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जय भीम ! जय बुद्ध ! जय भारत !
Leberty, Equality and Fraternity !
Educate, Agitate and Organize !
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Monday 21 June, 2010

विद्यार्थियों के लिए प्रेरणादायक है अम्बेडकर का जीवन




डॉक्टर भीम राव अम्बेडकर ने शिक्षा के माध्यम से न सिर्फ भारतीय भूखंड के इतिहास में मानवीय एकता की नीव रखी, बल्कि उनका विद्यार्थी जीवन आज भी न सिर्फ समस्त भारत बल्कि समस्त विश्व के विद्यार्थियों के लिए प्रेरणादायक है.

भारतीय समाज में फैली अस्पर्शता की रुढ़िवादी परंपरा के कारण भीम के सामने शिक्षा प्राप्ति में अनेकों कठ्नाईयाँ आती रहीं परन्तु अम्बेडकर की लगन और उनके प्राथमिक स्कूल के शिक्षक और बड़ोदा के महाराजा श्याजी राव गायकवाड़ की अनुक्रिपा से अम्बेडकर ने अपनी शिक्षा पायी.

मेघावी छात्र अंबेडकर को गाँव की पाठशाला में समाज के एक वर्ग के बच्चों के साथ नहीं बैठने दिया जाता था और न ही संस्कृत पढ़ने दी जाती थी. गाँव की पाठशाला में वह कक्षा के बाहर बैठ कर ही पढ़ा करते थे. उन्हें पाठशाला के मटके से पानी पीने से भी वर्जित कर रखा था. पर अम्बेडकर की पढ़ने की लगन और कुशाग्र बुधि से प्रेरित हो कर उनके एक शिक्षक ने उनका नाम अम्बेवाडिकर से बदल कर अपना नाम अम्बेडकर रख दिया जिससे की वह आगे भी पढ़ पाए.

बोम्बे में छोटा घर होने के कारण अम्बेडकर कभी बकरियों के तबेले में पढ़ा करते थे, तो कभी पार्कों में और कभी सड़कों पर लेम्प पोस्टों के नीचे. यहाँ भी अस्पर्श्ता की कुरीति ने उनका पीछा नहीं छोड़ा और उन्हें संस्कृत पढ़ने से वर्जित किया गया जिस कारण उन्होंने पर्शियन पढ़ी. एक बार जब कक्षा में उन्हें ब्लेक बोर्ड पर कुछ हल करने को बुलाया गया तो कक्षा के कुछ बच्चों ने बोर्ड के पीछे रखे अपने टिफिन उठा लिए की कहीं उन पर अम्बेडकर की छाया न पड़ जाए.

स्नातक में बड़ोदा के राजा श्याजी महाराज की सेवा करने के दौरान इस मेघावी छात्र से प्रेरित हो कर महाराजा श्याजी राव ने उन्हें छात्रवृति दे कर कोलंबिया विश्वविधालय, अमेरिका पढने के लिए भेजा. अमेरिका में अम्बेडकर छात्रव्रती से पैसे बचा कर अपने घर भी भेजा करते थे और कॉफ़ी - ब्रेड पर ही अपना जीवन व्यतीत करते थे. यहाँ उन्हें जब भी समय मिलता वह पुस्तकालय में जा कर पढ़ा करते थे. उनकी शिक्षा और ज्ञान की तृष्णा ने उन्हें अधिकाधिक ज्ञान अर्जित करने के लिए प्रेरित किया. यहीं विश्वविख्यात दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, शिक्षावादी और उनके प्राध्यापक जान डेवी के संपर्क में आने से उन्होंने समाज और लोकतंत्र को बेहतर बनाने में शिक्षा की भूमिका को समझा. उनकी थीसिस (निबंध) "प्राचीन भारतीय वाणिज्य" (Ancient Indian Commerce) के लिए उन्हें कला में स्नातकोतर (MA) की उपाधि से नवाज़ा गया. उनके पेपर "भारत में जातियां" (Castes in India) को भारतीय बर्बर सामाजिक संरचना का पहला वैज्ञानिक विश्लेष्ण माना जाता है. उनकी थीसिस "ब्रिटिश भारत में प्रांतीय वित्त विकास" (The evolution of provincial finance in British India) के लिए उन्हें डाक्टरेट की उपाधि से नवाज़ा गया जिसने उनके लिए लंदन स्कूल अफ इकनामिक्स के द्वार खोल दिए और फिर विधि शासत्र (Law) के. परन्तु उनकी छात्रवृति का समय ख़त्म हो गया और उसे बढाने के लिए वे बरोड़ा के राजा श्याजी महाराज से मिलाने भारत वापिस आ गए.


अमरीका से डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त करने वाले अम्बेडकर को अस्पर्श्ता के कारण बरोड़ा में किसी ने ठहरने की जगह भी नहीं दी, उन्हें होटलों से भी भगा दिया जाता और पारसी अतिथी गृह में भी जगह नहीं दी गयी.

बोम्बे में वह दो वर्षों तक स्य्देंहम कॉलेज में राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्राध्यापक रहे. जल्द ही उन्हें अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए प्रिंसे ओफ्रेम छात्रवृति मिल गयी और वह लंदन में अर्थशास्त्र की पढ़ाई करने चले गए.

लंदन में अम्बेडकर अपने ज्ञान की तृष्णा को बुझाने के लिए और अधिक मेहनत से पढ़ने लगे और अपने विषयों के साथ - साथ और विषयों की भी पढाई करने लगे. यहाँ ब्रिटिश म्यूजियम का पुस्तकालय उनकी मनपसन्द जगह थी जहां उन्होंने अपनी ज्ञान की तृष्णा शांत की. अपनी छात्रवृति से मिलने वाले आठ पोंड बचा कर, भूखे रह कर, वाहन का इस्तेमाल किये बिना पैदल चल कर, और कम कपड़ों में निर्वाह कर के, अम्बेडकर ज्यादा से ज्यादा पुस्तकें खरीदते और पढ़ते थे. यहाँ उन्होंने अपनी दो और थीसिस - "ब्रिटिश भारत के प्रांतों में उपनिवेशिक वित्त" (Imperial finance in the provinces of BritIsh India by Ambedkar) और "रूपये की समस्या: इसका मूल और इसका समाधान" (The Problem of the Rupee: Its Origin and its Solution) को भी पूरा किया. एक वर्ष का समय उन्होंने अर्थशास्त्र पढ़ने के लिए जर्मनी के बून विश्वविधालय में बिताया. अम्बेडकर की कुशाग्र बुधि और ज्ञान एवं शिक्षा को देख कर लन्दन के कानून स्कूल बार ने उन्हें आमंत्रित किया, जो कि भारत में किसी के लिए एक अपूर्व उपलब्धि थी .

तो इस प्रकार अम्बेडकर न सिर्फ भारत वरन समस्त विश्व के विद्यार्थियों के लिए एक प्रेरणा बने.

साभार: निखिल सबलानिया @ प्रजा राज http://prajaaraj.blogspot.com/2010/04/blog-post.html  

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Sunday 20 June, 2010

डॉ० भीमराव अम्बेडकर और दलित चिन्तन की प्रतिबद्धता: परिवर्ती अम्बेडकरवाद या दलित नव जागरण युग [आलेख] - डॉ० वीरेन्द्र सिंह यादव


इसमें कोई शक नहीं कि वर्ण-व्यवस्था के माध्यम से परम्परावादियों ने एक प्रकार की निर्णायक संस्कृति और मनोवैज्ञानिक जीत हासिल कर ली है। शायद इसकी प्रतिक्रिया के कारण ही दलित चेतना पूर्णत: उभार पर है। दलित आन्दोलन/ संस्कृति साहित्य के प्रणेता डॉ. अम्बेडकर ने ठीक ही लिखा है- "हिन्दू धर्म मेरी बुद्धि में जँचता नहीं, स्वाभिमान को भाता नहीं। जो धर्म तुम्हें शिक्षा प्राप्त नहीं करने देता, उस धर्म में तुम क्यों रहते हो? जिस धर्म में मनुष्यता नहीं, वह धर्म उद्दण्डता की सजावट है।" डॉ. अम्बेडकर ने महसूस किया इस छुआछूत के विनाश के लिए अनिवार्य है कि जाति का विनाश हो। साथ ही वर्ण व्यवस्था जिस पर जातियाँ आधारित हैं, का विनाश हो। चूँकि जाति हिन्दू धर्म का प्राण है, अत: जब तक हिन्दू धर्म इसके वर्तमान रूप में प्रचलित है तब तक जाति प्रथा रहना स्वाभाविक है। हमारे यहाँ जाति सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक जीवन का मूल स्त्रोत है अर्थात् जाति सामाजिक संस्कारों एवं रिश्तों की सीमा तय करती है।1

साहित्य शिल्पीरचनाकार परिचय:-


युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डा. वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद’ की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डा. वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डा0 भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानो से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।

दलित संवेदनाओं को अपने जीवनकाल में निरन्तर भोगते रहने के कारण डॉ. अम्बेडकर का अनुभव प्रगाढ़ था। इसलिए आपने अपने सम्बोधन में बड़ी दृढ़ता से कहा था कि "हिन्दू धर्म में दलितों की उन्नति सम्भव नहीं है। मैं हिन्दू धर्म में मरूँगा नहीं। हिन्दू धर्म विषमतावादी है। हिन्दू धर्म अछूतों का धर्म नहीं। उच्चता कर्म से नहीं जन्म से है। हिन्दू समाज व्यवस्था मुर्दे के समान है। हिन्दू देवताओं के दर्शन से कोई लाभ नहीं है।" सामाजिक एकता का सिध्दान्त उनको बौद्ध धर्म के अन्दर ही मिल गया। यही कारण था कि उन्होंने अपने कई अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था। उनका यह कदम हमेशा विवादास्पद ही रहा है। किन्तु यदि हम उनके धर्म परिवर्तन के पीछे की वास्तविक भावना को समझें तो हमें प्रतीत होता है कि इस धर्म परिवर्तन के पीछे उनका यह विश्वास था जो उन्हें सामाजिक एकता के आदर्श की ओर ले गया। इसका एक दूसरा पक्ष भी है। संभवत: उनको बौद्ध धर्म की महत्ता का अहसास न होता यदि वे पश्चिम के उदारवादी दृष्टिकोण के सम्पर्क में न आते। उन्होंने कई विदेशी समाजों का गहन अध्ययन किया था और इन समाजों की जो विशेषता उनको विशेष रूप से प्रिय थी, वह थी सामाजिक एकता। उनको यह अहसास हुआ कि भारतीय धर्म-दर्शनों में बुद्ध-दर्शन ही एक ऐसा दर्शन है जो सामाजिक एकता का आदर्श प्राप्त कर सकता है। जहाँ टैगोर ने आध्यात्मिक मानवतावाद का सिद्धान्त प्रचारित किया, नेहरू ने समाजवादी दृष्टिकोण को समझने-समझाने का प्रयास किया, वहीं डॉ. अम्बेडकर ने जातीय सन्दर्भ में पश्चिमी उदारवादी दृष्टिकोण की महत्ता को समझाने का प्रयत्न किया। उनकी इस भूमिका को उचित स्थान दिया जाना चाहिए।2

हमारे तथाकथित हिन्दू समाज की सनातनी व्यवस्था में भारतीय दीन-दलित समाज अज्ञानांधकार में तड़फड़ाने के साथ चातुर्वर्ण्य व्यवस्था में पिसने के साथ दरिद्रता की आग में जल रहा था। इसके पीछे कारण यह था कि हमारे सिद्धान्त सदियों से ईश्वरकृत, अपौरुषेय एवं प्रश्नों से परे माने जाते रहे, क्योंकि इन सिद्धान्तों की जड़ें हमारे जेहन में इतनी गहरी कर दी गयी थीं, साथ ही इनकी व्याख्या ऐसी की गई थी जिनका कोई अकाट्य प्रमाण नहीं था। ऐसे मृतवत, अस्पृश्य दलित समाज में भगवान बुद्ध के पश्चात कई शताब्दियों तक कोई एक अकेला ऐसा सामाजिक चिंतक भारत में नहीं अवतरित हुआ जिसने इन तथाकथित सिद्धान्तों का खण्डन किया हो। हजारों वर्षों से शोषित, पीड़ित, दलित, अछूतपन, शासक-पोषक, सवर्ण वर्गों के जघन्य एवं अमानवीय शोषण, दमन, अन्याय के विरुद्ध छोटे-मोटे संघर्ष को संगठित रूप देने का कार्य सर्वप्रथम अद्भुत प्रतिभा, सराहनीय निष्ठा, न्यायशीलता, स्पष्टवादिता के धनी बाबा साहब युगपुरुष डॉ. भीमराव अम्बेडकर जी ने किया। आप ज्ञान के भण्डार और दलितों एवं शोषितों के मसीहा बनकर भारतीय समाज में अवतरित हुए। आपने दलितों एवं शोषितों को समाज में सर ऊँचा कर बराबरी के साथ चलना सिखाया। आप ऐसे समाज की केवल कल्पना ही कर सकते हैं, जब हमारे पुरखों में से कुछ को इन्सान जैसी शक्ल-सूरत होने के बावजूद, उन्हें सवर्ण समाज इन्सान नहीं समझता था। ऐसे समाज के प्रति बाबा साहब ने स्वअस्तित्व की सामर्थ्य, अस्मिता एवं क्रांन्ति की आग जलाई जिससे सामाजिक न्याय प्राप्ति के लिए अनेक दलित-शोषित कार्यकर्ता आत्मबलिदान के लिए उनके साथ खड़े हो गये।3 
परम्परावादी व्यवस्था (वैदिक संस्कृति) के कारण हजारों वर्षों से कुचले गये समाज के लोग आज ''दलित'' संज्ञा से जाने जाते हैं और उनके विरोध का प्रमुख कारण वर्ण-धर्म है। कर्म श्रेष्ठ न होने पर भी जाति के नाम से श्रेष्ठ कहलाने वाला व्यक्ति या समाज अपने आप में एक धोखा है। विश्व की सभ्यता और संस्कृति में ऐसा कहीं भी देखने को नहीं मिलेगा कि व्यक्ति को एक बार स्पर्श होने से छूने वाला व्यक्ति अपवित्र हो जाए। भारत में अस्पृश्यता के इस जादुई सिद्धान्त का कोई तार्किक जवाब किसी समाजशास्त्री के पास अभी तक उपलब्ध नहीं है। यह अनूठा और बेमिसाल सिद्धान्त पूर्णतया षडयन्त्र और बेईमानी के अलावा कुछ नहीं दिखता है। जीवन की इन दग्ध एवं करुण स्थितियों से उबरने के लिये दलित साहित्य के माध्यम से दलित अपनी अस्मिता को पहचानने का प्रयास कर रहा है- दलित कौन है, उसकी स्थिति क्या थी? उसकी इस स्थिति के लिये कौन उत्तरदायी है, उनकी संस्कृति क्या थी? उसके पूर्वज कौन थे? यह चिन्तन ही दलित साहित्य के प्रमुख विषय हैं। दलित समुदाय के बहुजन (करोड़ों) लोग आर्य हिन्दुओं से सामाजिक न्याय की आशा लगाये हुए हैं, परन्तु धर्मान्धता और असमानता के पक्षधर ये लोग समानता के चिन्तन को ताक में रख देते हैं। आज देश में करोड़ों निर्धन, अनपढ़, बेरोजगार दलित व्यक्ति अपनी अस्मिता की तलाश में भटक रहे हैं। गिरिराज किशोर के शब्दों में कहें तो भारतीय समाज, खासतौर से जातीय हिन्दू समाज, जिसके कारण देश में दालित्य पनपा और आज भी अपने विकृत रूप में मौजूद है, विचित्र और परस्पर विरोधी मानसिकताओं का पुंज बनकर रह गया है। यह सब हजारों वर्षों से चले आ रहे मानसिक और मनोवैज्ञानिक अवरोधों का प्रतिफल है। ये मानसिक ग्रन्थियाँ ही विभिन्न स्तरों पर अपने को सही साबित करती हुई दालित्य को बढ़ाती ही नहीं गईं अपितु उसे अस्पृश्यता और दमन का शिकार भी बनाती गईं। इसी का फल था कि दलितों को भी यह समझाया गया कि दालित्य कर्मफल है।4 
संसार में ऐसा कोई देश नहीं होगा जो मानव-मानव में इतना भेद रखता हो। परन्तु भारत का दलित, वह शोषित मानव है जो पैदा हुआ तब भी दलित है, जिन्दा रहेगा तब भी दलित है और मरेगा तब भी दलित है। अर्थात् आज भी दलित समाज स्मृतियुग की परम्परा में जी रहा है। कुछ मामलों में आज भी अछूत अन्य सवर्ण समाज के समक्ष बैठ नहीं सकता। उसके बच्चों के साथ बराबरी में बैठकर पढ़ नहीं सकता। चाय पीने के लिये अछूतों के लिये अलग कप, गिलास की व्यवस्था है। अछूतों के नाई द्वारा बाल नहीं बनाए जाते हैं। सामूहिक उत्सव में ढ़ोल नहीं बजाने दिया जाता। पंचायत में बराबरी से नहीं बैठने दिया जाता। जातिवादी मोहल्लों में अछूतों को मकान किराये पर नहीं दिये जाते। अछूतों को बारात ले जाते समय बैण्ड-बाजों पर रोक लगा दी जाती है। घोड़ी पर नहीं बैठने दिया जाता। अछूतों के लिये शमषान भूमि पृथक से है। अछूतों को मद्रास में कुछ स्थानों पर दिन में खरीद-फरोख्त की इजाजत नहीं है। ये समस्त उदाहरण सम्पूर्ण भारत के राज्यों में व्याप्त दलित वेदनाओं एवं सत्य घटनाओं पर आधारित हैं। परन्तु सामाजिक परिवर्तन के इस दौर में स्थितियाँ दलितों के पक्ष में भी जा रही हैं। राजनीति ने वर्तमान दौर में दलितों को असीमित अधिकार दिए हैं और दलितों को इससे काफी राहत भी मिली है परन्तु कभी-कभी सनातनी व्यवस्था के शिकार कुछ दलित आज भी हो जाते हैं।
वर्तमान समय में दलितों के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती उनकी जातीय अस्मिता एवं आर्थिक स्थिति को लेकर है। क्योंकि जगतगुरू से लेकर छोटे धार्मिक मठाधीशों तक किसी को भी इस बात की चिन्ता नहीं है कि दलितों को निरन्तर शोषण एवं उत्पीड़न से कैसे बचाया जा सकता है। समाज में उन्हें सम्मानजनक स्थिति में कैसे लाया जा सकता है। कुछ परम्परावादी दलित चिंतक साहित्यकार, समानता और भ्रातृत्व पर आधारित बौद्ध एवं अम्बेडकरवादी सिद्धान्त की ओर आकर्षित हो रहे हैं, जो भारतीय संविधान की आत्मा भी है। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि जैसे-जैसे अंग्रेजी शासन काल में अछूतों और शूद्रों के लिए शिक्षा के द्वारा खुलते गये, ये लोग शिक्षित होते गये। जहाँ एक ओर विज्ञान की चहुमुँखी तरक्की ने दुनिया को अपनी मुठ्ठी में समेट लिया है, वहीं शूद्रों द्वारा हिन्दू धर्म ग्रन्थों को अधिकाधिक रूप में पढ़ा जाने लगा है। स्वतंत्र भारत में संवैधानिक संरक्षण और प्रदत्त सुविधाओं, अपने अधिकारों को समझने और उन्हें पाने के कारण से परम्परावादियों के अनेक बन्धन शिथिल होते गये। वर्तमान में भी जो सनातनी (वैदिक) साहित्य उपलब्ध है, उसमें अभिजात्य एवं सवर्णवादी प्रवृत्तियों के लक्षण सर्वाधिक व्याप्त हैं। उसमें शासक और शोषित दोनों ही भावनाएं सर्वत्र नजर आती हैं।
परिवर्ती अम्बेडकरवाद या दलित नव जागरण युग:
अम्बेडकरवाद की द्वितीय मुक्ति शृंखला का आरम्भ सन् 1975 के बाद प्रारम्भ होता है। 1975 के बाद दलित चेतना की जो धारा विकसित हुई, वह इसलिये विशिष्ट है कि उसने हिन्दी जगत में अपनी पृथक और विशिष्ट पहचान बनायी। यह प्रयास अभिनव एवं महत्वपूर्ण है, क्योंकि अभी तक ऐसा प्रयास किसी युग में नहीं किया गया था। एक पृथक धारा के रूप में हिन्दी दलित साहित्य इसी युग में अस्तित्व में आया। यही नहीं बल्कि उसे परिभाषित भी इसी काल में किया गया। यह धारा समग्र रूप में अम्बेडकर-दर्शन से विकसत हुई और यह दर्शन ही उसका मूलाधार बना। इसमें कोई दो राय नहीं कि अम्बेडकर-दर्शन में दलित-मुक्ति की अवधारणा की अभिव्यंजना ही वर्तमान हिन्दी दलित साहित्य की प्रतिबद्धता है। इसने नये सौन्दर्यशास्त्र की स्थापना की जो स्वतंत्रता, समता और बन्धुत्व के सिद्धान्तों पर आधारित है। इस धारा ने अपने सौन्दर्यशास्त्र से हिन्दी मुख्यधारा के साहित्य का मूल्यांकन कर उसे काफी हद तक दलितों के लिये अप्रासंगिक साबित किया है। इसने प्रेमचन्द्र, निराला एवं अन्य रचनाकारों तक का पूर्नमूल्यांकन किया और उनकी कई रचनात्मक स्थापनाओं पर प्रश्नचिह्व भी लगाये। वर्तमान हिन्दी दलित साहित्य इस अर्थ में भी विशिष्ट है कि साहित्य की सभी विधाओं में उसका विकास हो रहा है। यद्यपि फूले और अम्बेडकर ने संस्थागत प्रयत्नों के माध्यम से दलितों के पक्ष-पोषण की बात की लेकिन सन्-70 के दशक के बाद कई संस्थायें सामने आती हैं, जिन्होंने अपने प्रयासों से दलितों के उत्थान पर कार्य किया। इस सन्दर्भ में दलित साहित्य प्रकाशन संस्था, अम्बेडकर मिशन, दलित आर्गनाइजेशन, राष्ट्रीय दलित संघ, दलित राइटर्स फोरम, दलित साहित्य मंच, लोक कल्याण संस्थान आदि के माध्यम से दलितों की स्थिति सुधारने के सन्दर्भ में अनेक कार्य किये गये! इन दलित संस्थाओं ने जिन दो महत्वपूर्ण पक्षों की ओर ध्यान आकृष्ट कराया उनमें एक है दलितों की सामाजिक स्थिति में सुधार और दूसरा दलितों के लिए आरक्षण की माँग। इस सन्दर्भ में भारतीय संविधान में संशोधन का भी प्रावधान किया गया और संस्थाओं में समाचार पत्रों, लेखों और गोष्ठियों का भी सहारा लिया जिसके माध्यम से दलितों को जागरूक और एकत्रित करने का कार्य किया गया। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि इन संस्थाओं ने दलित चिंतन को राजनैतिक स्वरूप भी प्रदान किया और समाज में एक विशेष वर्ग का नये सिरे से ध्रुवीकरण किया। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि वर्तमान-सामाजिक एवं राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में दलित विमर्श चिंतन का एक प्रमुख हिस्सा बन चुका है।5 मौजूदा दलित साहित्यकारों ने दलित लेखन को स्थपित करने के लिये कड़ा संघर्ष किया। यह उनके संघर्षों का ही परिणाम है कि हिन्दी जगत और मीडिया ने एक शताब्दी की लम्बी उपेक्षा के बाद दलित साहित्य को स्वीकार किया और उसे अपने पत्रों एवं पत्रिकाओं में थोड़ा-थोड़ा स्थान दिया। लेकिन यह भी तब सम्भव हुआ, जब सामाजिक परिवर्तन की राजनीति ने नयी दलित चेतना विकसित की और उसका प्रभाव सम्पूर्ण संविधान पर पड़ा। इसलिए यह हिन्दी जगत की राजनैतिक विवशता भी है। इस मत से कुछ विद्वत दलित चिंतकों की असहमति हो सकती है, परन्तु सत्ता के बनते-बिगड़ते समीकरण भी दलित साहित्य को प्रभावित करते हैं, इस बात से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता है। कुछ हद तक यह युग दलित पत्रकारिता के लिये भी जाना जायेगा, क्योंकि दलित साहित्य के साथ-साथ दलित पत्रकारिता का भी सशक्त विकास इस युग में हुआ है। दलित पत्रकारों में डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर, मोहन दास नैमिशराय, डॉ. श्यौराज सिंह 'बेचैन', के.पी. सिंह, प्रेम कपाड़िया, मणिमाला, ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहर सिंह, बी.आर. बुद्धिप्रिय, सुरेश कानडे, डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव इत्यादि पत्रकारों ने दलित पत्रकारिता को प्रखर दलित प्रश्नों से जोड़कर विचारोत्तेजक और क्रांन्तिकारी बनाया है। इसलिये दलित चेतना के इस वर्तमान युग को दलित 'नवजागरण' युग का नाम भी दिया जा सकता है। 

