0 भीमराव अम्बेडकर एक ऐसे युगपुरूष थे जिन्होंने समाज में पिछड़ों, दलितों और शोषितों की मूकता को आवाज दी। बचपन से ही डा0 अम्बेडकर ने जातिवाद की आड़ में फैलाए जा रहे जहर को महसूस किया और उस जहर को समाज से उखाड़ फेंकने की सोची। एक ऐसे समय में जब दलितों को देखते ही लोग अपवित्र हो जाने के भय से रास्ता बदल लेते थे, डा0 अम्बेडकर ने उस दौरान बैरिस्टरी पास कर तमाम आयोगों के सामने दलित वर्ग का प्रतिनिधित्व किया। वे गाँधी जी के ‘हरिजन’ शब्द से नफरत करते थे क्योंकि दलितों की स्थिति सुधारे बिना धर्म की चाशनी में उन्हें ईश्वर के बन्दे कहकर मूल समस्याओं की ओर से ध्यान मोड़ने का गाँधी जी का यह नापाक नुस्खा उन्हें कभी नहीं भाया। उन्होंने गाँधी जी के इस कदम पर सवाल भी उठाया कि- "सिर्फ अछूत या शूद्र या अवर्ण ही हरिजन हुए, अन्य वर्णों के लोग हरिजन क्यों नहीं हुए? क्या अछूत हरिजन घोषित करने से अछूत नहीं रहेगा? क्या मैला नहीं उठायेगा? क्या झाड़ू नहीं लगाएगा? क्या अन्य वर्ण वाले उसे गले लगा लेंगे? क्या हिन्दू समाज उसे सवर्ण मान लेगा? क्या उसे सामाजिक समता का अधिकार मिल जायेगा? हरिजन तो सभी हैं, लेकिन गाँधी ने हरिजन को भी भंगी बना डाला। क्या किसी सवर्ण ने अछूतों को हरिजन माना? सभी ने भंगी, मेहतर माना। जिस प्रकार कोई राष्ट्र अपनी स्वाधीनता खोकर धन्यवाद नहीं दे सकता, कोई नारी अपना शील भंग होने पर धन्यवाद नहीं देती फिर अछूत कैसे केवल नाम के लिए हरिजन कहलाने पर गाँधी को धन्यवाद कर सकता है। यह सोचना फरेब है कि ओस की बूँदों से किसी की प्यास बुझ सकती है।’’
वस्तुत: डा० अम्बेडकर यह अच्छी तरह समझते थे कि जाति व्यवस्था ही भारत में सभी कुरीतियों की जड़ है एवं बिना इसके उन्मूलन के देश और समाज का सतत् विकास सम्भव नहीं। यही कारण था कि जहाँ दलितों के उद्धार का दम्भ भरने वाले तमाम लोगों का प्रथम एजेण्डा औपनिवेशिक साम्राज्यशाही के खिलाफ युद्ध रहा और उनकी मान्यता थी कि स्वतंत्रता पश्चात कानून बनाकर न केवल छुआछूत को खत्म किया जा सकता है अपितु दलितों को कानूनी तौर पर अधिकार देकर उन्हें आगे भी बढ़ाया जा सकता है पर डा0 अम्बेडकर इन सवर्ण नेताओं की बातों पर विश्वास नहीं करते थे वरन् दलितों का सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था में तत्काल समुचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना चाहते थे। उनके प्रयासों के परिणाम-स्वरूप ही वर्ष 1919 के अधिनियम में पहली बार दलित जातियों के स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकारते हुये गवर्नर जनरल द्वारा केन्द्रीय धारा सभा के नामित 14 नान-आफिशियल सदस्यों में एक दलित के नाम का भी समावेश किया गया। इसी प्रकार सेन्ट्रल प्राविन्सेंज से प्रान्तीय सभाओं में भी चार दलितों को प्रतिनिधित्व दिया गया। इसे डा0 अम्बेडकर की प्रथम जीत माना जा सकता है।
