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Monday 14 March, 2011

‘चौराहे पर आ रहे हैं चमरौटी के लोग’

यहाँ प्रस्तुत है जे एन यू के दलित चिन्तक एवं प्राध्यापक विवेक कुमार का साक्षात्कार, जिसे http://dalitmat.com/index/21-front-news/211-2011-03-11-23-02-48.html से साभार लिया गया है |
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  साक्षात्कारकर्ता: अशोक   
Friday, 11 March 2011 22:29
डा. विवेक कुमारजेएनयू आने के पहले विवेक कुमार ने सोचा भी नहीं था कि वह दलित चिंतक के तौर पर जाने जाएंगे. मन में समाज के प्रति काम करने का जज्बा और इच्छा इतनी थी कि सरकारी अधिकारी की नौकरी भी रास न आई. सब छोड़-छाड़ कर दुबारा जेएनयू पहुंचे तो गुरु नंदू राम का साथ मिला. उन्होंने प्रेरित किया तो विवेक कुमार की कलम चलने लगी. बाबा साहेब के लेखन से साक्षात्कार होता गया और कलम की गति और ताकत बढ़ती गई
. तब से अबतक 20 साल हो गए, जब वो न सिर्फ अपने लेखन से दलित मुद्दों को उठा रहे हैं, बल्कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी दलित समाज की आवाज को बुलंद रखे हुए हैं. जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर डा. विवेक कुमार से दलितमत.कॉम ने विभिन्न विषयों पर बात की, पेश है उसके अंश...

आपका जन्म किस शहर में हुआ, पढ़ाई-लिखाई कहां से हुई ?
- जन्म लखनऊ में हुआ, शहर में. वहीं छोटे स्कूल में पढ़ाई शुरू की. शाहनगर रोड पर मिला-जिला स्कूल था. बहन वहीं जाती थी. पांच साल बाद पिताजी का ट्रांसफर बिजनौर के अफजलगढ़ में हो गया. तीन साल वहां टाट की पट्टियों पर बैठकर पढ़ाई की. सेठे का कलम, खड़िया वाली रोशनाई से पढ़ना शुरू किया. एक टीचर थी, निर्मला मिश्रा. वो बहुतडा. विवेक कुमार मारती थीं. क्यों मारती थी, पता नहीं. आस-पास के बच्चे भी जाति जानते थे, सो उसी तरह का व्यवहार हुआ. पिताजी ने देखा की बहुत ज्यादती हो रही है तो फिर लखनऊ भेज दिया. यहां बीए तक पढ़ा. फिर एमए में जेएनयू आ गए. एमफिल, पीएचडी की. एक साल तक टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस में पढ़ाया. बीच में सरकारी नौकरी कर ली. यूपी सरकार की प्रशासनिक सुधार में शोध अधिकारी था. नौकरी यूपीएससी से मिली थी. मन नहीं लगा तो नौकरी से रिजाइन करके फिर से जेएनयू आ गया.
रिजाइन करने की वजह क्या थी?
- क्योंकि जेएनयू से पीएचडी था और मन बड़ा व्यथित रहता था. सरकारी नौकरी में माहौल बड़ा अजीब था. ज्ञान की कोई खपत नहीं थी. काम के नाम पर केवल फाइल आगे बढ़ानी थी. तब नौकरी मजबूरी थी, क्योंकि पिताजी रिटायर होने के बाद डिप्रेशन में थे. मैं बड़ा लड़का था तो जिम्मेदारी निभाने के लिए नौकरी करनी पड़ी. लेकिन एक ललक थी कि पीएचडी जरूर करूंगा.
दलित चिंतन की ओर कब रुख किया?