साभार: साहित्य शिल्पी @ http://www.sahityashilpi.com/2009/12/blog-post_2416.html 

Wednesday 16 June, 2010

दलित धर्म की अवधारणा और बौद्ध धर्म - कंवल भारती


दलित धर्म की अवधारणा और बौद्ध धर्म 
कंवल भारती

प्रस्तुत आलेख दलित धर्म की अवधारणा और बौद्ध धर्म दलित समाज की लोकप्रिय पुस्तिका का एक अंश है, जिसमें बौद्ध धर्म को दलितों का मूल धर्म बताते हुए उससे उनके रिश्ते को आकस्मिक नहीं बल्कि इसके पीछे विकास की पूरी श्रृंखला स्वीकार किया गया कदम (सेण्टर फार अल्टरनेटिव दलित मीडिया) शालीमार बाग, दिल्ली, सन्‌ 2002 में प्रकाशित, इस कृति के लेखक कंवल भारती हैं, जिन्होंने अनेक लोकप्रिय पुस्तिकाएं लिखी हैं, इनकी चर्चित पुस्तकें हैंᄉईश्वर और आत्मा, धम्म विजय, संत रैदास, दलित विमर्श की भूमिका, जाति धर्म और राष्ट्र।
बौद्ध धर्म से दलितों का रिश्ता सिर्फ इस कारण नहीं हो सकता कि उसे डॉ. आम्बेडकर ने स्वीकार किया था। डॉ. आम्बेडकर का बुद्धानुराग भी सिर्फ एक धर्म की तलाश के रूप में नहीं हो सकता था। यदि ऐसा होता, तो ईसाई, इस्लाम या सिक्ख धर्म भी दलित मानस से अपना रिश्ता बना सकते थे। पर, ऐसा नहीं हुआ। ईसाई, इस्लाम और सिक्ख धमोर्ं में दलितों का सामूहिक धर्मान्तरण भी इन धमोर्ं से दलितों का रिश्ता नहीं बना सका। इसके विपरीत बौद्ध धर्म के प्रति वे दलित भी अनुराग रखते हैं या उदारवादी दिखाई देते हैं और उसका समर्थन भी करते हैं, जो बौद्ध धर्म के अनुयायी नहीं हैं। एक प्रश्न यह भी विचारणीय है कि दलित जातियों में ईसाई और इस्लाम धमोर्ं का व्यापक मिशनरी प्रचार भी उनके प्रति अपनत्व क्यों नहीं पैदा कर सका, जबकि यही अपनत्व बौद्ध धर्म के प्रति पागलपन की हद तक दलितों में पैदा हो गया ? यह एक ऐसा सवाल है, जिस पर गम्भीर विचार करने की जरूरत है, क्योंकि इसी सवाल पर दलित धर्म की मौलिक अवधारणा निर्भर करती है।
मैंने दलित धर्म का सवाल इसलिए उठाया, क्योंकि इसके बिना न तो बौद्ध धर्म से दलितों के रिश्ते को समझा जा सकता है और न अन्य धमोर्ं के प्रति दलितों के अलगाव को। यहां एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी विचारणीय है कि कबीर और रैदास की विरासत भी दलितों को बौद्ध धर्म से जोड़ने में एक मजबूत कड़ी बन जाती है। सम्भवतः इसी आधार पर डॉ. धर्मवीर एक पृथक दलित धर्म को मान्यता देते हैं। इस अवधारणा पर वे काम भी कर रहे हैं, जिसे कुछ हद तक उनके कबीर विषयक रचनाकर्म में देखा भी जा सकता है।
यदि हम इस अवधारणा को लेकर चलें, तो हम कह सकते हैं कि डॉ. आम्बेडकर भी इस दलित धर्म की परम्परा से ही बौद्ध धर्म तक पहुंचे थे। बौद्ध धर्म उनका कोई आविष्कार नहीं है। वह उनकी एक मौलिक खोज है, जो दलितों को उनके धर्म और उनकी सांस्कृतिक विरासत से जोड़ती है। एक गैर हिन्दू राष्ट्र के रूप में दलितों को विकसित करने की दिशा में उनकी इस खोज ने क्रांतिकारी भूमिका निभायी है।
अब हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि इस दलित धर्म की अवधारणा क्या है और इसका बौद्ध धर्म तथा कबीर आदि दलित संतों की सम्पूर्ण विरासत से किस तरह का सम्बंध बनता है? इस धार्मिक विरासत में हम गोरखनाथ और सिक्खों के प्रथम गुरु नानकदेव को भी पाते हैं। उत्तर भारत के दलितों में गोरखनाथ बाबा और गुरु नानकदेव के प्रति असीम श्रद्धा और उनकी पूजा आज भी मौजूद हैं। दलितों में गुरु नानकदेव की प्रतिष्ठा सिक्ख धर्म के अस्तित्व में आने के काफी पहले हो चुकी थी, जो सिक्ख धर्म स्थापित होने के बाद भी कायम रही। मतलब स्पष्ट है कि नानकदेव दलित धर्म से जुड़े बिना दलितों की श्रद्धा के पात्रा नहीं बन सकते थे। यह जुड़ाव या समर्थन इतना प्रबल रहा होगा कि बाद में जब वे गुरु गोविन्द सिंह द्वारा स्थापित सिक्ख धर्म में पहले गुरु के रूप में शामिल कर लिए गये, तब भी वे दलितों के देव बने रहे।
इस दलित धर्म को समझने के लिए हमें पहले उसके सिद्धांतों की खोज करनी होगी। इन सिद्धांतों को खोजने का तरीका क्या होना चाहिए? ऐसे केवल दो तरीके हो सकते हैं। पहला तरीका दलित जातियों की सामाजिक समस्या या उनके रीति रिवाजों, परम्पराओं और सांस्कृतिक मूल्यों के अध्ययन का है। इस अध्ययन में हम यह देखेंगे कि दलितों की जो मान्यताएं हैं, उनकी समता दलित धर्म की विरासत से कितनी है? और यह भी कि उनका बौद्ध धर्म से भी क्या कोई रिश्ता बनता है? दूसरा तरीका यह हो सकता है कि हम, दलित धर्म के जितने भी गुरु हुए हैं या दूसरे शब्दों में दलित अस्मिता के जितने भी महानायक हुए हैं, उनमें से किसी एक को चुन कर उसकी प्रवृत्तियां का अध्ययन करें और उसके आधार पर दलित धर्म की अवधारणा का एक पैमाना बनायें। इस पैमाने से न सिर्फ हम मौलिक दलित धर्म को खोज सकते हैं, बल्कि बौद्ध धर्म से उसके रिश्ते का भी मूल्यांकन कर सकते हैं।
हम दोनों या कोई एक तरीका अपना सकते हैं। हम यहां दोनों तरीकों से सिद्धांत खोजने का प्रयास करते हैं। पहले तरीके को अपनाते हुए हम यह देखेंगे कि दलितों की सामाजिक समस्या क्या है और उनके धार्मिक सांस्कृतिक मूल्य क्या हैं?
दलितों की सामाजिक समस्या
1911 की जनगणना में अछूतों की गणना बाकी लोगों से अलग करने के लिए दस मानदंड अपनाये गये थे, जिसके आधार पर उन जातियों और कबीलों की अलग अलग गणना की गयी। डॉ. आम्बेडकर ने अपने एक लेख ÷अछूत और उनकी संख्या' में इन मानदंडों का इस प्रकार उल्लेख किया हैᄉ
(1) ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को नहीं मानते।
(2) किसी ब्राह्मण या अन्य मान्यता प्राप्त हिन्दू से गुरुदीक्षा नहीं लेते।
(3) वेदों की सत्ता को नहीं मानते।
(4) बड़े बड़े हिन्दू देवी देवताओं की पूजा नहीं करते।
(5) ब्राह्मण जिनकी यजमानी नहीं करते।
(6) जो किसी ब्राह्मण को पुरोहित बिल्कुल भी नहीं बनाते।
(7) जो साधारण हिन्दू मंदिरों के गर्भगृह में भी प्रवेश नहीं कर सकते।
(8) जिनसे छूत लगती है।
(9) जो अपने मुदोर्ं को दफनाते हैं।
(10) जो गोमांस खाते हैं और गाय की पूजा नहीं करते।1
इन मानदंडों से की गयी 1911 की जनगणना में दलितों को गैर हिन्दू वर्ग माना गया। ये मानदंड आज भी प्रासंगिक हैं। आज भी दलित जातियां न तो वेदों की सत्ता को मानती हैं और न ब्राह्मण के प्रभुत्व को स्वीकार करती हैं। वे हिन्दू नहीं हैं, सिर्फ एक सेवक श्रेणी के रूप में उन्हें हिन्दू फोल्ड या हिन्दू व्यवस्था में रखा गया है।
ब्रिटिश स्कालर जी. डब्ल्यू. ब्रिग्स ने अपनी प्रख्यात पुस्तक ÷चमार' में लिखा हैᄉ''मनु के अनुसार संसार की वे सभी जातियां, जो उस समुदाय से अलग हैं, जो (ब्रह्मा के) मुख, भुजा, उदर और पैर से पैदा हुई हैं, दस्यु कहलाती हैं, भले ही वे गंवारू भाषा बोलती हों या आयोर्ं द्वारा बोली जाने वाली भाषा।''2 ब्रिग्स आगे लिखते हैंᄉ ''वैदिक काल में भी दस्यु लोगों को हीन और अस्वच्छ मान कर उनसे घृणा की जाती थी। उनको कभी भी आर्य समुदाय में शामिल नहीं किया गया।3 ब्रिग्स के अनुसार ये लोग गांव के बाहर रहते थे और चामड़ तथा चर्मकार इन दो समूहों में विभक्त थे।4 वह लिखते हैं कि आज वे लोग ही चमार कहलाते हैं।5
दलित जातियों में चमारों की जनसंख्या सबसे अधिक है। 1911 की जनगणना के पूरे भारत के आंकड़ों से पता चलता है कि संख्या की दृष्टि से ब्राह्मण जाति पहले स्थान पर है और चमार दूसरे स्थान पर हैं। चमार हिन्दू होने की किसी भी अपेक्षा को पूरा नहीं करते हैं।6 अन्य दलित जातियां भी इस स्थिति से बाहर नहीं हैं। इसलिए सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से यह निर्विवाद है कि दलित हिन्दू नहीं हैं।
दलितों की सामाजिक समस्या क्या है? निश्चित रूप से यह समस्या समानता और स्वाधीनता की है, जो हिन्दू समाज व्यवस्था में उनको प्राप्त नहीं है। इस समस्या को हम इन दो घटनाओं से समझ सकते हैं। पहली घटना ब्रिटिश भारत के समय की है, जो 1938 में घटी थी। इस घटना का उल्लेख डॉ. आम्बेडकर ने अपने लेख ÷अस्पृश्यता और अन्याय' में इस प्रकार किया है, जिसे उन्होंने ÷जीवन' नामक पत्रिाका से लिया थाᄉ''आगरा जिले की तहसील फतेहगढ़ के गांव दोर्रा में मोतीराम जाटव के यहां रामपुर गांव से बारात आयी। दूल्हे ने चमकीला मौर पहन रखा था और बारात के साथ बैंड बाजा चल रहा था। साथ ही आतिशबाजी भी हो रही थी। इस पर सवर्ण हिन्दुओं ने एतराज किया कि बारात के साथ बाजा नहीं बज सकता और आतिशबाजी नहीं हो सकती। मोतीराम ने इसका विरोध किया। उसने कहा कि हम भी उसी तरह के इनसान हैं, जैसे और दूसरे लोग हैं। इस पर सवर्ण हिन्दुओं ने मोतीराम को पकड़ लिया और उसकी पिटाई की तथा बारात पर भी हमला किया। मोतीराम की पगड़ी में पंद्रह रुपये और एक आना बंधा हुआ था, वह भी छीन लिया गया।''7
इस घटना में मोतीराम के ये शब्द ध्यान देने योग्य हैं कि ÷हम भी उसी तरह के इंसान हैं जैसे और लोग हैं।' समता और स्वतंत्राता के लिए संघर्ष इस घटना का मूलाधार है।
अब दूसरी घटना को लेते हैं, जो स्वतंत्रा भारत में घटी है। यह 1995 की घटना है, जिसे सभी राष्ट्रीय अखबारों ने प्रकाशित किया था। घटना इस प्रकार हैᄉ तमिलनाडु के सलेम जिले के करनी चनपट्टी गांव में, एक विद्यालय में एक ब्राह्मण अध्यापक ने एक दलित छात्राा थन्नम की इसलिए आंख फोड़ दी, क्योंकि उसने उस बर्तन से पानी पी लिया था जो सवर्ण छात्राों के लिए था।
इस घटना में दलित छात्राा अस्पृश्यता की शिकार हुई है। यह अस्पृश्यता भी असमानता से जन्म लेती है, जिस पर हिन्दू धर्म टिका है।
इस प्रकार हम दलितों की सामाजिक समस्या और उनके सांस्कृतिक धार्मिक विश्वासों के अध्ययन से जिस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं, उसके आधार पर निम्नलिखित सिद्धांत तय किये जा सकते हैंᄉ
1. दलित हिन्दू नहीं है।
2. दलित वेदों की सत्ता को नहीं मानते हैं।
3. दलित ब्राह्मणों के प्रभुत्व को स्वीकार नहीं करते हैं।
4. वे समता, स्वतंत्राता और मानवीय गौरव की प्रतिष्ठा के आकांक्षी हैं।
5. वे अस्पृश्यता रहित समता मूलक समाज का निर्माण चाहते हैं।
6. वे श्रमजीवी हैं।
स्पष्ट है कि दलित धर्म की अवधारणा इन्हीं सिद्धांतों पर आधारित होनी चाहिए। यह हम आगे देखेंगे।
अब हम दूसरे तरीके से यानि दलित मुक्ति के नायकों की प्रवृत्तियों के अध्ययन से उन सिद्धांतों की खोज करेंगे, जिनसे धर्म की अवधारणा को समझा जा सकता है।
दलित नायकों का धर्म
यदि हम मनु के इस कथन को दलित नायकों का धर्म मान कर चलें कि जो लोग ब्रह्मा के मुख, भुजा, उदर और पैर से पैदा नहीं हुए हैं, वे सभी दस्यु हैं, चाहे वे आर्य भाषा बोलते हों या गंवारू भाषा।8 तो दलित अपने नायकों की तलाश वैदिक काल से पूर्व के अनायोर्ं तक में कर सकते हैं। मनु वैदिक काल के दस्यु आदि अनायोर्ं को वर्ण व्यवस्था से बाहर की जातियां मानता है। दलित भी, जो अतिशूद्र है, वर्ण व्यवस्था से बाहर के हैं। क्योंकि मनु का कहना है कि सिर्फ चार वर्ण हैं, पांचवा कोई वर्ण नहीं है।9 इस स्मृति की व्याख्या करते हुए डॉ. आम्बेडकर ने लिखा है कि इसका अर्थ यह है कि मनु चातुर्वर्ण का विस्तार नहीं चाहता था। वह उन समुदायों को मिला कर पांचवें वर्ण की व्यवस्था के पक्ष में नहीं था, जो चारों वणोर्ं से बाहर थे। वह यह कह कर कि पांचवां वर्ण नहीं है, यह बताना चाहता है कि जो चातुर्वर्ण से बाहर है, उन्हें वह पांचवां वर्ण बना कर हिन्दू समाज में शामिल नहीं करना चाहता था।10
अतः हमें यह मानना होगा कि सारी अछूत और दलित जातियां वर्ण व्यवस्था से बाहर की जातियां हैं, वे सभी अनार्य हैं, और कदाचित हिन्दू नहीं हैं। उनके नायकों की एक लम्बी सूची तैयार की जा सकती है, जिनकी प्रवृत्तियों का अध्ययन करके हम एक मौलिक धर्म और संस्कृति की खोज कर सकते हैं, जो पूर्व वैदिक काल से लेकर अब तक के दलितों के आचरण में हैं। यहां हम कुछ प्रमुख नायकों की प्रवृत्तियों का विश्लेषण करेंगे।
वैदिक काल के दस्यु जाति की धर्म संस्कृति क्या थी, इसे हम ऋग्वेद की इस ऋचा में देखते हैंᄉ
अकर्मा दस्युरयिनो अमंतुरन्यव्रति अमानुषः।
त्वं तस्या मित्राहन्वधदसिस्य दंभय।11
अर्थᄉ हम चारों ओर दस्यु जाति से घिरे हैं। वे यज्ञ नहीं करते, उनके कर्मकांड भिन्न हैं, वे मनुष्य नहीं हैं। हे शत्राुहंता, उन्हें मारो।
इससे पता चलता है कि दस्यु जाति के लोगों की आबादी ज्यादा थी। उनकी धर्म संस्कृति वह नहीं थी, जो आयोर्ं की थी। वे यज्ञ नहीं करते थे। इस कारण उनके धार्मिक विश्वास दूसरी तरह के थे। आर्य उनसे भयभीत थे।
डॉ. धर्मानंद कोसम्बी ने अपनी पुस्तक ÷भारतीय संस्कृति और अहिंसा' में बड़ी मार्के की बात लिखी है कि ''दास लोग राजपूतों की तरह शूर थे। पर एकता और अश्वारोही सेना के अभाव के कारण उनके लिए आयोर्ं के सामने ठहरना असम्भव था। नमुचि दास ने तो अपने राज्य की स्त्रिायों तक को इंद्र से लड़ने के लिए खड़ा कर दिया था। इसका उल्लेख ऋग्वेद (5-30-9) में मिलता है। ÷स्त्रिायो हि दास आयुधानि चक्रे किम करन्नबला अस्य सेनाः' (दास ने स्त्रिायों तक को युद्ध में खड़ा किया। पर ऐसी दुर्बल सेना क्या कर सकती थी) फलतः नमुचि इस लड़ाई में मारा गया।''12
इससे पता चलता है कि उनकी स्त्रिायां सिर्फ घर की चहारदीवारी में ही कैद नहीं रहती थीं, वे सेना में भी भरती होती थीं। स्त्राी पुरुषों में समानता थी।
दैत्यरज बलि के सम्बंध में ÷ब्रह्मपुराण' के अध्याय 73 में लिखा हैᄉ
गुरुभक्त्वा च सत्येन वीर्येण च बलेन च ।
त्यागेन क्षमया चैव त्रौलोक्ये नोपमीयते ॥(3)
अर्थᄉ गुरु भक्ति, सत्य, वीर्य, बल, त्याग और क्षमा में उसके समान तीनों लोकों में कोई नहीं था।
अन्य दलित नायकों में कबीर और रैदास का प्रभाव सभी दलित वगर्ोें पर है। अतः हमें यह देखना चाहिए कि मध्यकाल के ये दोनों संत किस धर्म के व्याख्याता थे। पहले हम कबीर की प्रवृत्तियां देखते हैं। वे कहते हैंᄉ
हरि के रूठे ठौर हैं, गुरु रूठे नहि ठौर।13
अर्थातᄉ हरि नाराज हो जाये, तो कोई फर्क नहीं पड़ता। पर यदि गुरु नाराज हो गया तो फिर कोई बचत नहीं।
कबीर गुरुभक्त थे। वह हरिभक्त नहीं थे। उनकी दृष्टि में हरि का कोई महत्व नहीं था। गुरु को कबीर ÷साहब' भी कहते हैं। यह कौन है, इसका पता उनके इस पद से चलता हैᄉ
मोको कहां ढूंढे बंदे, मैं तो तेरे पास में।
ना मैं देवल ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलास में॥
खोजी होय तो तुरते मिलिहों, पल भर की तालास में।
कहें कबीर सुनो भई साधो, सब स्वासों की स्वांस में॥14
इस पद में कबीर ने साम्प्रदायिक ईश्वर का पूरी तरह खंडन किया है। ऐसा ईश्वर उनका न आराध्य है, न गुरु है। उनका गुरु ÷आतम राम' है। अर्थात, अपनी स्मृति, अपने को खोजना।
कबीर की अन्य प्रवृत्तियां इन पदों में हैंᄉ
सिरजन हार न ब्याही सीता, जल पषाण नहि बंधा।
दशरथ कुल अवतार नहि आया, नहि लंका के राव सताया॥
नही देवकी गर्भहि आया, नही यशोदा गोद खिलाया।15
अर्थातᄉ सिरजनहार (सृष्टा) ने सीता से विवाह नहीं किया था और न उसने समुद्र के उ+पर पत्थरों का पुल बांधा था। दशरथकुल में कोई अवतार नहीं हुआ और न उसने लंका के रावण को मारा। वह देवकी के गर्भ से भी पैदा नहीं हुआ और न उसे यशोदा ने गोद में खिलाया। इस प्रकार कबीर अवतारवाद का खंडन करते हैं।
हिन्दू कहूं तो मैं नही, मुसलमान भी नाहि।
पांच तत्व का पुतला, गैबी खेले माहि॥16
अर्थातᄉ कबीर कहते हैं कि वह न हिन्दू है और न मुसलमान है। वह पांच तत्वों का जीव है, जिसमें आत्मा क्रीड़ा करता है।
काहे को कीजै पांडे छोति विचार।
छोति हि ते उपजा सब संसार॥
हमारे कैसे लोहू तुम्हारे कैसे दूध।
तुम कैसे बांभन पांडे हम कैसे सूद॥17
अर्थातᄉ कबीर छुआछूत और जातिभेद के विरोधी हैं। वह मानव मानव के बीच जाति के भेद को नहीं मानते हैं। उनका धर्म समतावादी है।
संसकिरत है कूप जल, भाषा बहता नीर।18
अर्थातᄉ कबीर संस्कृत को कुंए के पानी की तरह मानते थे और बोलचाल की लोकभाषा को बहता नीर। इसलिए कबीर संस्कृत के नहीं, लोकभाषा के पक्षधर थे।
इस प्रकार हम देखते हैं कबीर की मुख्य प्रवृत्तियों में गुरु को मानना, आतम राम को मानना, अवतारवाद का विरोध, छुआछूत और जातिभेद का खंडन तथा हिन्दू मुसलमान से परे मानव धर्म का समर्थन है।
देखते हैं कि रैदास की प्रवृत्तियां क्या हैं? रैदास शुरू में ही कहते हैंᄉ चारों वेद करै खंडौति, जन रैदास करै दंडौति,19 यानि रैदास को दंडवत वही करे, जो वेदों का खंडन करे। वेदों को नकार कर ही रैदास को स्वीकार किया जा सकता है। वे राम के भक्त भी नहीं हैं और न सेवक। वे योग यज्ञ भी नहीं करते हैं। वे उदास हैं, अर्थात, दास रहित स्वयं अपने स्वामी।
राम भगत को जन न कहाउ+ं सेवा करूं न दासा।
जोग जग्य गुन कछू न जानूं ताते रहूं उदासा॥20
रैदास वर्णव्यवस्था और उससे उत्पन्न जातिभेद तथा अस्पृस्यता का खंडन करते हैंᄉ