डा0 अम्बेडकर का स्पष्ट मानना था कि व्यापक अर्थों में हिन्दुत्व की रक्षा तभी सम्भव है जब ब्राह्मणवाद का खात्मा कर दिया जाय, क्योंकि ब्राह्मणवाद की आड़ में ही लोकतांत्रकि मूल्यों-समता, स्वतंत्रता और बन्धुत्व का गला घोंटा जा रहा है। अपने एक लेख ‘हिन्दू एण्ड वाण्ट आफ पब्लिक कांसस’ में डा0 अम्बेडकर लिखते हैं कि- ‘‘दूसरे देशों में जाति की व्यवस्था सामाजिक और आर्थिक कसौटियों पर टिकी हुई है। गुलामी और दमन को धार्मिक आधार नहीं प्रदान किया गया है, किन्तु हिन्दू धर्म में छुआछूत के रूप में उत्पन्न गुलामी को धार्मिक स्वीकृति प्राप्त है। ऐसे में गुलामी खत्म भी हो जाये तो छुआछूत नहीं खत्म होगा। यह तभी खत्म होगा जब समग्र हिन्दू सामाजिक व्यवस्था विशेषकर जाति व्यवस्था को भस्म कर दिया जाये। प्रत्येक संस्था को कोई-न-कोई धार्मिक स्वीकृति मिली हुई है और इस प्रकार वह एक पवित्र व्यवस्था बन जाती है। यह स्थापित व्यवस्था मात्र इसलिए चल रही है क्योंकि उसे सवर्ण अधिकारियों का वरदहस्त प्राप्त है। उनका सिद्धान्त सभी को समान न्याय का वितरण नहीं है अपितु स्थापित मान्यता के अनुसार न्याय वितरण है।’’ यही कारण था कि 1935 में नासिक में आयोजित एक सम्मलेन में डा0 अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म को त्याग देने की घोषणा कर दी। अपने सम्बोधन में उन्होंने कहा कि- ‘‘सभी धर्मों का निकट से अध्ययन करने के पश्चात हिन्दू धर्म में उनकी आस्था समाप्त हो गई। वह धर्म, जो अपने में आस्था रखने वाले दो व्यक्तियों में भेदभाव करे तथा अपने करोड़ों समर्थकों को कुत्ते और अपराधी से बद्तर समझे, अपने ही अनुयायियों को घृणित जीवन व्यतीत करने के लिए मजबूर करे, वह धर्म नहीं है। धर्म तो आध्यात्मिक शक्ति है जो व्यक्ति और काल से ऊपर उठकर निरन्तर भाव से सभी पर, सभी नस्लों और देशों में शाष्वत रूप से एक जैसा रमा रहे। धर्म नियमों पर नहीं, वरन् सिद्धान्तों पर आधारित होना चाहिये।’’ यहाँ स्पष्ट करना जरूरी है कि डा0 अम्बेडकर ने आखिर बौद्ध धर्म ही क्यों चुना? वस्तुत: यह एक विवादित तथ्य भी रहा है कि क्या जीवन के लिए धर्म जरूरी है? डा0 अम्बेडकर ने धर्म को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा था। उनका मानना था कि धर्म का तात्त्विक आधार जो भी हो, नैतिक सिद्धान्त और सामाजिक व्यवहार ही उसकी सही नींव होते हैं। यद्यपि बौद्ध धर्म अपनाने से पूर्व उन्होंने इस्लाम और ईसाई धर्म में भी सम्भावनाओं को टटोला पर अन्तत: उन्होंने बौद्ध धर्म को ही अपनाया क्योंकि यह एक ऐसा धर्म है जो मानव को मानव के रूप में देखता है किसी जाति के खाँचे में नहीं। एक ऐसा धर्म जो धम्म अर्थात नैतिक आधारों पर अवलम्बित है न कि किन्हीं पौराणिक मान्यताओं और अन्धविश्वास पर। डा0 अम्बेडकर बौद्ध धर्म के ‘आत्मदीपोभव’ से काफी प्रभावित थे और दलितों व अछूतों की प्रगति के लिये इसे जरूरी समझते थे। डा0 