- इसमें जेएनयू ने बहुत बड़ा रोल प्ले किया. जब यहां पहुंचे तो पता चला कि किसी दिशा में नहीं सोच पा रहे हैं. दलितों के प्रति रुझान बहुत था लेकिन एक दलित चिंतक के तौर पर सोचूंगा, इसका पता नहीं था. लेकिन जेएनयू आने के बाद यहां का जो माहौल मिला, उसमें सरोकार नजर आने लगे. तब मंडल कमिशन के कारण रेखाएं साफ खिंच गई थी कि कौन किस पाले में है. हमलोगों को कोई संरक्षण नहीं था. तब एमए में था. उसी दौरान बाबा साहेब के लेखन से साक्षात्कार हुआ. उनके वाल्यूम आने लगे थे. गौतम बुक स्टॉल वाले तब अपने कंधे पर किताब पहुंचाने आते थे. मैं उनकी इज्जत इसलिए करता हूं क्योंकि उन्होंने तब बाबा साहेब के साहित्य को लोगों तक पहुंचाया था. थोड़ा रुक कर जोड़ते हैं... (हालांकि आज बड़े धनाढ़्य हो गए हैं और सबको गलियाते हैं.) तो.. वहां से लेखन शुरू हुआ. फिर एमफिल करने के दौरान गुरु श्री नंदू राम जी के संपर्क में आने से पढ़ने-लिखने का माहौल बना. अखबारों में लेख लिखने लगा. लोगों से मिलना-जुलना, बातें करनी शुरू की. इस तरह से शुरुआत हुई.
आपने जब दलित मुद्दों पर लिखना-सोचना शुरू किया, तब से अब तक 20 साल हो गए हैं. यह सफर आज कहां तक पहुंचा है?
- देखिए, शुरुआत मैने एक छोटे से प्रश्न से की थी. मैने देखा था कि आंदोलन में लीडरशिप निर्णायक भूमिका अदा करता है. इसके लिए मैने दलित लीडरशिप का अध्ययन किया कि यह कैसे दलितों के उत्थान और पतन के लिए उत्तरदायी है. यहां देखा कि लीडरशिप में क्राइसेस (संकट) है. बाबा साहब को पढ़ने से लीडरशिप की क्राइसेस नजर आने लगी. बाबा साहब का वह कथन बार-बार उद्वेलित करता था कि ‘बड़ी मुश्किल से मैं कारवां यहां तक लाया हूं, मेरे अनुयायी अगर इसे आगे न ले जा पाएं तो उसे वहीं छोड़ दें, लेकिन किसी हालत में यह पीछे नहीं जाना चाहिए.’ तब मैने लीडरशिप की तीन क्राइसेस चिन्हित की. सबसे पहला अस्मिता का संकट था. दलित समाज की अस्मिता एकबद्ध नहीं हो पा रही थी. दूसरा संकट विचारधारा का था. बहुत भटकाव था. तीसरा संकट गठबंधन का था कि किस तरह गठबंधन करें. उसी वक्त देखा कि मान्यवर कांशीराम का उदय हो रहा होता है. तभी आशा की किरण दिखाई पड़ने लगी और लगा कि लीडरशिप अब सही हाथों में पहुंच गई है.
आज के लोकतंत्र में दलित कहां खड़ा है?