रैदास जनम के कारने होत न कोई नीच।
नर कूं नीच कर डारि है, ओछे करम की कीच॥21
रैदास बांभन मत पूजिए जो होवे गुन हीन।
पूजिए चरन चंडाल के जो हो ज्ञान प्रवीन॥22
रैदास का धर्म जातिविहीन है, वह मनुष्य को महत्व देता हैᄉ
धर्म की कोई जात नहीं न जात धर्म के माह।
रैदास चले जो धर्म पे करेंगे धर्म सहाय॥
जातपात के फेर मह उरझि रहे सब लोग।
मानुषता को खात है रैदास जात का रोग॥23
रैदास के धर्म में श्रम का महत्व हैᄉ
श्रम को ईश्वर जान के जो पूजहि दिन रैन।
रैदास तिनहि संसार मह सदा मिलहि सुख चैन॥24
रैदास को न मस्जिद से कुछ लेना है, न मंदिर से कोई प्यार है। वह न अल्लाह को मानते हैं ओर न हरि को। स्पष्ट है कि वह न हिन्दू हैं, न मुसलमान। यथा
मस्जिद सो कछु घिन नहि, मंदिर सो नहि प्यार।
दोउ अल्ला हरि नहि, कह रैदास उचार॥25
कबीर की तरह रैदास भी सतगुरु साहब को मानते हैंᄉ
सतगुरु साहिब अति बड़ा पावत ना कोई पार।
सतगुरु साहिब अति बड़ा जानत विरला सार॥
सतगुरु साहिब अति बड़ा अंधियारे में दीप।
सतगुरु साहिब अति बड़ा सुंदर मोती सीप॥26
इस प्रकार हम रैदास को भी एक ऐसे धर्म के व्याख्याता के रूप में देखते हैं, जो हिन्दू मुसलमान के धमोर्ं से पृथक है, समतावादी है और मानववादी है। उनके आराध्य सतगुरु साहब हैं। कबीर और रैदास की ही तरह दादू भी इसी धर्म के अनुयायी हैं। उनका मत भी यही है कि वे न हिन्दू हैं और न मुसलमान। उन्होंने हिन्दुओं के षट् दर्शन का भी खंडन किया है। यथाᄉ
न हम हिन्दू होहिगे, न हम मुसलमान।
षट दरशन में हम नहीं, हम राते रहिमान॥27
दलित धर्म के सिद्धांत
उपरोक्त दोनों तरीकों, अर्थात्‌ दलितों की सामाजिक समस्या तथा दलित नायकों की प्रवृत्तियों के अध्ययन के आधार पर दलित धर्म की अवधारणा को समझने के लिए निम्नलिखित सिद्धांत तय किये जा सकते हैं। (उल्लेखनीय है कि सामाजिक मान्यताएं हमने पीछे स्पष्ट की हैं, जिनसे दलित नायकों की धार्मिक प्रवृत्तियां पूरी तरह मेल खाती हैं)ᄉ
1. दलित हिन्दू नहीं हैं।
2. वे वेदों के ज्ञान में आस्था नहीं रखते हैं।
3. वे यज्ञ नहीं करते हैं।
4. वे गुरु को मानते हैं।
5. वे समतावादी हैं।
6. वे वर्ण व्यवस्था और जातिभेद का खंडन करते हैं।
7. वे स्त्रिायों की स्वतंत्राता के पक्षधर हैं।
8. वे एक निर्गुण, निराकार ईश्वर को मानते हैं।
9. वे जन्म जन्मांतरवाद, अवतारवाद और स्वर्ग नर्क की धारणाओं को अस्वीकार करते हैं।
10. ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को नहीं मानते और न उनसे गुरुदीक्षा लेते हैं।
11. वे हिन्दू देवी देवताओं की पूजा नहीं करते।
12. वे श्रमजीवी हैं, भीख मांग कर नहीं खाते हैं।
13. वे संस्कृत को नहीं, लोकभाषा को अपनाते हैं।
दलित धर्म की विशेषताएं
इन सिद्धांतों के प्रकाश में एक सार्वभौमिक दलित धर्म की खोज सहज ही की जा सकती है। यदि हम सम्पूर्ण दलित वर्गों के धार्मिक विश्वासों और कर्मकांडों का अध्ययन करें तो हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वे विश्वास दलितों के एक पृथक धर्म का पता देते हैं। उपरोक्त सभी मान्यताएं उनके समाजों में मौजूद मिलती हैं। वे वर्णव्यवस्था से बाहर के लोग हैं, इसलिए हिन्दू व्यवस्था से भी बाहर के लोग हैं। हिन्दू व्यवस्था उनको गुलाम बना कर रखे हुए हैं। इस व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह करने और उससे निकल भागने के कारण ही हिन्दू उन पर अत्याचार करते हैं।
दलित श्रमजीवी हैं, कठोर श्रम करके जीविका कमाते हैं। इसी श्रम का हिन्दू व्यवस्था ने शोषण और दोहन किया है। उन्हें सामाजिक हीनता का शिकार बनाया है तथा उनको आर्थिक रूप से परतंत्रा बना कर उनके विकास को रोका है।
दलित यज्ञ नहीं करते हैं और न वेदों के ज्ञान में आस्था रखते हैंं। वे ब्राह्मण को श्रेष्ठ नहीं मानते, वरन्‌ मनुष्य को श्रेष्ठ मानते हैं और उसका सम्मान उसके गुणों से करते हैं।
कालांतर में हिन्दुत्व के धार्मिक आंदोलनों ने दलितों को हिन्दू व्यवस्था में बनाये रखने के लिए इस दलित धर्म को तमाम प्रकार से विकृत किया और नाना प्रकार के मिथ्या प्रचार से उनमें हिन्दू देवी देवताओं की पूजा तथा जन्म जन्मांतरवाद, पुनर्जन्म और स्वर्ग नर्क की धारणाएं विकसित की हैं। उन्हें शिक्षा से वंचित करके भी इसी साजिश के तहत रखा गया है कि उनमें विवेक का विकास न हो सके और वे मूल धर्म से न जुड़ सकें। वे गुरु को मानते हैं, पर इस बात से अंजान हैं कि विवेक ही उनका गुरु है। वे ईश्वरवादी हैं, पर राम, कृष्ण की साम्प्रदायिक धारणाएं भी उनमें मौजूद हैं, जो हिन्दू व्यवस्था के प्रभाव के कारण हैं। लेकिन भीतर से वे मूलतः निर्गुण के ही उपासक हैं।
दलित हिन्दू नहीं हैं, इसका प्रमाण है कि वे गाय का मांस खाते हैं और गाय को पूज्य नहीं मानते हैं। वे मुसलमान भी नहीं हैं, क्योंकि वे सुअर का मांस भी खाते हैं।
यह सार्वभौमिक सत्य है कि भारत के किसी कोने में रहने वाला दलित हिन्दू नहीं है, भले ही वह हिन्दू व्यवस्था में रह रहा है। वह आज भी सत्ता से वंचित है, धन से वंचित है, सम्पत्ति से वंचित है, शस्त्रा से वंचित है, शिक्षा से वंचित हैं और सामाजिक सम्मान से वंचित एक पृथक राष्ट्र के रूप में इस देश में रह रहा है। उसका इतिहास नष्ट कर दिया गया, उसके देवता नष्ट कर दिये गये, उसका धर्म नष्ट कर दिया गया, उसकी संस्कृति नष्ट कर दी गयी, वे तमाम प्रतीक खत्म कर दिये गये, जो उसकी पृथक पहचान स्थापित कर सकते थे। सिर्फ इसलिए कि एक सेवक श्रेणी के रूप में वह हिन्दू व्यवस्था में बना रह सके।
लेकिन दलित धर्म की विशेषताएं और उसके सिद्धांत दलितों की मान्यताओं, विश्वासों और उनकी संस्कृति में आज भी जीवित हैं। इसका प्रमाण है हिन्दू व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह और समता मूलक समाज के लिए उनका संघर्ष।
दलित और अन्य धर्म
इसका एक प्रमाण और भी है जो काफी गौर करने लायक है। वह यह है कि यह पूरी दलित आबादी ईसाई या मुसलमान क्यों नहीं हो गयी, जबकि इसका भरपूर अवसर उनको मिला था? क्या कारण है कि ईसाई और मुस्लिम मिशनरी भी इस गैर हिन्दू आबादी को अपने अपने धमोर्ं में तब्दील नहीं करा सके? उनके पास भी इसके पर्याप्त अवसर थे, जिसका वे लाभ उठा सकते थे। यदि मुस्लिम शासन में मुस्लिम मिशनरी या ब्रिटिश शासन में ईसाई मिशनरी इस गैर हिन्दू आबादी को मुस्लिम या ईसाई बना लेते, तो लाभ उनको ही होता। ऐसा क्यों नहीं किया जा सका? क्या ईसाई या मुस्लिम मिशनरियों ने प्रयास नहीं किया या फिर दलित जातियों ने उनके धमोर्ं में रुचि नहीं ली? सही कारण कौन सा हो सकता है? मुझे लगता है कि दूसरा कारण ही सही प्रतीत होता है। मुस्लिम और ईसाई मिशनरियों ने दलितों में धर्मांतरण के प्रयास न किये हों, ऐसा नहीं कहा जा सकता; क्योंकि इन धमोर्ं में जिन दलित जातियों के लोगों ने धमार्ंतरण किया था, वह इस प्रयास के कारण ही था। लेकिन वे मिशनरी पूरी दलित आबादी का धर्मांतरण कराने में सफल नहीं हो सके। इसका एक कारण यह बताया जाता है कि मुस्लिम शासकों ने ब्राह्मणवाद से यह समझौता कर लिया था कि वे हिन्दू समाज व्यवस्था को ध्वस्त नहीं करेंगे। उन्हें भी सेवकों की जरूरत थी, जो उन्हें हिन्दू व्यवस्था में गुलाम बना कर रखे गये दलितों में से ही मिल सकते थे। सम्भवतः इसीलिए लम्बे मुस्लिम शासन में भी दलितों को गुलामी से मुक्ति नहीं मिल सकी और धर्मांतरण के बाद भी नव मुस्लिम दलित, दलित ही बन कर जिये और दलित ही रह कर मरे। लेकिन, सिर्फ यही एक कारण नहीं हो सकता। यदि मात्रा इसी कारण से मुस्लिम मिशनरी अपने मिशन में सफल नहीं हो सके, तो सवाल यह है कि ईसाई मिशनरी भी सफल क्यों नहीं हो सके, जबकि ब्रिटिश सरकार दलितों की मुक्ति के पक्ष में थी?
वास्तव में मुख्य कारण यही है कि दलितों ने ही इस्लाम और ईसाई धमोर्ं में रुचि नहीं ली। लेकिन, इससे कोई यह भ्रम न पाल ले कि कबीर और रैदास आदि ने एकेश्वरवाद की धारा चला कर दलितों को इस्लाम में जाने से रोक कर हिन्दुत्व की रक्षा की थी और दयानंद ने आर्य समाज की स्थापना कर दलितों को ईसाई धर्म में जाने से रोक कर हिन्दुत्व की रक्षा की थी। ये दोनों ही ऐतिहासिक सत्य नहीं है। दयानंद ने समाज सुधार के नाम पर वैदिक व्यवस्था की नयी व्याख्या करके वर्ण व्यवस्था की रक्षा की थी तथा कबीर और रैदास आदि ने दलित धर्म की स्थापना करके हिन्दुत्व और इस्लाम दोनों से दलितों को बचाया था।
यह सच है कि कबीर और रैदास के कारण ही दलित जातियों के लोगों ने इस्लाम नहीं अपनाया था। पर, इसलिए नही कि उन्हें हिन्दुत्व से प्रेम था। जिस हिन्दू व्यवस्था में वे अस्पृश्यता और अपमान के शिकार थे, उससे उन्हें पे्रम हो ही नहीं सकता था। ऐसे धर्म को वे क्यों बचाना चाहेंगे, जिसमें उनकी कोई इज्जत नहीं है? उन्होंने यदि इस्लाम नहीं अपनाया था, तो इसलिए कि वे अपने ही धर्म के अनुयायी थे, जिसके गुरु कबीर और रैदास आदि दलित संत थे। उनके लिए उनका अपना धर्म ही मुक्तिदायक था। उनके लिए इस्लाम और हिन्दुत्व में अंतर नहीं था। दोनों में भाग्यवाद, कर्मवाद, स्वर्ग नर्क और पूजा पाठ के समान पाखंड थे। उनका धर्म जिसके गुरु और व्याख्याता कबीर और रैदास थे, इस पाखंडवाद से मुक्त था।
इस अंतर को मैं कुछ विस्तार से स्पष्ट करना चाहूंगा, ताकि इस बात को अच्छी तरह से समझा जा सके कि क्यों कबीर आदि दलित संतों का धर्म हिन्दुत्व और इस्लाम दोनों से अलग था। ये अंतर संक्षेप में इस प्रकार हैᄉ
पहला अंतर यह है कि कबीर आंखों देखी में विश्वास करते थे, जबकि हिन्दुत्व और इस्लाम के अनुयायी किताब की लिखी बात मानते हैं। वे वेद और कुरआन से परे नहीं जाना चाहते। हिन्दू वेद को ईश्वर की रचना मानते हैं, वैसे ही मुसलमान कहते हैं कि कुरआन अल्लाह की किताब है। दलित धर्म ऐसी किसी किताब को मान्यता नहीं देता, जिसे ईश्वर की रचना माना जाता हो। ईश्वर की किताब का अर्थ है, उस किताब की व्यवस्था ईश्वरीय है। वह अपरिवर्तनीय है, उसके सिद्धांतों में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता। कबीर सामाजिक परिवर्तन के समर्थक हैं, जबकि हिन्दू और मुसलमान दोनों अपने धर्मशास्त्राों के विरुद्ध सामाजिक परिवर्तन नहीं चाहते। इसलिए कबीर चीजों को सुलझाते हैं, जबकि हिन्दू मुसलमान उलझनें पैदा करते हैं। कबीर जागने की बात करते हैं, जबकि हिन्दू मुसलमान शास्त्राों में विश्वास सिखा कर लोगों को सुलाते हैं। यथाᄉ
मेरा तेरा मनुआ कैसे इक होइ रे।
मैं कहता हूं आंखन देखी तू कागद की लेखी रे॥
मैं कहता सुरझावन हारी तू राख्यों उरुझाई रे।
मैं कहता तू जागत रहियो तू रहता है सोई रे॥28
दूसरा अंतर यह है कि कबीर का धर्म भाग्यवाद, अवतारवाद और पुनर्जन्म, पूर्वजन्म की धारणा का खंडन करता है, जबकि हिन्दू मुसलमान इस धारणा में विश्वास करते हैं, अलबत्ता मुसलमानों की धारणा में कुछ परिवर्तन है। भाग्यवाद की धारणा दोनों में समान है। हिन्दुत्व की धारणा में हिन्दू की गरीबी और उसके कष्ट उसके भाग्य के कारण हैं। वह उसे पूर्वजन्म का फल भी बताता है। मुसलमान भी तकदीर में अटूट विश्वास करते हैं। तकदीर पर ईमान मुसलमानों के लिए जरूरी है, क्योंकि यह हदीस है। जब तकदीर में ही दुःख है, गरीबी है तो उसके विरुद्ध संघर्ष भी क्यों? हिन्दुत्व और इस्लाम लोगों को ऐसी ही शिक्षा देते हैं। अवतारवाद की हिन्दू धारणा में ईश्वर मनुष्य रूप में धरती पर जन्म लेते हैं और गौओं तथा ब्राह्मणों की रक्षा के लिए लड़ाइयां लड़ते हैं। मुस्लिम धारणा में अल्लाह मनुष्य रूप में जन्म नहीं लेता है, बल्कि वह धरती पर अपने दूत भेजता है। यद्यपि इस्लाम में पूर्वजन्म और पुनर्जन्म का सिद्धांत नहीं है, पर वह यह कहता है कि मृतकों की सारी आत्माएं कयामत के दिन पुनर्जीवित होंगी।
तीसरा अंतर ईश्वरवाद की अवधारणा को लेकर है। हिन्दू एकेश्वरवादी भी है और बहुदेववादी भी है। वह मूर्तिपूजक है और तीर्थ करने में विश्वास करता है। हिन्दू मानता है कि इस संसार का रचयिता ईश्वर (ब्रह्मा) है। इसके विपरीत मुसलमान एकेश्वरवादी हैं। वह यह मानता है कि अल्लाह एक है, उसका कोई रूप रंग नहीं है और न उसके साथ किसी को शरीक किया जा सकता है। इस सारे संसार को अल्लाह ने ही पैदा किया है। वही पालनहार और कयामत लाने वाला है। वह सातवें अर्श पर है और कयामत के दिन लोगों का हिसाब करता है। उन्हें उनके कमोर्ं के आधार पर जन्नत और जहन्नुम भेजता है। इसलिए, इस बिना पर अल्लाह एक सगुण सत्ता भी है। दलित धर्म ईश्वरवाद की इस अवधारणा का खंडन करता है। कबीर और रैदास निर्गुण के उपासक हैं। उसका वास न मंदिर में है, न तीर्थ में हैं और न काबा में है। वह मनुष्य के भीतर ही रहता है। कबीर कहते हैंᄉ ÷ज्यों तिल माही तेल है चकमक माही आग। तेरा साईं तुज्झ में, जागि सकै तो जाग॥'29 कबीर का ईश्वर किसी आसमान पर नहीं रहता है और न कयामत के दिन हिसाब करता है। उसका न कोई स्वर्ग है और न नर्क। वह संसार का रचयिता नहीं है। मानव का जन्म कबीर स्त्राी पुरुष के नैसर्गिक मिलन से ही मानते हैं। ÷एक बूंद से जग उत्पन्ना' कबीर की यह सोच वैज्ञानिक है। कबीर कहते हैं, हम अपनी ही राह चलेंगे। हिन्दू मुसलमान में कोई अंतर नहीं है। दोनों का कर्ता एक है। यथाᄉ
कहै कबीरा दास फकीरा, अपनी राह चलि भाई।
हिन्दू तुरक का करता एकै ता गति लखी न जाई॥30
चौथा अंतर सामाजिक व्यवस्था को लेकर है। कबीर और रैदास का दलित धर्म वर्णव्यवस्था का विरोधी है और समतामूलक समाज चाहता है। हिन्दू धर्म वर्णव्यवस्था का समर्थक है और सामाजिक भेदभाव में विश्वास करने की शिक्षा देता है। हिन्दू धर्म में ब्राह्मण को सबसे ज्यादा अधिकार प्राप्त है। उसे सबका गुरु माना जाता है, शूद्र सेवक वर्ग है, उसे कोई अधिकार प्राप्त नहीं है, न पढ़ने लिखने का, न शस्त्रा रखने का, न धन अर्जित करने का और न सम्मानित जीविका अपनाने का। हिन्दू समाज की वर्णव्यवस्था जन्म पर आधारित है। ब्राह्मण जन्म से होता है, वह कितना ही कुकर्मी हो, पर ब्राह्मण ही रहेगा। शूद्र कितना ही विद्वान और सुकर्मी हो, पर शूद्र ही रहेगा। कबीर ने इसे नहीं माना। उन्होंने कहाᄉ ÷ब्राह्मण गुरु जगत का, पर साधू का गुरु नाहि।'31 इस्लाम में यद्यपि ऐसी कोई वर्णव्यवस्था नहीं है, पर दलित धर्म जिस समता मूलक और वैज्ञानिक विचारधारा वाले समाज की बात कर रहा था, वह इस्लाम में भी नहीं है; क्योंकि इस्लाम में सब कुछ अल्लाह ही करता है, इंसान कुछ नहीं करता। अल्लाह की व्यवस्था में कुछ भी परिवर्तन करने का हक इंसान को नहीं है। ÷ऐसा भेद बिगूचन भारी' कबीर के लिए यह भारी भेद था, इसलिए वह न हिन्दुत्व के पक्ष में रहे और न इस्लाम के।
पांचवां अंतर उपासना को लेकर है। चूंकि कबीर और रैदास निर्गुणवादी हैं, इसलिए उनका ईश्वर ऐसी उपासना का कायल नहीं है, जो मंदिर और मस्जिद में की जाती है। उनकी उपासना में प्रसाद, भोग और दान दक्षिणा (चढ़ावे) का नियम नहीं है और न मस्जिद में जाकर नमाज पढ़ने और ÷तिलावत' करने का नियम है। उनका ईश्वर न किसी की मनौतियां पूरी करता है और न जानवर की कुर्बानी से प्रसन्न होता है। हिन्दू और मुस्लिम दोनों धमोर्ं में ईश्वर को प्रसन्न किया जाता है, जबकि दलितों का निर्गुण ईश्वर उसके अंदर ही रहता है और इसे पाने के लिए किसी अनुष्ठान की जरूरत नहीं पड़ती है।
छठा अंतर धार्मिक ज्ञान का है। कबीर ज्ञानवादी हैं, जबकि हिन्दू और इस्लाम दोनों मायावादी हैं। दोनों अज्ञान के शिकार हैं। एक अंतर यहां पर यह भी है कि कबीर जिसे माया कहते हैं, हिन्दू उसी को ज्ञान कहते हैं। हिन्दू और मुसलमान दोनों का ज्ञान शास्त्राों का ज्ञान है, जबकि कबीर विवेकवादी हैं। कबीर की इन पंक्तियों से इस बात को आसानी से समझा जा सकता हैᄉ
हौं तौ तुरक किया करि सुन्नति औरति सौं का कहिए।
अरध सरीरी नारि न छूटै आधा हिन्दू रहिए॥
पहिरि जनेउ जो ब्राह्मण होना मेहरि क्या पहिराया।
वो तो जनम की सूद्रिन परसै तुम पांडे क्यों खाया॥33
कबीर यहां काजी और ब्राह्मण को सम्बोधित करते हैं कि कोई मुसलमान यदि सुन्नत (खतना) करवाने से ही होता है, तो उसकी स्त्राी की सुन्नत क्यों नहीं होती? तब, क्या वह आधा हिन्दू ही नहीं रह गया? इसी तरह यदि सिर्फ जनेउ पहनने से ही ब्राह्मण होता है, तो वह अपनी स्त्राी को जनेउ क्यों नहीं पहनाता? तब जनेउ के अभाव में उसकी स्त्राी शूद्र ही हुुई। फिर एक शूद्र का परोसा गया खाना पांडे क्यों खाता है?
कबीर के धर्म की यह वैज्ञानिक तर्क क्षमता न हिन्दुत्व में है और न इस्लाम में।
सातवां अंतर यह है कि कबीर और रैदास का धर्म, करुणा, मैत्राी और अहिंसा का है, जबकि हिन्दू मुसलमान दोनों में ही जीव मात्रा के प्रति दया नहीं हैं। हिन्दू मुसलमान दोनों ही हिंसावादी हैं। दोनों जानवरों की बलि चढ़ाते हैं और उसे अपने धर्म में जायज मानते हैं। कबीर जीव हिंसा के विरुद्ध हैं। वे कहते हैंᄉ