अम्बेडकर इस तथ्य को भलीभांति जानते थे कि सवर्णों के वर्चस्व वाली इस व्यवस्था में कोई भी बात आसानी से नहीं स्वीकारी जाती वरन् उसके लिए काफी दबाव बनाना पड़ता है। स्वयं भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहरलाल नेहरू ने डा0 अम्बेडकर के निधन पश्चात उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा था कि -‘‘डा0 अम्बेडकर हमारे संविधान निर्माताओं में से एक थे। इस बात में कोई संदेह नहीं कि संविधान को बनाने में उन्होंने जितना कष्ट उठाया और ध्यान दिया उतना किसी अन्य ने नहीं दिया। वे हिन्दू समाज के सभी दमनात्मक संकेतों के विरूद्ध विद्रोह के प्रतीक थे। बहुत मामलों में उनके जबरदस्त दबाव बनाने तथा मजबूत विरोध खड़ा करने से हम मजबूरन उन चीजों के प्रति जागरूक और सावधान हो जाते थे तथा सदियों से दमित वर्ग की उन्नति के लिये तैयार हो जाते थे।’’
यहाँ पर उपरोक्त सभी बातों को दर्शाने का तात्पर्य मात्र इतना है कि डा0 अम्बेडकर समाज की रूढ़िवादी विचारधारा एवं ब्राह्मणवाद को कभी भी स्वीकार नहीं कर पाये और उनके विचार पुंज भी कहीं ब्राह्मणवादी व्यवस्था का समर्थन करते नजर नहीं आते। यही कारण था कि डा0 अम्बेडकर के निधन पश्चात ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पक्षधर नेताओं, विचारकों, साहित्यकारों और इतिहासकारों ने जानबूझकर उन्हें इस कदर भुला दिया कि जैसे वे कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति नहीं थे। इसके विपरीत द्विजवादी नेतृत्व को बढ़ा-चढ़ाकर उभारा गया, जैसे वे ईश्वर के अवतार हों। यह द्विजवादियों की मानसिक बेईमानी ही कही जायेगी। कुछ लोगों ने तो डा0 अम्बेडकर के साहित्य को न्यायालय में घसीटकर उसे प्रतिबंधित कराने का प्रयास भी किया। इन सब के पीछे मानसिकता यही रही कि डा0 अम्बेडकर को भुला दिया जाय। मण्डल को दबाने के लिये कमण्डल (मंदिर) मुद्दा जरूरत से ज्यादा उछाल दो, जिससे कि ब्राह्मणवादियों का निहित स्वार्थ सुरक्षित रहे। यही नहीं स्वतन्त्रता पश्चात तमाम लोगों ने डा0 अम्बेडकर पर किताबें लिखकर, लेख लिखकर और विभिन्न विचार गोष्ठियों द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि डा0 अम्बेडकर एक सामान्य व्यक्ति थे और अंग्रेजों ने उनको बरगलाकर गाँधी जी के विरूद्ध खड़ा करने का प्रयास किया था। यही नहीं संविधान निर्माण में भी उनकी भूमिका को महत्वहीन घोषित करने का प्रयास किया जाता रहा पर 1990 के दशक की राजनीति ने बहुत कुछ बदल दिया। राजनैतिक क्षितिज पर अनेक प्रभावशाली नेताओं के उभरने ने मानो दलितों में चेतना की ज्वाला पैदा कर दी हो।