- अगर जनतंत्र यानि डिमोक्रेसी की बात करें तो मैं इसे उत्तर प्रदेश में लागू होते हुए देखता हूं. वहां पाता हूं कि यूपी में डिमोक्रेसी दलितों के लिए दोधारी तलवार है. एक तरफ जहां वह दलितो को अधिकार देती है, वहीं दूसरी ओर उनके आंदोलन में अवरोध भी खड़े करती है. जैसे बहुजन समाज पार्टी के आंदोलन में बार-बार अवरोध खड़ा किया गया. उसे तोड़ा गया, खरीदा-बेचा गया. पीएचडी करने के दौरान देखा था कि दलित आंदोलन के राजनैतिक पक्ष ने भारतीय जनतंत्र को मजबूत किया है. इतने बड़े विशालकाय समूह, जिसको अधिकारों से वंचित किया गया, उसके अपने आत्मनिर्भर दल बनें और यह भारतीय जनतंत्र में रच-बस गया. आज हम सिर्फ वोट बैंक की राजनीति में नहीं हैं, बल्कि हम अपने लीडर खुद बनने लगे हैं. हम स्वआत्मनिर्भर प्रतिनिधित्व की तरफ बढ़ चुके हैं. आज दलित आंदोलन केवल एकपक्षीय नहीं रह गया है. वह केवल राजनीति या फिर आरक्षण की बात नहीं कर रहा है. उसके सात आयाम दिखाई पड़ने लगे हैं. सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, साहित्य, कर्मचारियों का आंदोलन, दलितों के स्वयंसेवी संगठनों का आंदोलन, दलित महिलाओं का आंदोलन और सातवां अप्रवासी भारतीय आंदोलन. ये सात छटाएं दिखाई देने लगी है. दलित आंदोलन आगे बढ़ा है और यह परिपक्व और मजबूत हुआ है.
बीएसपी की राजनीति को आप बहुत पास से देखते रहे हैं. दलित हित में यह अन्य दूसरी पार्टियों से अलग कैसे हैं?
- दलित राजनीतिक आंदोलन को सीधे-सीधे दो फाड़ों में बांट कर देखा जा सकता है. एक है निर्भर दलित आंदोलन, और दूसरा है आत्म-निर्भर दलित आंदोलन. निर्भर आंदोलनडा. विवेक कुमार सवर्ण समाज द्वारा पल्लवति होता है और यह यहां दलित मुख्य पार्टियों के एससी, एसटी सेल में पाएं जाते हैं. जैसे ही सेल की बात आती है, यह साफ हो जाता है कि वह मुख्यधारा में नहीं हैं. उनकी भाषा, विचारधारा सब परतंत्र हो जाती है. वो अपने लिडरों के कहने पर चलते हैं. लिडर कहते हैं- बैठ जाओ तो बैठ जाते हैं, कहते हैं-खड़े हो जाओ, तो खड़े हो जाते हैं. वह निर्भर राजनैतिक दलित आंदोलन है. लेकिन इसके विपरीत एक आत्म निर्भर राजनैतिक आंदोलन है, जिसकी नींव बाबा साहेब ने इंडिपेंडेंटन लेबर पार्टी से डाली. बाद में शिड्यूल कॉस्ट फेडरेशन बनाया और आरपीआई की नींव डाली. इस आंदोलन की विशिष्ट प्रवृति है. इसके लीडर अपने स्वतंत्र एजेंटा और विचारधारा के साथ अपनी पार्टी बनाते हैं और उसमें अपनी भाषा, अपने नारे सब रखते हैं. इस रूप में आप देखेंगे कि स्वप्रतिनिधित्व गणतंत्र की जान होती है. ‘जिसका मुद्दा उसकी लड़ाई, जिसकी लड़ाई-उसकी अगुवाई’ यह जनतंत्र का मूलमंत्र होना चाहिए और यही बाबा साहब चाहते थे. इसका मतलब यह हुआ कि हम भी कानून बना सकते हैं. क्योंकि भारत वर्ष में समाज की चेतना का नितांत अभाव है और यहां के लोग जातीय चेतना से जीते हैं. इसलिए दलितों की चेतना, पिछड़ों की चेतना, अक्लियतों की चेतना स्वयं अपना प्रतिनिधित्व चाहती है.
कुछ लोगों का आरोप है कि बसपा पर सवर्णों का कब्जा हो गया है. सरकारी आंकड़ों का जिक्र करें तो कहा जा सकता है कि सबसे अधिक दलित उत्पीड़न यूपी में ही होता है. पिछले दिनों अलीगढ़ में एक इंजीनियर की हत्या हो गई. परिवार के लोग इसमें एक सवर्ण मंत्री का नाम ले रहे हैं, बावजूद इसके मंत्री के ऊपर कार्रवाई नहीं हो रही है. क्या इससे लोगों का विश्वास टूटता नहीं है?