कुकड़ी मारै बकरी मारै हक हक हक करि बोले।
सबै जीव साईं के प्यारे उबरहुगे किस बोले॥34
आठवां अंतर नारी विषयक धारणा है। हिन्दुत्व स्त्राी को भी शूद्र मानता है और तमाम हिन्दू शास्त्रा स्त्राी को पढ़ने के अधिकार का निषेध करते हैं। शंकराचार्य ने स्त्राी को नरक का द्वार कहा है, तो तुलसीदास जैसे ब्राह्मण उसे अवगुणों की खान कहते हैं तथा उसे ताड़ना देने की शिक्षा देते हैं। हिन्दू स्त्राी के लिए उसका पति ही उसका परमेश्वर है और उसकी सेवा में ही उसकी मुक्ति है। पति चाहे रोग ग्रस्त हो, स्त्राी के अयोग्य हो, कैसा भी हो, स्त्राी उसे छोड़ नहीं सकती। मुस्लिम स्त्राी भी स्वतंत्रा नहीं है। इस्लाम ने भी उसे पुरुष के बराबर अधिकार अदा नहीं किये हैं। मुस्लिम स्त्राी पर्दानशीन है। उसे बुरके में रहने का हुक्म है। यद्यपि हिन्दू स्त्राी के मुकाबले मुस्लिम स्त्राी को धर्मग्रंथ पढ़ने से नहीं रोका गया है। परंतु दोनों की सामाजिक वर्जनाओं में कोई अंतर नहीं है।
इसके विपरीत कबीर स्त्राी स्वतंत्राता के समर्थक हैं और पुरुष के साथ जीवन संघर्ष में समान भागीदारी निभाने की शिक्षा देते हैं। ब्राह्मण लेखकों ने कबीर के नाम से कुछ पदों को लिख कर उन्हें स्त्राी विरोधी साबित करने का षडयंत्रा किया है। ऐसे सभी पद प्रक्षिप्त हैं, जिनका कबीर की विचारधारा से कोई मेल नहीं बैठता है। वैज्ञानिक ज्ञान की आंधी ला देने वाले दलित संत स्त्राी विरोधी हो ही नहीं सकते थे। इसका एक प्रबल प्रमाण यह है कि मीरा को स्त्राी होने के नाते किसी भी ब्राह्मण संत ने अपना शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया था। अंततः वह दलित संत रैदास की शरण में गयी थी।
बौद्ध धर्म से सम्बंध
अतः कहना न होगा कि दलित धर्म की अवधारणा हिन्दुत्व और इस्लाम से मेल नहीं खाती है। इस अंतर के कारण ही दलितों ने न सिर्फ अपने को हिन्दू धर्म से अलग रखा, बल्कि इस्लाम और ईसाई धर्म में भी कोई रुचि नहीं ली। ईसाई धर्म भी हिन्दुत्व और इस्लाम से अलग नहीं है उसमें भी वही सब चीजें हैं, जो हिन्दुत्व और इस्लाम में हैं। इन धमोर्ं में जाकर दलित जातियों के लोग न सिर्फ अपना और अपने धर्म का अस्तित्व समाप्त कर लेते, बल्कि उन धमोर्ं के अंधविश्वासों और पाखंडों का ही शिकार होकर रह जाते। उनके बल पर उच्च वगोर्ं के ईसाई और मुसलमान उसी तरह शासक वर्र्ग बने रहते, जिस प्रकार उनके बल पर हिन्दू उच्च वर्ग शासक वर्ग बना हुआ है।
अब हम इस सवाल पर विचार करेंगे कि फिर बौद्ध धर्म के प्रति दलितों के आकर्षण का कारण क्या है? क्यों दलित लोग प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में बौद्ध बनते जा रहे हैं? दलित बस्तियों में बुद्ध मंदिरों की संख्या बढ़ती जा रही है। यही नहीं, तमाम कबीरपंथी और रैदासपंथी तथा आदि धर्मों के साधु भी बौद्ध भिक्षु बन गये हैं। और सवाल यह भी है कि क्यों हिन्दुओं ने बौद्ध धर्म को भी हिन्दुत्व के ही एक अंग के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया है?
एक एक करके इन सभी सवालों पर हम विचार करेंगे। पहले यह प्रश्न लें कि बौद्ध धर्म के प्रति दलितों का आकर्षण किन कारणों से है? सामान्यतः इसका कारण यह दिखाई दे सकता है कि डॉ. आम्बेडकर ने बौद्ध धर्म अपनाया था, इसलिए उनके अनुयायी उनका अनुकरण कर रहे हैं। लेकिन यह बहुत ही सतही उत्तर है और सवाल को काफी छोटा और हल्का करके देखना है। अगर यह एक कारण है भी, (और सचमुच यह अंशतः है) तो सवाल यह भी पैदा होता है कि डॉ. आम्बेडकर भी बौद्ध धर्म के प्रति ही क्यों आकर्षित हुए थे, जबकि वे स्वयं कबीरपंथी थे और कबीर रैदास दोनों से प्रभावित थे?
यदि डॉ. आम्बेडकर ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया होता, तो क्या इस्लाम के प्रति भी दलितों का आकर्षण यही हो सकता था, जो आज बौद्ध धर्म के प्रति है? अर्थात क्या इस्लाम दलित धर्म का रूप ले सकता था?
मेरा उत्तर नकारात्मक है। डॉ. आम्बेडकर द्वारा इस्लाम धर्म अपनाने का अनुकरण दलितों में इतना तीव्र नहीं हो सकता था, जितना कि बौद्ध धर्म के अनुकरण को लेकर है। निस्संदेह अनुकरण का प्रभाव होता है, खासतौर से नायक के अनुकरण का। लेकिन ईसाई या इस्लाम के मामले में यह अनुकरण ज्यादा दूर तक नहीं जा सकता था। इसका कारण क्या हो सकता है? मेरी दृष्टि में इसका कारण दलित धर्म के मूल्यों के सिवा कुछ नहीं हो सकता। दलित अपनी मौलिकता में जिस धर्म संस्कृति के अनुयायी हैं, उसके विरुद्ध वे नहीं जा सकते। यह उनके लिए आत्मघाती हो सकता है।
डॉ. आम्बेडकर इस तथ्य से परिचित थे। वह स्वयं भी कबीर और रैदास के धार्मिक मूल्यों के अनुयायी थे। इस मूल धार्मिक विरासत ने ही उन्हें प्रतिरोध की संस्कृति दी थी। यही उनके समग्र जीवन संघर्ष और उनकी नयी रचनाशीलता की ऊर्जा थी। यह ऊर्जा उन्हें इस्लाम और ईसाई धर्म से नहीं मिल सकती थी। वे दूरदर्शी थे, साथ ही नये समाज के निर्माण की परिकल्पना उनके रचना संघर्ष में थी। वे इस बात से अवगत थे कि इस्लाम उनकी परिकल्पना को मूर्त रूप नहीं दे सकता और दलित भी उसे स्वीकार नहीं कर सकेंगे। यही कारण था कि उन्होंने इस्लाम को स्वीकार नहीं किया, हालांकि वे उसके सामाजिक दर्शन को पसंद करते थे। पर इस्लाम की ईश्वरवादी अवधारणा उनको पसंद नहीं थी, उसे स्वीकार करने का मतलब था, नियतिवादी बनना जो दलितों के लिए अत्यधिक आत्मघाती होता।
इसके मूल में, वास्तव में निर्गुण ईश्वर की अवधारणा थी, जो दलितों की सांस्कृतिक विरासत है। डॉ. बाबा साहब आम्बेडकर के लिए यह एक क्रांतिकारी अवधारणा थी। यह दलितों के जीवन संघर्ष को आगे बढ़ा सकती थी। प्रतिरोध की संस्कृति को भी विकसित कर सकती थी। लेकिन, इस दलित धर्म की पुनः स्थापना एक कठिन समस्या थी। दलित संतों की मूल वाणी में ब्राह्मणों द्वारा कालांतर में तमाम प्रक्षिप्त पद जोड़ दिये गये और उसे ब्राह्मणवादी रंग दे दिया गया। संतों के चरित्राों के बारे में ऐसी ऐसी भ्रामक गल्पें जोड़ दी गयीं कि उनके ब्राह्मण भक्त होने का अहसास आसानी से किया जा सकता था। निःसंदेह इस विषय पर खोज पर काम किया जाना चाहिए और दलित संतों के सम्यक स्वरूप को सामने लाना चाहिए। पर एक अन्य समस्या यह भी है कि दलित संतों के नाम से ब्राह्मणों द्वारा अलग अलग जातीय पंथ या सम्प्रदाय बना दिये गये, जैसे कबीरपंथ, रैदासपंथ, दादूपंथ इत्यादि। ये पंथ विभिन्न दलित जातियों के बीच एकता स्थापित करने की दिशा में कोई काम नहीं कर सके, वरन उन्होंने जाति को और भी मजबूत किया। डॉ. आम्बेडकर जाति का विनाश चाहते थे। भले ही हिन्दू अपनी जाति को बना कर रखें, पर दलितों में जाति विहीन समाज की स्थापना जरूरी थी।
1935 में डॉ. आम्बेडकर ने धर्मान्तरण की घोषणा की थी। उन्होंने कहा था कि वे एक हिन्दू के रूप में मरना नहीं चाहते। क्या वे स्वयं को हिन्दू मानते थे? निश्चित रूप से नहीं, क्योंकि हम देखते हैं कि दलितों के राजनैतिक अधिकारों के मामले में वे दलित वर्ग को एक गैर हिन्दू अल्पसंख्यक वर्ग के रूप में अपनी अकाट्य दलीलों से ÷कम्यूनल अवार्ड' में स्थापित करा चुके थे। पर, इस जीती हुई लड़ाई को वे ÷पूना पैक्ट' में 1932 में हार चुके थे, जिसका एक मुख्य कारण यह था कि उस समय दलित वर्ग अत्यंत कमजोर था और उनके पक्ष में, उनकी सहायता करने वाला कोई नहीं था। अन्य धर्म वालों की दृष्टि में वह हिन्दुओं की ÷घरेलू लड़ाई' थी। ऐसी स्थिति में कम्यूनल अवार्ड के परिणामस्वरूप दलितों को पूरे देश में हिन्दुओं की भारी हिंसा का शिकार होने से बचाने के लिए पूना पैक्ट जरूरी हो गया था।
हिन्दू व्यवस्था में बलपूर्वक रखे जाने की यही पीड़ा डॉ. आम्बेडकर की इस घोषणा में अभिव्यक्त हुई थी कि यह उनके वश में है कि वे हिन्दू रह कर मरेंगे नहीं। इस घोषणा के बाद ही ईसाई और मुस्लिम प्रतिनिधियों ने अपने अपने धमोर्ं में आने के प्रस्ताव डॉ. आम्बेडकर के पास भेजे थे। इन धमोर्ं के कुछ मिशनरियों ने उनसे बातचीत भी की थी। तब डॉ. आम्बेडकर ने धमोर्ं का तुलनात्मक अध्ययन भी किया। राष्ट्रीयता का सवाल इस मामले में कोई समस्या नहीं था, जैसा कि कुछ हिन्दू लेखकों ने प्रचारित किया है। निश्चित रूप से उन्होंने धर्मों का अध्ययन भी दलितों की दृष्टि से किया। यह ÷दृष्टि' राजनैतिक नहीं थी, जैसा कि प्रायः कुछ लोगों द्वारा माना जाता है। राजनैतिक सत्ता का सवाल उनके मस्तिष्क में जरूर था, पर वह धर्मान्तरण का मूल सवाल नहीं था। मूल सवाल था सामाजिक समता और सम्मान प्राप्त करने का। इसी सामाजिक दृष्टि से उन्होंने धमोर्ं का तुलनात्मक अध्ययन किया।
इस अध्ययन का आधार क्या था? निश्चित रूप से वही धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्य थे, जो दलित संतों की परम्परा के रूप में दलितों में मौजूद थे। इस अध्ययन से उनके विचारबिन्दु निम्नलिखित थेᄉ
पहला, ईश्वरवाद से मुक्ति, क्योंकि इसी की आड़ में दलितों का सारा शोषण हुआ है। इसी के कारण आत्मा, भाग्य, पूर्व कर्म, पुनर्जन्म और स्वर्ग नर्क की अंधी धारणाएं पैदा हुई हैं।
दूसरा, वर्णव्यवस्था और जातिभेद से पूर्ण मुक्ति।
तीसरा, देवी देवताओं, अनुष्ठानों, तप तीर्थों, पूजा पाठ आदि से मुक्ति।
चौथा, स्वतंत्राता, समता और बंधुत्व के सामाजिक मूल्य।
पांचवां, सामाजिक परिवर्तन की स्वीकृति।
छठा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण।
सातवां, परम्परा की सुरक्षा
इन विचारबिन्दुओं में हम पहले परम्परा की सुरक्षा को लेते हैं। परम्परा की सुरक्षा से तात्पर्य दलित धर्म की मौलिक अवधारणा की सुरक्षा से है। डॉ. आम्बेडकर की दृष्टि में स्थापनाएं महत्वपूर्ण थीं, जो दलित धर्म के विशिष्ट तत्व हैं। इनको हम दलित धर्म के सिद्धांतों में व्यक्त कर चुके हैं, जो क्रमांक एक से तेरह तक हैं। इस परम्परा की सुरक्षा न ईसाइयत में थी और न इस्लाम में थी। डॉ. आम्बेडकर ने देखा कि बौद्ध धर्म इस परम्परा को सुरक्षित रखता है। बुद्ध वेदों का खंडन करते हैं, ब्राह्मण की श्रेष्ठता को नहीं मानते हैं। वे समतावादी हैं, स्त्रिायों की स्वतंत्राता के समर्थक हैं। वे शास्ता (गुरु) है, पथ प्रदर्शक हैं और वे संस्कृत को नहीं, लोक भाषा को महत्व देते हैं।
बुद्ध अनीश्वरवादी हैं, आत्मा और ब्रह्म को भी नहीं मानते हैं। इस तरह बौद्ध धर्म में परलोकवाद, भाग्यवाद, जन्म जन्मांतरवाद, अवतारवाद, स्वर्ग नर्क और अलौकिक सत्ता के सारे पाखंडों से मुक्ति मिल जाती है। यहां यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि दलित धर्म की परम्परा ईश्वरवादी है, फिर अनीश्वरवादी बुद्ध के धर्म को क्यों स्वीकार किया गया? इसे समझना कठिन नहीं है, यदि हम दर्शन की इस पूरी परम्परा को समझ लें। अनायोर्ं (मूल निवासियों) के दर्शन का विकास ÷लोकायत' में हुआ। लोकायत का विकास बौद्ध धर्म में हुआ तथा बौद्ध धर्म का विकास सिद्धों से होता हुआ कबीर, रैदास के दलित धर्म में हुआ। ÷लोकायत' (जिस पर हम आगे चर्चा करेंगे) और बौद्ध धर्म दोनों अनीश्वरवादी हैं। पर लोकायत भौतिकवाद है जबकि बुद्ध का धर्म मध्यममार्गी है। दलित संतों ने भौतिकवाद और मध्यम मार्ग दोनों को स्वीकार किया है। किन्तु बुद्ध के अनीश्वरवाद का विकास दलित संतों के धर्म में ÷निर्गुणवाद' के रूप में हुआ है। दर्शन की दृष्टि से निर्गुणवाद अनीश्वरवाद का ही पर्याय है। यह किसी ऐसे ईश्वर को नहीं मानता जिसका गुण जन्म देना, मृत्यु देना, निर्माण और ध्वंस करना, दंड देना, स्वर्ग नर्क में लोगों को भेजना, अवतार लेना, किसी को अपना दूत बनाना और अपना शासन कायम करना हो। इसे संतों ने ÷आतम राम' कहा है, जो मनुष्य के भीतर ही है।
लेकिन दलित संतों की निर्गुणवादी धारा आगे चल कर विकृत हो गयी। उसका ब्राह्मणीकरण हो गया। कुछ ब्राह्मणों ने कबीरपंथी बन कर पूरे कबीर दर्शन को हिन्दू दर्शन में बदल दिया। इसलिए अनीश्वरवादी धर्म की जरूरत थी, जो बौद्ध धर्म के रूप में डॉ. आम्बेडकर को मिला।
बुद्ध जाति भेद के विरोधी थे। यह बुद्ध ही थे, जिन्होंने वर्ण व्यवस्था का खंडन करके सामाजिक क्षेत्रा में सबसे बड़ी क्रांति की थी। यह बुद्ध ही थे, जिन्होंने दलित जातियों के लोगों को भिक्षु संघ में दीक्षा देकर ब्राह्मणों की वर्णव्यवस्था को तोड़ा था। जाति भेद की व्यवस्था का समर्थन ईसाई और इस्लाम धर्म भी नहीं करते हैं, पर हिन्दुत्व के प्रभाव से भारत के ईसाई और इस्लाम समाज भी जाति भेद से मुक्त नहीं है। यद्यपि डॉ. आम्बेडकर यह मानते थे कि यदि ईसाइयों और मुसलमानों ने अपने आपस के जाति भेद को नष्ट करने का प्रयास किया, तो उनका धर्म उसमें बाधक नहीं बनेगा।35 लेकिन यह काम कब शुरू होगा, कुछ नहीं पता। सम्भवतः डॉ. आम्बेडकर यह जान गये थे कि ईसाई और मुस्लिम समाज अपना जाति भेद बनाये रखना चाहते हैं।
बुद्ध की सोच वैज्ञानिक थी। वे किसी बात को इसलिए मान लेने का निषेध करते थे कि वह किसी धर्मग्रंथ में लिखी है या किसी आचार्य, महापुरुष अथवा धर्मगुरु ने कही है, या परम्परा से मानी जाती रही है या उसे बहुत से लोग मानते हैं। उनकी शिक्षा थी कि किसी बात को तभी माना जाये, जब वह तर्क और अनुभव से सही साबित हो जाये। कबीर भी अनुभव को ही महत्व देते थे। यही उनका ÷आतम राम' था, यही विवेक था, यही सद्गुरु था।
अतः कहना न होगा कि डॉ. आम्बेडकर बौद्ध धर्म के प्रति इसलिए आकृष्ट हुए थे, क्योंकि दलित धर्म के सिद्धांतों से उसकी पूर्ण संगति बैठती थी। वे अपने अध्ययन से इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि केवल बौद्ध धर्म ही दलित धर्म का नया रूप ले सकता है। नागपुर में, 1956 में अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म को स्वीकार करने पर उन्होंने कहा भी था कि ऐसा हो सकता है कि दूसरे लोग बौद्ध धर्म को दलितों का धर्म कहें। किसी समय ईसाई धर्म की आलोचना भी यही कह कर की जाती थी कि वह मछुआरों और गुलामों का धर्म है। पर, आज ईसाइयों की संख्या विश्व में सबसे अधिक है। बौद्ध धर्म यदि दलित धर्म बन जाता है तो भारत में यह एक महान सामाजिक क्रांति होगी।
बौद्ध धर्म के प्रति दलितों के आकर्षण का मुख्य कारण भी यही है कि उनमें कबीर रैदास आदि दलित संतों के दलित धर्म की परम्परा जीवित है, जो उन्हें बौद्ध धर्म से जोड़ती है। इसी परम्परा के कारण डॉ. आम्बेडकर ने दीक्षा कार्यक्रम में बाईस प्रतिज्ञाओं को भी शामिल किया। ये प्रतिज्ञाएं दलितों के लिए अनिवार्य कर दी गयीं। सवाल यह है कि ये प्रतिज्ञाएं क्यों अनिवार्य की गयीं? इसका कारण यह है कि ये प्रतिज्ञाएं नये बौद्धों को दलित धर्म के निर्गुणवाद से जोड़ती हैं। सम्भवतः यह इन बाईस प्रतिज्ञाओं का ही परिणाम है कि बड़ी संख्या में कबीर और रैदासपंथी साधु भी बौद्ध भिक्षु बन गये हैं। इन बाईस प्रतिज्ञाओं में आरम्भ की दस प्रतिज्ञाओं में यही निर्गुणवाद है, जो इस प्रकार हैंᄉ
1. मैं ब्रह्मा, विष्णु और महेश को कभी ईश्वर नहीं मानूंगा और न उनकी पूजा करूंगा।
2. मैं राम और कृष्ण को ईश्वर नहीं मानूंगा और न उनकी पूजा करूंगा।
3. मैं गौरी गणपति इत्यादि हिन्दू धर्म के किसी भी देवी देवता को नहीं मानूंगा और न उनकी पूजा करूंगा।
4. मैं इस पर विश्वास नहीं करूंगा कि ईश्वर ने कभी अवतार लिया है।
5. मैं इस बात पर विश्वास नहीं करूंगा कि भगवान बुद्ध विष्णु के अवतार हैं। मैं ऐसे प्रचार को पागलपन का प्रचार समझूंगा।
6. मैं कभी श्राद्ध नहीं करूंगा और न कभी पिण्डदान करूंगा।
7. मैं बौद्ध धर्म के विरुद्ध किसी भी बात को नहीं मानूंगा।
8. मैं कोई क्रिया कर्म (संस्कार) ब्राह्मण के हाथ से नहीं कराऊंगा।
9. मैं इस सिद्धांत को नहीं मानूंगा कि सभी मनुष्य एक हैं।
10. मैं समानता की स्थापना के लिए प्रयत्न करूंगा।
ये प्रतिज्ञाएं न सिर्फ कबीर और रैदास के निर्गुण को व्यावहारिक रूप प्रदान करती हैं, बल्कि नव बौद्धों को हिन्दुत्व से भी अलग करती हैं। यदि यह कहा जाये तो कदाचित गलत न होगा कि डॉ. आम्बेडकर ने इन प्रतिज्ञाओं को सीधे कबीर रैदास के दर्शन से ही लिया है।
अब इस सवाल को आसानी से समझा जा सकता है कि ब्राह्मण चिन्तन यह प्रचार क्यों कर रहा है कि बौद्ध धर्म हिन्दू धर्म का ही एक अंग है? बौद्ध धर्म जिस तेजी से दलित धर्म का रूप ले रहा है और सामाजिक क्रांति की आंधी पैदा कर रहा है, उसे रोकने के लिए ब्राह्मण चिन्तन भी पूरी तेजी से सक्रिय है। अतः वह बौद्ध धर्म का हिन्दूकरण करने की साजिश यह प्रचार करके कर रहा है कि बुद्ध हिन्दू देवता विष्णु के अवतार थे। लेकिन डॉ. आम्बेडकर ने नव बौद्धों को बाईस प्रतिज्ञाएं करा कर ब्राह्मणों की इस साजिश को नाकाम कर दिया है।