निश्चितत: दलित वर्गों में पनपी इस जन चेतना से वक्त का पहिया तेजी से बदला और कल तक जो ब्राह्मणवादी शक्तियाँ अपनी निरपेक्षता का दावा करती थीं, अचानक वे समाज के सापेक्ष विकास क्रम को समझने लगीं। विभिन्न राज्यों में दलित चेतना के उभार ने इन्हें मजबूर कर दिया कि वे इनके वोट बैंक को अपनी तरफ खींचने के लिए इनकी प्रेरणा के केन्द्र बिन्दु पर नजर डालें जो कि डा0 अम्बेडकर और उनके विचारों के रूप में हैं। अचानक कल तक ब्राह्मणवाद का दंभ भरने वाली शक्तियाँ डा0 अम्बेडकर से अपनी नजदीकियाँ साबित करने लगीं। यहाँ पर इस तथ्य को नहीं भुलाया जा सकता कि किस प्रकार बौद्ध धर्म से खतरा महसूस होने पर ब्राह्मणवादी शक्तियों ने बुद्ध को भगवान विष्णु का 24वाँ अवतार घोषित कर दिया और पशु-बलि पर रोक लगाकर गाय को पवित्र जीव घोषित कर दिया। अब शायद यही काम ये डा0 अम्बेडकर के साथ भी करना चाहते हैं। जब उनके लाख षडयंत्रों के बावजूद दलितों ने डा0 अम्बेडकर को पूजनीय मानना नहीं छोड़ा तो वे भी डा0 अम्बेडकर को हाइजैक करके अपने मंच पर लेते आए।
यह एक सच्चाई है कि डा0 अम्बेडकर आजीवन ब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरूद्ध संघर्ष करते रहे एवं अपनों को इसके प्रति सचेत भी करते रहे। ऐसे में ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पोषकों द्वारा डा0 अम्बेडकर को हाइजैक करके अपने मंचों पर स्थान देना व अपने समर्थन में उद्धृत करना दर्शाता है कि डा0 अम्बेडकर वाकई एक सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत रहे हैं और उनके बिना सामाजिक और राष्ट्रीय चिन्तन की कल्पना नहीं की जा सकती। देर से ही सही, अन्तत: वर्णवादी व्यवस्था के पोषकों को भी डा0 अम्बेडकर की वर्तमान परिवेश में प्रासंगिकता को स्वीकार करना पड़ा, भले ही इसके लिए उन्हें अपने वर्णवादी मूल्यों से समझौता कर डा0 अम्बेडकर को हाइजैक करने की कोशिशें करनी पड़ी हों या उनके बयानों को बिना उसकी पृष्ठभूमि बताये अपने पक्ष में रखना पड़ा हो।
वस्तुत: डा० अम्बेडकर यह अच्छी तरह समझते थे कि जाति व्यवस्था ही भारत में सभी कुरीतियों की जड़ है एवं बिना इसके उन्मूलन के देश और समाज का सतत् विकास सम्भव नहीं। यही कारण था कि जहाँ दलितों के उद्धार का दम्भ भरने वाले तमाम लोगों का प्रथम एजेण्डा औपनिवेशिक साम्राज्यशाही के खिलाफ युद्ध रहा और उनकी मान्यता थी कि स्वतंत्रता पश्चात कानून बनाकर न केवल छुआछूत को खत्म किया जा सकता है अपितु दलितों को कानूनी तौर पर अधिकार देकर उन्हें आगे भी बढ़ाया जा सकता है पर डा0 अम्बेडकर इन सवर्ण नेताओं की बातों पर विश्वास नहीं करते थे वरन् दलितों का सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था में तत्काल समुचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना चाहते थे। उनके प्रयासों के परिणाम-स्वरूप ही वर्ष 1919 के अधिनियम में पहली बार दलित जातियों के स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकारते हुये गवर्नर जनरल द्वारा केन्द्रीय धारा सभा के नामित 14 नान-आफिशियल सदस्यों में एक दलित के नाम का भी समावेश किया गया। इसी प्रकार सेन्ट्रल प्राविन्सेंज से प्रान्तीय सभाओं में भी चार दलितों को प्रतिनिधित्व दिया गया। इसे डा0 अम्बेडकर की प्रथम जीत माना जा सकता है।