संदर्भ
1. डॉ. आम्बेडकर सम्पूर्ण वांड्मय, हिन्दी, खंड-9 पृष्ठ 22-23
2,3. चमार, जी. डब्ल्यू. ब्रिग्गस, हिन्दी अनुवाद, जयप्रकाश ÷कर्दम', पृष्ठ-10-11
4.5.6. वही
7. डॉ. आम्बेडकर सम्पूर्ण वांड्मय,(हिन्दी) खंड-9 पृष्ठ 89
8,9. मनुस्मृति 10/45 पृष्ठ 349
10. डॉ. आम्बेडकर सम्पूर्ण वाड्मय खंड-9 पृष्ठ 157-58
11. ऋग्वेद 10/22/8
12. भारतीय संस्कृति और अहिंसा, धर्मानंद कोसम्बी, पृष्ठ 43
13. भारत में अंग्रेजी राज, सुंदरलाल, पृष्ठ 58
14. कबीर, हजारी प्रसाद द्विवेदी, (कबीरवाणी) पृष्ठ 179
15. भारत में अंग्रेजी राज, सुंदरलाल, पृष्ठ 58 16. वही, पृष्ठ 56
17. कबीर ग्रंथावली, श्यामसुंदर दास, पद 40 पृष्ठ 79
18. भारत में अंग्रेजी राज, सुंदरलाल, पृष्ठ 56
19. संत रैदास एक विश्लेषण, कंवल भारती, पृष्ठ 138
20. संत प्रवर रैदास, चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु, पृष्ठ 154
21. संत रैदास एक विश्लेषण, कंवल भारती, पृष्ठ 169
22. वही 23. वही, पृष्ठ 167 24. वही, पृष्ठ 162 25. वही, पृष्ठ 167 26. वही, पृष्ठ 186
27. भारत में अंग्रेजी राज, सुंदरलाल पृष्ठ 64
28. कबीर ग्रंथावली श्यामसुंदर दास, पद 163, पृष्ठ 247
29. तेरा साईं तुज्झ में (कबीरवाणी) भगवान श्री रजनीश, पृष्ठ 131
30. कबीर ग्रंथावली, श्यामसुंदर दास, पद 58, पृष्ठ 83
31. वही, चांणक कौ अंग-10 पृष्ठ 28 32. वही, पद 59, पृष्ठ 83
33. आलोचना, सं. नामवर सिंह, अप्रैल जून 2000, लेख कबीर को भगवा, पृष्ठ 312
34. कबीर ग्रंथावली, श्यामसुंदर दास, पद 62, पृष्ठ 84
35. पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन, डॉ. आम्बेडकर, हिन्दी अनुवादक दयाराम जैन, पृष्ठ 46-47 
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साभार: तद्भव दलित विशेषांक http://www.tadbhav.com/dalit_issue/dalit_dharma_ka.html#dalit