रचनाकार परिचय:-
श्री राम शिवमूर्ति यादव जी समाज शास्त्र में काशी विद्यापीठ वाराणसी से स्नातकोतर हैं तथा देश की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में इनकी रचनायें छपती रही हैं. बेव पर इनकी रचनायें साहित्य कुंज, रचनाकार, हिन्दी नेस्ट, स्वर्गविभा, कथाव्यथा, वांग्मय पत्रिका पर उपलब्ध हैं. सामाजिक व्यवस्था एंव आरक्षण (१९९०) प्रकाशित हो चुकी है तथा लेखों का एक अन्य संग्रह प्रेस में है. भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा "ज्योतिवा फ़ुले फ़ेलोशिप सम्मान से सम्मानित तथा राष्ट्रीय राजभाषा पीठ इलाहाबाद द्वारा "भार्ती ज्योति" से सम्मानित. सम्प्रति : उत्तर प्रदेश सरकार में स्वास्थय शिक्षा अधिकारी के पद से सेवानिव्रति के पश्चात स्वतन्त्र लेखन व अध्ययन एंव समाज सेवा|
डा0 अम्बेडकर का स्पष्ट मानना था कि व्यापक अर्थों में हिन्दुत्व की रक्षा तभी सम्भव है जब ब्राह्मणवाद का खात्मा कर दिया जाय, क्योंकि ब्राह्मणवाद की आड़ में ही लोकतांत्रकि मूल्यों-समता, स्वतंत्रता और बन्धुत्व का गला घोंटा जा रहा है। अपने एक लेख ‘हिन्दू एण्ड वाण्ट आफ पब्लिक कांसस’ में डा0 अम्बेडकर लिखते हैं कि- ‘‘दूसरे देशों में जाति की व्यवस्था सामाजिक और आर्थिक कसौटियों पर टिकी हुई है। गुलामी और दमन को धार्मिक आधार नहीं प्रदान किया गया है, किन्तु हिन्दू धर्म में छुआछूत के रूप में उत्पन्न गुलामी को धार्मिक स्वीकृति प्राप्त है। ऐसे में गुलामी खत्म भी हो जाये तो छुआछूत नहीं खत्म होगा। यह तभी खत्म होगा जब समग्र हिन्दू सामाजिक व्यवस्था विशेषकर जाति व्यवस्था को भस्म कर दिया जाये। प्रत्येक संस्था को कोई-न-कोई धार्मिक स्वीकृति मिली हुई है और इस प्रकार वह एक पवित्र व्यवस्था बन जाती है। यह स्थापित व्यवस्था मात्र इसलिए चल रही है क्योंकि उसे सवर्ण अधिकारियों का वरदहस्त प्राप्त है। उनका सिद्धान्त सभी को समान न्याय का वितरण नहीं है अपितु स्थापित मान्यता के अनुसार न्याय वितरण है।’’ यही कारण था कि 1935 में नासिक में आयोजित एक सम्मलेन में डा0 अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म को त्याग देने की घोषणा कर दी। अपने सम्बोधन में उन्होंने कहा कि- ‘‘सभी धर्मों का निकट से अध्ययन करने के पश्चात हिन्दू धर्म में उनकी आस्था समाप्त हो गई। वह धर्म, जो अपने में आस्था रखने वाले दो व्यक्तियों में भेदभाव करे तथा अपने करोड़ों समर्थकों को कुत्ते और अपराधी से बद्तर समझे, अपने ही अनुयायियों को घृणित जीवन व्यतीत करने के लिए मजबूर करे, वह धर्म नहीं है। धर्म तो आध्यात्मिक शक्ति है जो व्यक्ति और काल से ऊपर उठकर निरन्तर भाव से सभी पर, सभी नस्लों और देशों में शाष्वत रूप से एक जैसा रमा रहे। धर्म नियमों पर नहीं, वरन् सिद्धान्तों पर आधारित होना चाहिये।’’ यहाँ स्पष्ट करना जरूरी है कि डा0 अम्बेडकर ने आखिर बौद्ध धर्म ही क्यों चुना? वस्तुत: यह एक विवादित तथ्य भी रहा है कि क्या जीवन के लिए धर्म जरूरी है? डा0 अम्बेडकर ने धर्म को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा था। उनका मानना था कि धर्म का तात्त्विक आधार जो भी हो, नैतिक सिद्धान्त और सामाजिक व्यवहार ही उसकी सही नींव होते हैं। यद्यपि बौद्ध धर्म अपनाने से पूर्व उन्होंने इस्लाम और ईसाई धर्म में भी सम्भावनाओं को टटोला पर अन्तत: उन्होंने बौद्ध धर्म को ही अपनाया क्योंकि यह एक ऐसा धर्म है जो मानव को मानव के रूप में देखता है किसी जाति के खाँचे में नहीं। एक ऐसा धर्म जो धम्म अर्थात नैतिक आधारों पर अवलम्बित है न कि किन्हीं पौराणिक मान्यताओं और अन्धविश्वास पर। डा0 अम्बेडकर बौद्ध धर्म के ‘आत्मदीपोभव’ से काफी प्रभावित थे और दलितों व अछूतों की प्रगति के लिये इसे जरूरी समझते थे। डा0 अम्बेडकर इस तथ्य को भलीभांति जानते थे कि सवर्णों के वर्चस्व वाली इस व्यवस्था में कोई भी बात आसानी से नहीं स्वीकारी जाती वरन् उसके लिए काफी दबाव बनाना पड़ता है। स्वयं भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहरलाल नेहरू ने डा0 अम्बेडकर के निधन पश्चात उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा था कि -‘‘डा0 अम्बेडकर हमारे संविधान निर्माताओं में से एक थे। इस बात में कोई संदेह नहीं कि संविधान को बनाने में उन्होंने जितना कष्ट उठाया और ध्यान दिया उतना किसी अन्य ने नहीं दिया। वे हिन्दू समाज के सभी दमनात्मक संकेतों के विरूद्ध विद्रोह के प्रतीक थे। बहुत मामलों में उनके जबरदस्त दबाव बनाने तथा मजबूत विरोध खड़ा करने से हम मजबूरन उन चीजों के प्रति जागरूक और सावधान हो जाते थे तथा सदियों से दमित वर्ग की उन्नति के लिये तैयार हो जाते थे।’’
यहाँ पर उपरोक्त सभी बातों को दर्शाने का तात्पर्य मात्र इतना है कि डा0 अम्बेडकर समाज की रूढ़िवादी विचारधारा एवं ब्राह्मणवाद को कभी भी स्वीकार नहीं कर पाये और उनके विचार पुंज भी कहीं ब्राह्मणवादी व्यवस्था का समर्थन करते नजर नहीं आते। यही कारण था कि डा0 अम्बेडकर के निधन पश्चात ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पक्षधर नेताओं, विचारकों, साहित्यकारों और इतिहासकारों ने जानबूझकर उन्हें इस कदर भुला दिया कि जैसे वे कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति नहीं थे। इसके विपरीत द्विजवादी नेतृत्व को बढ़ा-चढ़ाकर उभारा गया, जैसे वे ईश्वर के अवतार हों। यह द्विजवादियों की मानसिक बेईमानी ही कही जायेगी। कुछ लोगों ने तो डा0 अम्बेडकर के साहित्य को न्यायालय में घसीटकर उसे प्रतिबंधित कराने का प्रयास भी किया। इन सब के पीछे मानसिकता यही रही कि डा0 अम्बेडकर को भुला दिया जाय। मण्डल को दबाने के लिये कमण्डल (मंदिर) मुद्दा जरूरत से ज्यादा उछाल