Tuesday 15 June, 2010

साम्प्रदायिकता का निवारण - एस.एल. सागर


साम्प्रदायिकता का निवारण 
एस.एल. सागर

धर्म निरपेक्षता बनाम साम्प्रदायिकता चर्चित पुस्तिका है। इसमें साम्प्रदायिकता के दुष्प्रभाव से बचने हेतु धर्म निरपेक्षता के वास्तविक मूल्यों को अपनाने पर बल दिया गया है। भारतवासियों के दोहरे चरित्रा को उजागर कर इसे ही साम्प्रदायिकता जैसी समस्या का मूल कारण बताया गया है। सागर प्रकाशन मैनपुरी द्वारा 1991 में प्रकाशित तथा एस.एल. सागर द्वारा लिखित यह पुस्तक देश के कोने कोने में विभिन्न आयोजनों में बिकती है। इस पुस्तक का यह अंश निश्चय ही साम्प्रदायिकता को लेकर नये प्रश्न करता है। सागर की अन्य चर्चित पुस्तकें हैंᄉ हिन्दू मानसिकता, सामाजिक न्याय, हिन्दुओं द्वारा गोमांस भक्षण, अछूत हिन्दू नहीं है।

साम्प्रदायिकता देश की अस्मिता के लिए बड़ी चुनौती बन चुकी है। यह देश इसी के कारण अनेक बार और अनेक वर्षों तक पराधीन रहा है। साम्प्रदायिकता राष्ट्रीय भावना के उदय होने में सबसे बड़ा अवरोध है। साम्प्रदायिकता से देश की स्वतंत्राता के लिए बहुत बड़ा संकट है। जब साम्प्रदायिकता की महामारी इतनी विकराल एवं भयावह है तो इसका निदान अवश्य ही खोजा जाना चाहिए। इसके निदान के लिए हमें इसके कारणों की खोज करना चाहिए और इसके प्रसारण के जो कारण हैं उन पर कारगर प्रतिबंध लगाये जाने चाहिए।
साम्प्रदायिक तत्व अफवाहों के सहारे इसका प्रसार करते हैं। इसके प्रसार के कारणों को रोका जाना चाहिए। साम्प्रदायिकता के विरुद्ध धर्म निरपेक्षता एक कारगर प्रयास है इस लिए धर्म निरपेक्षता का प्रचार प्रसार होना चाहिए।
साम्प्रदायिकतावाद परम्परावाद की जड़ से निकलता है। परम्पराओं के प्रति मोह साम्प्रदायिकता को जन्म देता है। यह सही है कि परम्परा में कुछ ऐसे जीवन तत्व होते हैं जो सामाजिक चेतना के अंग होते हैं पर इन परम्पराओं को इतना स्वार्थपरक बना दिया गया है कि इनसे अहित अधिक होता है और हित कम। इसलिए परम्परा का पीछा करना अब औचित्यहीन रह गया है।
साम्प्रदायिकता से देश विभाजन का खतरा है। साम्प्रदायिकता के जहर ने सम्पूर्ण देश को विषाक्त बना डाला है। हमें यह जानना बहुत आवश्यक है कि वे कौन सी परिस्थितियां हैं जिससे साम्प्रदायिकता का विषवृक्ष पल्लवित हुआ। हमें इन परिस्थितियों के अध्ययन के बाद उन्हीं संदर्भों में इसका निदान खोजना चाहिए।
यह सच है कि यहां में मुगलों से पूर्व शक, हूण, कुशान, मंगोल और गजनी के आक्रांता आये थे जिन्होंने देश के धन को भरपूर लूटा, सामूहिक कत्लेआम किये और स्त्राी पुरुषों को दास दासियां बना कर अरबस्तान को ले गये जहां उनमें से पुरुष का मूल्य 5 रुपया और स्त्राी का मूल्य 10 रुपया लगा कर चौराहों पर नीलाम कर दिया गया। ये आक्रांता आये और चले गये थे। जब मुगल भारत में आये तो वे वापस नहीं गये। यह घोर निकृष्ट सोच है कि भारत का हिन्दू शक और हूणों को विदेशी और आक्रांता नहीं कहता है और न आयोर्ं को ही जिन्होंने 60 हजार अनायोर्ंे का कत्लेआम किया था। शक, हूण, कुषान तीनों ही बाहरी हत्यारे आक्रांता थे पर वे भारत में बस गये। इन आक्रांताओं और मुगलों में क्या अंतर है फिर मुगलों को आक्रांता कहना कितनी बेइमानी की बात है। सच बात तो यह है कि मुगलों ने तो कोई कत्लेआम भी नहीं किया। अकबर ने तो सर्वधर्म समभाव की भावना से प्रेरित होकर दीन ए इलाही चलाया था। औरंगजेब जिस प्रकार बदनाम किया जाता है वह घृणा भाव के कारण बदनाम किया जाता है वरना अनेक हिन्दू उसके दरबार में उच्च पदों पर थे। अनेक मंदिरों के लिए उसने शाही खजाने से धन दिया था। उसे ÷जजिया कर' के लिए बदनाम किया जाता है पर जजिया तो उसने मुसलमानों पर भी लगाया था। औरंगजेब ने कोई मंदिर नहीं तुड़वाया बल्कि अनेक उदाहरण ऐसे भी मिल जायेंगे जहां स्वयं हिन्दू राजाओं द्वारा मंदिरों को ध्वस्त कराया गया था। कश्मीर के राजा हर्ष ने तो अनेक मूर्तियों को तुड़वाया था। मौर्य शासकों ने तो तमाम हिन्दू मूर्तियों को पिघला कर सिक्कों के लिए धातु इकट्ठी करायी थी।
खोजने पर नये तथ्य प्रकट हुए हैं कि भारत का इतिहास अंग्रेजों ने कम और हिन्दू लेखकों ने अधिक झूठे तथ्य घुसेड़ कर साम्प्रदायिक बनाया है और मुसलमानों के प्रति विषवमन किया है। विशम्भर नाथ पांडे पूर्व राज्यपाल उड़ीसा ने लिखा कि वे जब टीपू सुल्तान पर शोध कर रहे थे तो एक छात्रा के पास पुस्तक देखी, जिसमें लिखा था कि टीपू सुल्तान ने तीन हजार ब्राह्मणों को बलात इस्लाम धर्म कुबूल करने को विवश किया था और तीन हजार ब्राह्मणों ने आत्महत्या कर ली थी। यह लेख एक हिन्दू लेखक पंडित हरप्रसाद शास्त्राी का लिखा हुआ था। विशम्भर दयाल पांडे ने पं. हर प्रसाद से लिख कर पूछा कि यह कहां पर लिखा है तो हर प्रसाद ने कहा कि यह मैसूर के गजट में लिखा है पर गजट देखा गया, तो गजट में यह तथ्य कहीं नहीं पाया गया। इस प्रकार हिन्दू लेखकों ने मुसलमान बादशाहों के बारे में वैमनश्यतावश बहुत कुछ झूठ लिखा है। यही औरंगजेब के बारे में भी है। टीपू के बारे में तो यह प्रसिद्ध है कि उसका सेनापति ब्राह्मण था, वह 150 मंदिरों को प्रतिवर्ष अनुदान देता था, और श्रृंगेरी के जगतगुरु को बहुत मान्यता देता था। इससे साबित होता है कि इतिहास जानबूझ कर अंग्रेज लेखकों ने नहीं हिन्दू लेखकों ने ही झूठ लिखा है।
देश का विभाजन हुआ इसके लिए मुसलमान दोषी नहीं है। यदि गहराई से खोज की जाय तो तथ्य यही सामने आते हैं कि इसकी योजना तो सावरकर जैसे हिन्दू नेताओं के घरों में बनायी गयी थी। इस प्रकार मुसलमानों को दोषी ठहराना नितांत गलत है।
स्वतंत्राता के बाद यह सोचा गया था कि अब इस प्रकार का वातावरण तैयार किया जायगा जिससे देश में साम्प्रदायिकता की आग को ठंडा किया जायगा, किन्तु दुर्भाग्य है कि भारत की सरकार ने पिछले 44 साल में साम्प्रदायिक सौहार्द को बनाने के बजाय इसकी खाइर्ं को अधिक चौड़ा ही किया है। संविधान में भी स्पष्ट लिखा गया है कि किसी भी धार्मिक संगठन को सांस्कृतिक और शैक्षणिक कायोर्ं के अतिरिक्त किसी भी प्रकार साम्प्रदायिकता उभारने की अनुमति नहीं दी जायगी। पर हम बराबर देख रहे हैं कि साम्प्रदायिकता बराबर उभारी गयी है और संविधान को भी ताक में रख दिया गया है। कांग्रेस ने सत्ता में रहते हुए भी केरल और पंजाब में खूब धार्मिक नाटक खेले। आज तो धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर राजनैतिक पार्टियां बन रही हैं। आज तो धर्म के नाम पर ही नेतागीरी चमक रही है। धर्म के नाम पर राजनैतिक नेता यात्रााएं निकाल रहे हैं। आज विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों में कटुता पैदा करके राजनीति चलायी जा रही है। आज इस देश में धर्मयुद्ध लड़े जा रहे हैं। अतः आज आवश्यकता इस बात की है कि राजनीति के हर नापाक गठबंधन को रोका जाय। साम्प्रदायिकता राष्ट्र प्रजातंत्रा और समाज की दुश्मन है इससे बचा जाय। धर्म की राजनीति करने वाले चाहे वे व्यक्ति हों, चाहे संगठन इन पर रोक लगायी जाय और इनका दमन किया जाय।
आज साम्प्रदायिकता के विरुद्ध प्रभावी आंदोलन की आवश्यकता है। साम्प्रदायिकता का प्रश्न आज काफी जटिल हो चुका है। हमने इसे रोकने के लिए न तो कोई वैकल्पिक उपाय खोजा, न कोई संवैधानिक निदान ढूंढा। हमारे राजनैतिक दलों ने तो साम्प्रदायिकता का ही सहारा लिया। हिन्दू की मानसिकता यह बन चुकी है कि मुसलमान पाकिस्तान लेकर अपने हिस्से का भाग ले चुके हैं अब उन्हें भारत में रहने का कोई अधिकार नहीं है और यदि रहना है जो उनके अधीन होकर रहें।
हमारे इस साम्प्रदायिक जुनून के लिए बहुत कुछ कानूनी व्यवस्था का अभाव और संवैधानिक निष्क्रियता भी दोषी है हमारा संविधान तो निष्क्रिय इसलिए हो रहा है क्योंकि वह 44 साल से ऐसे हाथों में ही रहा है जो साम्प्रदायिकता उत्प्रेरक और प्रयोग करने वाले ही थे। हमारे यहां कानून ऐसा कोई नहीं बना है जो किसी घटना से पहले उसे रोकता हो या दंडित करता हो। यहां घटना हो जाने पर कानून काम करना प्रारम्भ करता है। हमारे यहां की न्याय व्यवस्था दूषित है क्योंकि किसी को दंडित करने के लिए इसमें साक्ष्य चाहिए। हत्या हुई, जज ने भी देखा, सरकारी वकील ने भी देखा पर अपराधी को दंड तभी मिलेगा जब कोई गवाह, चाहे फर्जी ही क्यों न हो, अदालत में जाकर अपना बयान दर्ज कराये। हमारा कानून तो ऐसा भी है कि घटना हुई ही न हो और गवाह अदालत में झूठी गवाही दे दे तो आरोपी को सजा कर देगा, जहां कानून इस प्रकार अंधा हो उससे विवेक की आशा नहीं करनी चाहिए।
हिन्दू समाज के उच्च तबकों (जातियों) में श्रेष्ठता का एक महारोग व्याप्त है। धर्म, जाति और लिंग सम्बंधी श्रेष्ठता की मानसिकता भी बहुत कुछ हमारी साम्प्रदायिक भावना को उभारने के लिए उत्तरदायी है। श्रेष्ठता की मानसिकता दूसरे के महत्व को स्वीकार करने की गुंजाइश समाप्त कर देता है और जब तथाकथित श्रेष्ठ तबके के अंह को कहीं ठेस पहुंचती है तो वह साम्प्रदायिकता पर उतर आता है। यह एक सामंती मनोवृत्ति है जो समानता की भावना के विपरीत है। यह सामंतवादी दर्शन हिन्दू समाज की आधारशिला है। इसमें सहनशीलता की कोई गुंजाइश नहीं है। आज अनेक हत्याकांड केवल श्रेष्ठता की सामंती भावना के परिणामस्वरूप ही उ+ंचे हिन्दुओं द्वारा दलितों के किये जाते हैं। ये अपने धर्म को श्रेष्ठ मानते हैं इसलिए मुसलमानों की हत्याएं करते हैं। इस प्रकार सामंतवादिता और श्रेष्ठता की भावना ने सहनशीलता समाप्त कर हिन्दू समाज में जड़ता पैदा कर दी है। इस जड़ता को जब कोई कुरेदता है तो हिंसक साम्प्रदायिकता खड़ी हो जाती है। सन्‌ 1955 से लेकर 1989 तक अस्पृश्यता अपराध अधिनियम और अनुसूचित जाति अत्याचार अपराध अधिनियम इसी कारण असफल हो गये। इस प्रकार इस श्रेष्ठता और सामंतवादी भावना का उन्मूलन हुए बिना साम्प्रदायिकता को रोक पाना सम्भव नहीं है।
कुछ विचारकों की यह धारणा है कि साम्प्रदायिकता के विरुद्ध समाज को शिक्षित किया जाय और शिक्षा का स्तर बचपन से ही सुधारा जाय परंतु जहां शिक्षा के कोर्स में साम्प्रदायिकता उभाड़ने वाले पाठ होंगे, अंधविश्वास और धर्मांधता वाले पाठ बच्चों को पढ़ाएं जायेंगे वहां साम्प्रदायिकता बढ़ने के अतिरिक्त घटने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता है। इसीलिए यह आवश्यक है कि बच्चों के लिए शिक्षा का पाठ्यक्रम राष्ट्रीय सहमति के आधार पर निर्धारित किया जाय।
साम्प्रदायिकता के विरुद्ध एक आंदोलन की आवश्यकता है जो भाषणों तक सीमित न रह कर व्यवहार में उतारा जाना चाहिए। सामूहिक विवाह, सामूहिक भोज और सामूहिक गोष्ठियां होनी चाहिए। आक्रोश हिंसा को बढा+ता है। आंदोलनों से साम्प्रदायिक आक्रोश घटेगा और हिंसा पर रोक लगायी जा सकेगी।
श्रेष्ठता पर आधारित साम्प्रदायिकता का भाव मनुष्यता के अस्तित्व को नकारता है और यह मनुष्य के जीने की स्वायत्तता को स्वीकार नहीं करता है। जनतंत्रा इसके लिए एक अतिउत्तम माध्यम है। हमारे यहां सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि किताबी रूप में हमने जनतंत्रा को वरण कर लिया है पर व्यवहार में इसे जातिवाद और धर्मवाद से घिनौना बना दिया है। एक धर्म और जाति के लोग अपने प्रत्याशी को विधानसभा और लोकसभा में पहुंचाने के लिए बूथ कैप्चर कर लेते हैं। हां बूथ कैप्चरिंग यदि निचली जातियों द्वारा की जाती होती तो कोई कारगर उपाय सत्ता द्वारा अवश्य कर दिया गया होता चूंकि सत्ता पर उच्चवर्ण हावी है और बूथ कैप्चर उन्हीं के लोग करते हैं तो वे इस पर क्यों रोक लगायें। यह भी साम्प्रदायिकता है। इसने तो प्रजातंत्रा को इतना दूषित बना दिया है कि दुर्गंध आने लगी है। प्रजातंत्रा का आशय यही था कि हर आदमी को सत्ता में समान हिस्सेदारी मिले और कमजोर को भी सबल के समान सबल बनाया जाय। पर ऐसा हुआ नहीं। यदि प्रजातंत्रा को ही सही अथोर्ं में भारत में लागू कर दिया जाय तो साम्प्रदायिकता के उन्मूलन में बहुत कुछ सहयोग मिल सकता है।
भारत में जब भी साम्प्रदायिकता की बात चलती है तो उसका आशय हिन्दू मुस्लिम सम्बंधों से ही लिया जाता है। यदि साम्प्रदायिक समस्या के समाधान की बात कही जाती है तो हिन्दू मुस्लिम विरोध को समाप्त करने का ही अर्थ माना जाता है। भारत में सम्प्रदाय का संदर्भ हिन्दू मुस्लिम ही है। यदि हिन्दू मुस्लिम किसी सहयोगात्मक प्रयास से भेद मिटाने में सफल हो जाते हैं तो भारत साम्प्रदायिकता से मुक्त देश कहलाया जा सकता है। जातिगत भेद रहेगा सवर्ण और अवर्ण का भेद रहेगा। पर साम्प्रदायिकता का उन्मूलन माना जा सकता है। क्योंकि अब तक की साम्प्रदायिकता का भारतीय परिवेश में धर्म ही आधार माना जाता रहा है।
हिन्दू मुस्लिम समस्या का समाधान अब तक नहीं हुआ यद्यपि अंग्रेजों से स्वतंत्रा हुए भारत ने 44 साल बिता दिये। इसके कुछ राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक कारण रहे हैं किन्तु धर्म ही साम्प्रदायिकता के मूल में आता है।
साम्प्रदायिकता के हल के लिए हम हिन्दू मुस्लिम दोनों धर्मों के दृष्टिकोण को समझ कर ही यदि इसके उन्मूलन का कोई निदान खोजें तो सफलता के निकट शीघ्र पहुंच सकते हैं।
यदि इस्लाम के धार्मिक दृष्टिकोण को समझा जाय तो हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि स्वार्थ और सत्ता के लालच के कारण ही इस्लाम और मुसलमान समुदाय की हिन्दुओं द्वारा आलोचना की गयी है। इस्लाम को असहिष्णु तथा मुसलमानों को आक्रामक बताया है किन्तु यह हिन्दू कथन नितांत गलत एवं भ्रामक है। हिन्दू और हिन्दू धर्म की तुलना में इस्लाम और मुसलमान अधिक सहिष्णु है। यहां दोनों धमोर्ं और समुदायों की तुलना का विषय नहीं है अन्यथा यह सिद्ध करने में एक अलग से पूरा ग्रंथ ही बन जायगा। इस तुलना को छोड़ कर हम यह सिद्ध कर रहे हैं कि यह मात्रा हिन्दुओं का पूर्वाग्रह है और पूर्ण राजनैतिक सत्तासीन होने का फरेब है। हम इस्लाम के कुछ सिद्धांतों का जिक्र करते हैं। इससे यह समझने में समर्थ हो सकेंगे कि यह धर्म सहिष्णु है या असहिष्णु है। इस्लाम के बारे में कहा जाता है कि यह धर्म यह कहता है कि जो इस्लाम का बंदा नहीं वह काफिर है अर्थात्‌ वह एकत्ववाद का हामी है और अनेकत्व को नकारता है। परंतु ऐसा नहीं है। सबके लिए कुरान कहता है, देखियेᄉ ''यदि अल्लाह की मर्जी होती तो तुम सबको एक ही जन समुदाय बनाता परंतु वह उसी में तुम्हारी परीक्षा ले सकता है जो तुम्हें उसने दिया है।'' (कुरान- 5:48) इससे स्पष्ट होता है कि वह दूसरों को भी समान मान्यता देता है।
आगे कुरान कहता हैᄉ ''हमने हर जाति समूह के लिए धर्माचरण के नियम निश्चित कर दिये हैं जिसका वे पालन करते हैं इसमें ऐसा कुछ नहीं किया जिस बात को लेकर वे तुझसे झगडं+े।'' (कुरान-22-67) आगे कुरान और स्पष्ट करते हुए हर धर्म के प्रति आदर भाव रखने की स्पष्ट घोषणा करता हैᄉ ''हर समुदाय के लिए हमने कुछ धार्मिक किया कर्म तय कर दिये हैं जिनका पालन करते हुए वे परवर दिगार का नाम पढ़ सकते हैं।'' (कुरान 22:34)। कुरान इस्लाम को स्पष्ट करते हुए कहता है कि यह धर्म बाध्यता का समर्थन नहीं करता है अर्थात्‌ किसी को बाध्य नहीं करता कि वह इस्लाम का बंदा बन जाये (कुरान-2:256)। इस्लाम के बारे में प्रचार किया जाता है कि वह दूसरे धर्मस्थलों को खसाने की सलाह देता है। कुरान कहता हैᄉ ''यदि अल्लाह ने कुछ लोगों को दूसरों के द्वारा नहीं रोका होता तो मंदिर और गिरजाघर जिनमें अल्लाह का ही नाम लिया जाता है नष्ट कर दिये गये होते।'' (कुरान-22:40)। यह उदाहरण स्पष्ट करता है कि कुरान मंदिर और गिरजाघर सबको आदर देता है। इसलिए मंदिरों को मुसलमानों द्वारा ढहाने की इजाजत नहीं देता है। इस्लाम के बारे में प्रचार किया जाता है कि वह यह शिक्षा देता है कि जो इस्लाम का बंदा नहीं उसको कत्ल कर दो, किन्तु यह भी झूठ है। कुरान कहता है किसी पर ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है जो चाहे वैसा धर्म अपनाये। कुरान कहता हैᄉ ''हर कौम के लिए एक मसीहा है न्याय उसी के द्वारा निपटाया जाता है।'' (कुरान-10-47)। कुरान हर धर्म पैगम्बर अवतार को बराबर मानता है।
इस प्रकार कुरान की शिक्षाएं किसी धर्म या किसी धर्म के अवतार के विरुद्ध नहीं हैं।
हिन्दू कहते हैं कि मुसलमान उन्हें काफिर कहते हैं। एक किस्सा आता है कि हजरत मौहम्मद ने बहरीन और ओमान के लोगों से संधि की थी और उन्हें स्वीकार किया था। इस प्रकार हजरत मौहम्मद साहब जब दूसरों से मिलने की बात करते हैं तो हिन्दुओं के साथ क्यों नहीं मिल सकते थे।
यह तो रही कुरान और हजरत साहब की बातें अब यहां कुछ इस्लाम के विद्वानों के विचार भी देखिएᄉ इतिहासकार अलजहीज कहता है कि ÷भारत एक बहुत तरक्की वाला देश है' अब्दुल करीम शहरस्तानी कहता है कि भारतवासी एक महान समुदाय है। अलम सूदी ने तो ब्राह्मणों तक की तारीफ की है। इस प्रकार मुसलमान विद्वानों ने भारत के हिन्दुओं की आलोचना नहीं तारीफ की है। तीसरे खलीफा उथमान ने तो असभ्य और क्रूर अफ्रीकन तक को अच्छा बताया है फिर हिन्दुओं को कैसे बुरा बताया होगा। मौहम्मद इब्न कासिम को उलेमाओं ने सलाह दी थी कि हिन्दुओं को काफिर न कहा जाय। संत निजामुद्दीन औलिया ने कहा थाᄉ ÷हर कौम का (हिन्दू का भी) अपना एक धर्म है'ᄉ महाराष्ट्र के सूफी संत ने मराठी और संस्कृत में अपना ÷योग संग्रह' लिखा। गुजरात के कुछ सूफियों ने तो हजरत को ही कृष्ण का अवतार लिख दिया।
इस प्रकार इस्लाम धर्म का कुरान, हजरत पैगम्बर मौहम्मद साहब और उलेमा के हिन्दू धर्म और हिन्दुओं से नफरत न करने की ही सलाह देते हैं फिर उन पर हिन्दुओं के विरोधी होने का आरोप सही नही हैं।
दूसरी ओर हिन्दू धर्म की पुस्तकें रामायण, वेद, शास्त्राों में मुसलमानों को यवन म्लेच्छ कह कर गालियां दी गयी हैं। वेदों में कहा गयाᄉ ''हम जिनसे घृणा करते हैं या जो हमसे घृणा करते हैं उन्हें ऐ दसों दिशाओं के देवताओं उन्हें तुम अपने जबड़ों में रख कर खा जाओ।'' तुलसी की रामायण कहती हैᄉ ÷आमीर यवन किरात खस स्वंपचादि अतिअघ उ+पजे' अर्थात यवन अत्यंत नीच पैदाइश है।
इस प्रकार हम यदि यथार्थ कहना चाहें तो तथ्य यही है कि इस्लाम, उसके पैगम्बर उलेमा और महान फकीर और लेखक अधिक सहिष्णु हैं तुलना में हिन्दू धर्मशास्त्रा और हिन्दुओं के नेताओं और धर्माचायोर्ं के। अतः मुसलमानों को असहिष्णु कह कर उनकी आलोचना करना हिन्दुओं में एक फैशन बन गया है जो वैमनस्य बढ़ाने के लिए बहुत अंश तक जिम्मेदार है।
जो दृष्टिकोण हिन्दू धर्मग्रंथ, हिन्दू देवता, संत, मुनी इस्लाम के प्रति विद्वेष भरा रखते हैं वही झगड़े की जड़ हैं। हिन्दू राजनीतिज्ञ तो और भी इस साम्प्रदायिकता को बढ़ाने के लिए जिम्मेदार है। इंदिरा गांधी का ही उदाहरण हमारे सामने है। हिन्दू कट्टरवादिता का बढ़ता जोर देख कर कि कहीं इसका लाभ भाजपा न उठाने पाये उन्होंने अपने को कट्टर हिन्दू दिखाने और उसका राजनैतिक लाभ उठाने के लिए आपरेशन ब्लू स्टार जैसी योजना बना दी। उन्होंने भाजपा के हिन्दू राष्ट्रवाद से घबरा कर राजनैतिक लाभ उठाने के लिए सिक्खों पर हमला करवा कर साम्प्रदायिकता का नंगा नाच किया और 5 हजार सिक्ख को गुरुद्वारे के अंदर ही मारे गये। जो इंदिरा गांधी ने किया राजीव गांधी ने उसी साम्प्रदायिकता की भावना से सारे भारत में हिन्दू सिक्ख दंगे करा दिये और 10 हजार सिक्ख सारे भारत में मारे गये। जो समस्या सिक्खों की है वही समस्या भारत में मुसलमानों की है। इस प्रकार यदि हम निष्पक्ष विश्लेषण करें तो हिन्दू से मुसलमान कहीं अधिक सहिष्णु है और कम साम्प्रदायिक है। ये तो हिन्दू ही हैं जो धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर देश में दंगा भड़का कर आग लगाने की साजिश करते रहते हैं।
हिन्दू एक अनर्गल आरोप मुसलमानों पर यह भी लगाते हैं कि वे राष्ट्र की मुख्य धारा के अंग नहीं बने हैं। हिन्दू चाहते हैं कि मुसलमान हिन्दू की हर धारा को मान लें और अपनी शरियत कुरान सब छोड़ कर हिन्दू के नागरिक कानून को स्वीकार लें तभी वे राष्ट्र धारा से जुड़े माने जायेंगे। हिन्दू मुसलमानों को केवल इसलिए साम्प्रदायिक, राष्ट्रविरोधी और अनेक घृणाजनक अपमानों से सम्बोधित करता है क्योंकि वह यह चाहता है कि मुसलमान अपना ईमान बदल कर हिन्दू पंथ स्वीकार कर लें। आज वहीं ज्यादा साम्प्रदायिकता दिखाई देती है जहां हिन्दू बहुसंख्यक हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात जो हिन्दू बाहुल्य प्रांत हैं वही हिन्दू मुस्लिम दंगे अधिक होते हैं। तामिलनाडु, केरल, असम जैसे इलाकों में हिन्दू मुस्लिम तनाव नहीं के बराबर हैं क्योंकि यहां मुसलमान अधिक और हिन्दू बहुत कम हैं। इन इलाकों में मुसलमान और ईसाई द्रविड़ आदिवासी अधिक रहते हैं।
यदि हिन्दू सहिष्णुता से काम लेना प्रारम्भ कर दें तो हिन्दू मुसलमान साम्प्रदायिकता की समस्या हल हो सकती है। हमारे नेताओं ने इसीलिए धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्रा का मार्ग चुना था ताकि साम्प्रदायिक शक्तियों का जोर कम रहे पर दुर्भाग्य से हिन्दू कट्टरपन ने धर्मनिरपेक्षता को सदैव कमजोर किया है और जो हिन्दू शासक रहे हैं वे हिन्दू मुस्लिम भावना से ग्रसित हैं।
अयोध्या समस्या
अयोध्या विवाद के तीन पक्ष हैं। हिन्दू पक्ष की मान्यता है कि (1) अयोध्या में राम का जन्म हुआ (2) जहां राम का जन्म हुआ था मस्जिद बना दी गयी (3) यह मस्जिद बाबर ने मंदिर तोड़ कर बनवायी थी। मुसलमान पक्ष का कहना है कि (1) जहां मस्जिद है वहां कोई मंदिर नहीं था। (2) बाबर ने मंदिर तोड़ कर मस्जिद नहीं बनवायी है। एक तीसरा पक्ष हैᄉ बौद्ध। बौद्धों का कहना है कि वहां पर वैष्णव मंदिर नहीं था बल्कि बौद्ध मठ था और खुदाई से यह बौद्ध मठ ही प्रमाणित होता है। राम के नाम का कोई व्यक्ति पैदा ही नहीं हुआ। आज यह साम्प्रदायिक समस्या विकराल रूप धारण कर गयी है। इस पर हम यहां संक्षेप में विचार करते हैं।
विश्व हिन्दू परिषद का कहना है कि हिन्दुओं का यह विश्वास है कि अयोध्या राम जन्मभूमि है किन्तु यह बात संदेह उत्पन्न करती है क्योंकि हिन्दू धर्म के किसी प्राचीन ग्रंथ में इसका कोई ऐसा वर्णन नहीं मिलता है जिसे साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सके। हिन्दुओं के किसी भी धर्मग्रंथ में ऐसा नहीं लिखा गया है कि अयोध्या में अमुक स्थान पर राम का जन्म हुआ था, वहां जाकर आराधना करनी चाहिए। कामिल बुल्के ने अपनी राम कथा में वाल्मीकि रामायण, गोविन्द रामायण, बलराम रामायण, भुषुंडी रामायण, भवभूति का रामचरित, बौद्ध रामायण (दशरथ जातक), रामचरित्‌ मानस, जैन रामायण, भावार्थ रामायण, तिब्बती रामायण, कश्मीरी रामायण, आनंद रामायण, कम्ब रामायण, अग्निवेश रामायण, अध्यात्म रामायण 16-17 किस्म की रामायणों में राम कथाओं का वर्णन किया है किन्तु किसी में भी राम के जन्मस्थल का वर्णन नहीं है। विश्व हिन्दू परिषद अयोध्या में राम जन्मभूमि का साक्ष्य प्रस्तुत करती है, उसका उल्लेख हम पहले करते हैंᄉ
पहला साक्ष्य- विश्व हिन्दू परिषद केवल एक ग्रंथ ऐसा पेश कर पायी है और वह भी है एक पुराण। स्कंद पुराण में राम के जन्मस्थान का वर्णन है जिसमें अयोध्या का महात्म्य दर्शाया गया है और उसके दर्शन का महत्व समझाया गया है। पुराणों के बारे में यह कौन नहीं जानता है कि ये आल्हा खंड से भी अधिक गपोड़ों के संग्रह हैं और इन पुराणों की रचना का समय सबसे बाद का है। इनकी रचना में उ+लजलूल आख्यानों की भरमार है और इनका इसीलिए कोई लेखक भी नहीं दिखाया गया है। यदि हम स्कंद पुराण को ही लें तो यह पुराण 16वीं सदी के बाद का ही लिखा गया प्रमाणित होता है। इस पुराण में विद्यापति का उल्लेख है जिसकी मृत्यु 16वीं सदी में हुई थी। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि स्कंद पुराण का यह ÷अयोध्या महात्म्य' अनुभाग मात्रा क्षेपक है और बाद को जोड़ा गया है। यदि इस पुराण के कथन को मान भी लिया जाय तब भी तो जहां बाबरी मस्जिद बनी हुई है उस स्थान पर राम का जन्म होना प्रमाणित नहीं होता है। महात्म्य के वृंदावन वाले और वोडलेमन पुस्तकालय वाले संस्करण के अनुसार राम के जन्मस्थान की दिक्‌सूचक दिशा और दूरियां उल्लिखित हैं। छंद 21 से 24 तक के वर्णन में जन्म स्थल लौमश के पच्छिम की ओर 1009 धनुष (1835 मीटर) की दूरी पर स्थित है। हिन्दू मान्यता के अनुसार लोमस की जगह ऋणमोचन घाटवाली जगह है। इस मान्यता के आधार पर राम जन्मभूमि सरयू नदी की तलहटी में ब्रह्मकुंड के पास बैठती है। दूसरा कथन है कि जन्मस्थान विनेश के उत्तर पूर्व में स्थित है। यह विनेश का स्थल ऋणमोचन से दक्षिण पश्चिम को है। यह स्थान भी वह नहीं बैठता जहां बाबरी मस्जिद बनी है।
अयोध्या महात्म्य में जन्मस्थान से कहीं अधिक स्वर्ग द्वार का विशेष महत्व है। स्कंद पुराण में स्वर्ग नर्क का वर्णन है और उल्लेख है कि यहां से राम स्वर्ग गये थे। इस स्थल पर वासुदेव की पूजा का वर्णन है। किसी मंदिर के चिह्न होने का वर्णन यहां भी नहीं है। सारे विवरण से स्पष्ट होता है कि 11वीं सदी से 18वीं सदी तक ऐसा कोई प्रमाणित ग्रंथ का साक्ष्य नहीं है जो राम के जन्म को अयोध्या में अमुक स्थान पर प्रमाणित करता हो। राम जन्म का स्थान 18वीं सदी के बाद जोड़ा गया। इस आधार पर यह कहना भी झूठ प्रमाणित हो जाता है कि अयोध्या में राम जन्मभूमि से हिन्दू आस्था जुड़ी हुई है।
दूसरा साक्ष्यᄉ विश्व हिन्दू परिषद अपना पक्ष प्रस्तुत करते समय दूसरा साक्ष्य यह प्रस्तुत करती है कि बाबरी मस्जिद में 14 काले पत्थरों के जो स्तम्भ लगे हैं वे गैर इस्लामी हैं। यह साक्ष्य (पॉजिटिव न होकर निगेटिव हैं) सकारात्मक न होकर नकारात्मक है अर्थात मस्जिद नहीं हो सकती है इसलिए मंदिर है। मंदिर है यह सीधा साक्ष्य नहीं है। इस नकारात्मक साक्ष्य का अर्थ यह भी हो सकता है कि यदि मस्जिद न हो तो मंदिर भी न हो और बौद्ध मठ हो।