दो, जिससे कि ब्राह्मणवादियों का निहित स्वार्थ सुरक्षित रहे। यही नहीं स्वतन्त्रता पश्चात तमाम लोगों ने डा0 अम्बेडकर पर किताबें लिखकर, लेख लिखकर और विभिन्न विचार गोष्ठियों द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि डा0 अम्बेडकर एक सामान्य व्यक्ति थे और अंग्रेजों ने उनको बरगलाकर गाँधी जी के विरूद्ध खड़ा करने का प्रयास किया था। यही नहीं संविधान निर्माण में भी उनकी भूमिका को महत्वहीन घोषित करने का प्रयास किया जाता रहा पर 1990 के दशक की राजनीति ने बहुत कुछ बदल दिया। राजनैतिक क्षितिज पर अनेक प्रभावशाली नेताओं के उभरने ने मानो दलितों में चेतना की ज्वाला पैदा कर दी हो।
निश्चितत: दलित वर्गों में पनपी इस जन चेतना से वक्त का पहिया तेजी से बदला और कल तक जो ब्राह्मणवादी शक्तियाँ अपनी निरपेक्षता का दावा करती थीं, अचानक वे समाज के सापेक्ष विकास क्रम को समझने लगीं। विभिन्न राज्यों में दलित चेतना के उभार ने इन्हें मजबूर कर दिया कि वे इनके वोट बैंक को अपनी तरफ खींचने के लिए इनकी प्रेरणा के केन्द्र बिन्दु पर नजर डालें जो कि डा0 अम्बेडकर और उनके विचारों के रूप में हैं। अचानक कल तक ब्राह्मणवाद का दंभ भरने वाली शक्तियाँ डा0 अम्बेडकर से अपनी नजदीकियाँ साबित करने लगीं। यहाँ पर इस तथ्य को नहीं भुलाया जा सकता कि किस प्रकार बौद्ध धर्म से खतरा महसूस होने पर ब्राह्मणवादी शक्तियों ने बुद्ध को भगवान विष्णु का 24वाँ अवतार घोषित कर दिया और पशु-बलि पर रोक लगाकर गाय को पवित्र जीव घोषित कर दिया। अब शायद यही काम ये डा0 अम्बेडकर के साथ भी करना चाहते हैं। जब उनके लाख षडयंत्रों के बावजूद दलितों ने डा0 अम्बेडकर को पूजनीय मानना नहीं छोड़ा तो वे भी डा0 अम्बेडकर को हाइजैक करके अपने मंच पर लेते आए।
यह एक सच्चाई है कि डा0 अम्बेडकर आजीवन ब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरूद्ध संघर्ष करते रहे एवं अपनों को इसके प्रति सचेत भी करते रहे। ऐसे में ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पोषकों द्वारा डा0 अम्बेडकर को हाइजैक करके अपने मंचों पर स्थान देना व अपने समर्थन में उद्धृत करना दर्शाता है कि डा0 अम्बेडकर वाकई एक सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत रहे हैं और उनके बिना सामाजिक और राष्ट्रीय चिन्तन की कल्पना नहीं की जा सकती। देर से ही सही, अन्तत: वर्णवादी व्यवस्था के पोषकों को भी डा0 अम्बेडकर की वर्तमान परिवेश में प्रासंगिकता को स्वीकार करना पड़ा, भले ही इसके लिए उन्हें अपने वर्णवादी मूल्यों से समझौता कर डा0 अम्बेडकर को हाइजैक करने की कोशिशें करनी पड़ी हों या उनके बयानों को बिना उसकी पृष्ठभूमि बताये अपने पक्ष में रखना पड़ा हो।
No comments:
Post a Comment
Please write your comment in the box:
(for typing in Hindi you can use Hindi transliteration box given below to comment box)