जहां तक काले पत्थरों का प्रश्न है यह प्रमाणित करना होगा कि काले पत्थर मस्जिद में नहीं लगते ? दूसरे यह कि क्या ये मस्जिद निर्माण के समय के ही हैं या बाद को सजावट के लिए बाहर से लाकर लगवाये गये हैं। इसका निर्णय करने में एक महत्वपूर्ण तथ्य बहुुत सहायक होगा कि इस मस्जिद के करीब डेढ़ मील दूरी पर एक कब्रगाह है। अब कब्रगाह में भी दो काले पत्थर वाले खम्भे लगे हैं। एक दूसरा तथ्य कि बिहार में अनेक ऐसी मस्जिदें हैं जिनमें चौखटे काले वैसाल्ट पत्थर के बने हैं। ये पत्थर पाल राजाओं के काल में बनी मस्जिदों में लगाये गये हैं। पटना के गूजरी मौहल्ले में बनी 17वीं सदी की मस्जिद इसका उदाहरण है। इसमें काले पत्थर के खम्भे लगे हैं। इससे दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। 1. पहला यह कि मस्जिद में काले पत्थर का लगाना कोई इस्लाम के विरुद्ध नहीं है। 2. दूसरे यह कि ये काले पत्थर जिस लम्बाई में लगे हैं वह छत तक न होकर 5 फिट के बराबर ही हैं जो मस्जिद के अलंकरण के लिए लगाये गये हों। चूंकि काले पत्थर अयोध्या के पास नहीं मिलते तो पटना के पास भी तो नहीं मिलते हैं। जब बाहर से लाकर ये पटना की मस्जिदों में लगाये जा सकते हैं तो अयोध्या में बाहर से लाकर क्यों नहीं लगाये जा सकते हैं। हो सकता है कि मंदिर के अलंकरण हेतु ये काले पत्थर बाहर से लाकर बाद को मस्जिद में स्तम्भ के रूप में प्रयुक्त किये गये हों।
इन खम्भों के साक्ष्य में एक बात और ध्यान देने की है। विश्व हिन्दू परिषद का कहना है कि इन खम्भों पर जो वनमाला का चित्रा अंकित है वह वैष्णव चिह्न है इसलिए ये खम्भे मंदिर के हैं किन्तु इसमें सच्चाई नहीं है। वैष्णव पंथ के विष्णु के शंख, चक्र, गदा और पदम चार प्रतीक हैं किन्तु इन चार में एक भी चिह्न इन खम्भों पर अंकित नहीं है। वनमाला तो हर हिन्दू पंथ प्रयोग करता है और हिन्दू के अतिरिक्त दूसरे सम्प्रदाय भी। इस प्रकार काले खम्भों से हिन्दू मंदिर होना प्रमाणित होता हो ऐसा कुछ नहीं है। खम्भों की जो लम्बाई है कि तल से 5 फुट के करीब उ+ंचे हैं ये छत तक नहीं हैं तो ये दीवार के साथ के नहीं हो सकते हैं। बाद को अलंकरण हेतु बाहर से लाकर लगाये गये प्रमाणित होते हैं।
एक प्रोफेसर वी. वी. लाल को बाबरी मस्जिद के दक्षिण में कुछ ईंट वाले आधार मिले हैं जिनसे मंदिर होने की कल्पना की जा सकती है किन्तु यह शोधपत्रा 11 वर्ष बाद 1990 में प्रकाशित किया गया। इसमें इन ईटों के आधार वाले निर्माण का काल उत्तर मध्य काल बताया गया है जिसका अर्थ होता है 17वीं, 18वीं शताब्दी। यदि मान लिया जाय कि 17वीं, 18वीं शताब्दी में मस्जिद के दक्षिण में कोई मंदिर भी था तो 16वीं सदी में बनी मस्जिद को मंदिर तोड़ कर बनाया गया था कैसे सिद्ध होता है।
इस प्रकार स्तम्भ और ईंट वाले आधार के सहारे यह सिद्ध नहीं होता कि बाबरी मस्जिद के निर्माण से पूर्व यहां किसी प्रकार के मंदिर का अस्तित्व था।
खुदाई से मस्जिद की उ+पर की खाइयां और मस्जिद के तल के ठीक नीचे कलईदार बर्तन मिले हैं। इससे भी यह निष्कर्ष निकलता है कि मस्जिद स्वतंत्रा जगह पर बनी थी। हिन्दू मंदिर में कलई के बर्तन मिलने का प्रश्न ही नहीं उठता। कलई मुसलमानों की निजी देन है। इससे एक बात सिद्ध होती है कि ये बर्तन जो 13-14वीं सदी के मिले हैं यहां 13-14वीं सदी में मुसलमान बस्ती का होना पाया जाता है और बाबर ने भी वहीं मस्जिद बनवायी थी जहां मुसलमान रहते होंगे, हिन्दू नहीं। खुदाई में कोई हिन्दू पात्रा नहीं निकला है। ये कलई के बर्तन मुसलमानों की बस्ती होने का संकेत देते हैं और मुसलमानों के लिए मस्जिद भी नमाज पढ़ने के लिए बनायी गयी होगी।
इस प्रकार खम्भों, ईंटों, बर्तनों के आधार पर यह सिद्ध होता कि मस्जिद मंदिर तोड़ कर बनायी गयी है। अतः यहां विश्व हिन्दू परिषद ने जो बातें कही हैं उनमें एक भी यह सिद्ध नहीं करती कि आज जहां बाबरी मस्जिद बनी हुई है वहीं कभी कोई मंदिर था।
मस्जिद के स्थान पर मंदिर होने की कल्पना विदेशी लोगों ने फैलायी है। सबसे पहले 1788 में एक बर्लिन के पादरी ने अपनी पुस्तक में जिक्र किया था। उसने लिखा किᄉ ''औरंगजेब ने रामकोट किला ध्वस्त किया था और उसकी जगह मस्जिद बनवायी थी। कुछ का कहना है कि यह बाबर ने बनवाया था उसने पांच पांच बालिस्त उं+चे 14 काले पत्थरों के खम्भे खड़े किये थे। इन काले पत्थरों का मलवा हनुमान जी द्वारा लंका से लाया गया था। यहां एक चौकी का भी उल्लेख है जिसे राम की जन्मस्थली बताते हैं। यह 525ग्4 क्षेत्राफल में है।''
जब तक उक्त पुस्तक नहीं लिखी गयी थी किसी को मस्जिद मंदिर तोड़ कर बनायी गयी होने की कल्पना भी नहीं थी। 1810 में फ्रेंसिस बुकनान ने अयोध्या की यात्राा की, उसने लिखा कि राजा विक्रम पवित्रा नगर की खोज में यहां आया था उसने ÷रामगढ'+ नामक किला बनवाया और 360 मंदिर बनावाये। बुकनान ने लिखा कि यहां यह विश्वास है कि बनारस, मथुरा की भांति अयोध्या के मंदिर भी औरंगजेब ने तुड़वाये किन्तु ऐसा लगता है कि औरंगजेब की पांच पीढ़ी पहले बाबर ने इस मस्जिद को बनवाया था इससे विक्रम का मंदिरों को बनवाने की कहानी झूठ हो जाती है।
इन विदेशी लेखकों के एक दूसरे के विरोधी और स्वयं के द्वंद्वात्मक कथन सिवाय भ्रांति पैदा करने के कोई निष्कर्ष निकाल कर नहीं देते हैं। कभी कहना हनुमान जी पत्थर लाये थे, कभी कहना कि विक्रम ने मंदिर बनाये थ,े कभी औरंगजेब ने मंदिर तुड़वाया, तो कभी बाबर ने तुड़वाया, ऐसे कथन हैं जिनका स्वयं में कोई अर्थ नहीं निकलता है और सब संदेह पैदा करते हैं। बुकनान ने तो इन पत्थरों के खम्भों से निष्कर्ष निकाला था कि ये किसी मंदिर के न होकर किसी इमारत से लिए गये हैं। इस कथन से तो विश्व हिन्दू परिषद की खम्भों की सारी कहानी चौपट हो जाती है।
विश्व हिन्दू परिषद अपने साहित्य और किसी धर्मग्रंथ से यह सिद्ध नहीं कर सकी है अयोध्या में बाबरी मस्जिद, मंदिर तोड़ कर बनायी गयी हो। परिषद यह कह सकती है कि हमारे धर्मग्रंथ पहले के लिखे गये हैं और बाबर से पहले लिखे गये हैं उनमें बाबरी मस्जिद का वर्णन हो ही नहीं सकता है। यदि यहां कोई राम का मंदिर होता तो उसका वर्णन तो होता जिससे यह सिद्ध किया जा सके कि अयोध्या में राम जन्मस्थल पर कोई मंदिर था। जब शास्त्रा, पुराण, धर्म सूत्रा और स्मृति ग्रंथ में ऐसा कोई वर्णन नहीं है जिससे यह सिद्ध होता है कि राम की जन्मस्थली पर कोई मंदिर बनाया गया था और मंदिर होने का भी कोई वर्णन नहीं है तो किसने बनवाया, कब बनवाया, कैसे बनवाया और क्यों बनवाया, सोचना ही व्यर्थ है।
बाबर की तीसरी पीढ़ी में अकबर आता है। अकबर के जमाने में तुलसी पैदा होते हैं। वे राम के अनन्य भक्त बनते हैं और रामचरित मानस की रचना अवधी भाषा में करते हैं। यदि तुलसी के आराध्य राम की जन्मस्थली ध्वस्त करके मस्जिद बनायी गयी होती तो क्या तुलसी चुुप रहते। तुलसीदास ने अयोध्या को पूज्य स्थली ही नहीं माना है। उन्होंने प्रयाग को पूज्य माना है अयोध्या को नहीं। तुलसी 17वीं सदी में पैदा हुए थे तब ऐसी कहीं कोई चर्चा नहीं थी जहां बाबरी मस्जिद है वहां पहले कभी कोई राम मंदिर था। आइने अकबरी में अयोध्या का वर्णन है किन्तु अबुल फजल ने भी राम जन्मभूमि पर बने मंदिर को खसा कर मस्जिद बनवायी, का कोई वर्णन नहीं किया है। बाबर के डेढ़ सौ दो सौ साल बाद ही अकबर का काल आ जाता है और अकबर के काल में ही तुलसी और अबुल फजल काव्य रचना करते हैं तो हिन्दू और मुसलमान एक भी रचनाकार द्वारा राम के मंदिर को ढहा कर बाबरी मस्जिद बनवायी गयी का वर्णन नहीं है। इससे यही सिद्ध होता है कि बाबर ने मंदिर तुड़वा कर मस्जिद नहीं बनवायी थी।
17वीं सदी के प्रथम दशक में एक विलियम फ्लिंच ने अयोध्या में रह कर एक शोध लिखा था। उसने लिखा है कि यहां लोग राम का राज्य बताते हैं, उसे देवता मानते हैं। हिन्दू राम को अवतार मानते हैं। चार पांच लाख वर्ष पुरानी नहीं है। इसके किनारे ब्राह्मण रहते हैं जो रोज इसमें प्रातः नहाते हैं। यहां एक गहरी गुफा है। यह माना जाता है कि इस गुफा में राम की अस्थियां गड़ी हैं। बाहर से लोग यहां आते हैं और काले चावल यहां से ले जाते हैं। यहां से काफी सोना निकाला गया है। इस पुस्तक के वर्णन से राम के मरने का वर्णन मिलता है। जैसे स्कंद पुराण में स्वर्ग द्वार का वर्णन, जहां से राम स्वर्ग सिधारे परंतु इस ग्रंथ से भी राम यहां जन्मे थे उल्लेख नहीं मिलता है। इस ग्रंथ में भी तुलसी के मानस की भांति मंदिर का ध्वंस्त कर मस्जिद बनाने का कोई उल्लेख नहीं है। एक हिन्दू सुजान राय भंडारी नामक व्यक्ति के ग्रंथ ÷खुलासात ए तवारीख' में मथुरा और अयोध्या का जिक्र है। यह पुस्तक 1695-96 की मानी जाती है पर इसमें भी ऐसा कहीं वर्णन नहीं मिलता कि राम जन्मभूमि पर बने मंदिर को खसा कर बाबर ने कोई मस्जिद बनवायी। यह लेखक यहां एडम के बेटे शीश और पैगम्बर अयूब के मकबरों का वर्णन करता है पर राम के मंदिर का कोई जिक्र नहीं करता है।
एक और हिन्दू लेखक राय चर्तुन ने अपनी पुस्तक में राम का वर्णन तो किया है पर राम के मंदिर का वर्णन नहीं किया है। यह पुस्तक 1759-60 में लिखी गयी है।
इस प्रकार बाबर के समय बनी मस्जिद के निर्माण के दो सौ वर्ष बाद तक भारत के तुलसी, अवुल फजल तथा विदेशी फ्लिंच जैसे कलमकारों ने अयोध्या में राम के मंदिर का उल्लेख तक नहीं किया है। इससे यह स्पष्ट होता है विश्व हिन्दू परिषद के पास ऐसा कोई लिखित साक्ष्य नहीं है जो बाबरी मस्जिद के स्थान पर पहले मंदिर प्रमाणित कर सके। इसने जो पुरातात्विक साक्ष्य प्रस्तुत किये हैं वे बहुत लचर और संदिग्ध हैं।
अभिलिखित साक्ष्य एक और उपलब्ध है। मस्जिद निर्माण के बाद मस्जिद पर फारसी में खोदे गये अभिलेख हैं जिनका वर्णन बाबरनामा में मिलता है। ए. एस. वेविरिज द्वारा बाबर नामा का जो अनुवाद किया गया है उस बाबरनामा में शासक मीर बाकी का उल्लेख है। बाबरनामा में बाबरी मस्जिद और उस पर खुदे अभिलेखों का वर्णन है पर कहीं पर ऐसा नहीं प्रतीत होता कि कहीं भी मंदिर खसाकर मस्जिद बनवायी गयी हो। इस प्रकार खुदाई से प्राप्त साक्ष्य में मस्जिद में बने खम्भों के पुरातत्वीय साक्ष्य और अभिलेखों के साक्ष्य किसी से यह प्रमाणित नहीं होता है कि मंदिर खसा कर मस्जिद बनायी गयी थी। जो भी साक्ष्य अब तक प्राप्त हुआ है उससे निम्न निष्कर्ष निकलते हैं।
1. ग्रंथों के आधार पर ऐसा प्रमाणित होता है कि 18वीं सदी से पूर्व अयोध्या में राम जन्मभूमि के रूप में कोई स्थल पूज्यनीय नहीं था।
2. पुरातत्व और मस्जिद पर खुदे अभिलेखों के आधार पर यह कहीं सिद्ध नहीं होता कि बाबरी मस्जिद के स्थान पर मंदिर था और मंदिर ध्वस्त कर मस्जिद बनायी गयी।
3. सम्पूर्ण साहित्य के आधार पर यह सिद्ध होता है कि 19वीं सदी के आरम्भ तक राम मंदिर का कोई दावा नहीं था। यह चर्चा 1850 के दशक में प्रारम्भ हुई जब सीता रसोई को ध्वस्त करने की मात्रा बात उठी थी।
उ+पर के सारे विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद राम मंदिर को ध्वस्त कर बनायी गयी है, का बवेला व्यर्थ का ढकोसला है और मुसलमानों के विरुद्ध एक सोची समझी साजिश है। सोलहवीं सदी से लेकर उन्नीसवीं सदी तक तीन सौ चार सौ वर्षों तक जिसका मस्जिद बनने के बाद में कोई प्रमाण न मिलता हो ऐसा कोई बिन्दु खडा+ कर देना सोची समझी साजिश ही है और कुछ नहीं। आज मुसलमानों के विरुद्ध उनको नष्ट करने, उनका ईमान भ्रष्ट करने की साजिशें चली जा रही हैं वरना यह कौन बर्दाश्त कर लेगा कि जो मस्जिद सोलहवीं सदी में बनी हो उसे ध्वस्त करने का खिलवाड़ किया जाय। इस खिलवाड़ का परिणाम अत्यंत भयंकर होगा। भारतवासियों ने महाभारत की मात्रा कल्पना ही की है यदि मस्जिद खसायी गयी तो हो सकता है कि महाभारत एक बार पुनः भारत भूमि में देखने को मिल जाय।
इसलिए मेरा मानना है कि जिन्हें देश से प्यार है, जिन्हें इंसानियत से प्यार है उन्हें मंदिर मस्जिद के झगडे+ को समाप्त करना चाहिए और जो कुछ पाखंडी, स्वार्थी और धूर्त यह बवंडर फैला रहे हैं स्वयं हिन्दू समाज के प्रबुद्ध लोगों को ऐसी साम्प्रदायिकता फैलाने के कारण गला दबा देना चाहिए और मंदिर मस्जिद के प्रकरण को समाप्त कर देना चाहिए।
जहां तक नयी खोजें आ रहीं हैं उनके आधार पर यह सिद्ध होने लगा है कि राम नाम का कोई व्यक्ति अयोध्या में पैदा ही नहीं हुआ है। बौद्ध शासक वृहद्रथ को मार कर जब ब्राह्मण पुष्यमित्रा शासक बन बैठा तो इस शुंग विजय की कहानी को राम के विजय की कहानी बना कर मढ़ दिया गया है और पुष्यमित्रा शुंग ने जब बौद्धों का 100-100 दीनार में एक एक बौद्ध का सिर कटवाया था तभी जो बौद्ध मठ अयोध्या में बना था उसे ध्वस्त किया गया था और जब बाबर आया तो उसी स्थान पर उसने मस्जिद बनवा दी। इस प्रकार अयोध्या राम की नगरी न होकर गौतम की नगरी है और हिन्दू तीर्थस्थल न होकर बौद्ध स्थल है।
अब जो भी हो वर्तमान स्थिति में बदलाव असम्भव है। इसलिए जहां मस्जिद है उसे हटाया जाना न तो सम्भव है न उचित है। अगर हिन्दू मंदिर बनवाना ही चाहते हैं तो वे अपनी निजी भूमि में बनवायें सरकारी भूमि में नहीं। यदि दस लाख पहले से ही बने मंदिरों में एक की और बढ़ोत्तरी हो जाएगी तो उससे कौन सा पहाड़ टूट जायेगा। अब राम लला हम आयेंगे मंदिर वहीं बनायेंगे, सम्भव नहीं है। 
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साभार: तद्भव दलित विशेषांक http://www.tadbhav.com/dalit_issue/sampradayikata.html#sampra

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