- देखिए, नंबरों पर मत जाइये. यहां हमकों अत्याचारों की संख्या को दूसरे तरीके से समझना होगा. इस बारे में सूक्ष्मता से अध्यन करने की जरूरत है. उत्तर प्रदेश कि जनसंख्या 16 करोड़ की है. इसमें दो करोड़ दलित हैं. एक तो जनसंख्या ज्यादा, दूसरी इसमें दलित समाज की संख्या ज्यादा. इसलिए नंबरो के हिसाब से अत्याचारों की संख्या ज्यादा होगी ही. दूसरे राज्यों की बात करें तो वहां कि जनसंख्या इतनी अधिक नहीं है, जिससे उनकी संख्या बढ़ जाए. लेकिन 2010 के आंकड़ों को देखें तो अनुपात के आधार पर सबसे ज्यादा अत्याचार मध्यप्रदेश में हुए हैं. (लेकिन अलीगढ़ जैसी घटना, मैं उनकी बात बीच में काटते हुए पूछता हूं.) विवेक जी कहते हैं ‘ देर सबेर न्याय हुआ है. लोग पकड़े गए हैं. चाहे अंगद डा. विवेक कुमारयादव हों या फिर द्विवेदी सब पकड़े गए हैं. देर हो सकती है लेकिन अंधेर नहीं है.’ जब भी हम बहुजन समाज पार्टी के राज-काज को देखते हैं तो हमें एतिहासिकता भी देखनी चाहिए. भारतीय समाज ढ़ाई हजार वर्ष पुराना है, उसके अंदर जो विकृतियां हैं, वो ढ़ाई हजार वर्ष पुरानी है. लेकिन बसपा सरकार केवल छह वर्ष की है और वह भी अलग-अलग चार-पांच हिस्सों में. तो आप यह चाहते हैं कि जो ढ़ाई हजार वर्ष पुरानी एतिहासिकता है, जिसकी विकृतियां मानसिकता में भर गई हैं, वह पांच वर्ष की सरकार में पूरा हो जाएगा तो यह ज्यादती है. लेकिन हमको व्यक्ति की मंशा दिखेनी चाहिए कि क्या वह दिखाई दे रही है. अंबेडकर ग्राम से लेकर महामाया योजना तक जैसी बातें बताती हैं कि दलित उत्थान की प्रकृति हर योजना में समायोजित है. कोई यह नहीं कह सकता है कि सवर्णों के पक्ष में ज्यादा फैसले हो गए. जो भी फैसले हुए, चाहे वो कांशीराम गरीबी उन्मूलन हो, अंबेडकर ग्राम योजना हो या फिर महामाया योजना सबके सब गरीबों के पक्ष में जाते हैं.
आपने बीएसपी के पक्ष में तमाम बातें गिनाई, लेकिन यूपी छोड़कर बसपा अन्य राज्यों में सफल क्यों नहीं हो पाई. यहां तक कि विगत महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में बसपा कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाई.
- सबसे बड़ी बात है कि आंदोलनों की अपनी एक पृष्ठिभूमि होती है. इसमें अगर हम महाराष्ट्र का उदाहरण ले लें, तो हमें लगता है कि बाबा साहेब के आंदोलन से लोग इतने ज्यादा प्रभावित हैं कि वो अन्य नेताओं को जल्दी स्वीकार नहीं करेंगे. वहां के जो अपने लीडर हैं, लोग उनको भी स्वीकार नहीं करते. यही वजह है कि महाराष्ट्र में अलग-अलग जाति के लोग अलग-अलग जगहों से जाकर राजनीति करते हैं. बाबा साहेब के जो पौत्र हैं प्रकाश आंबेडकर, उनसे लोग अभी भी इतने ज्यादा प्रभावित हैं कि वो दूसरे नेता की ओर प्रभावित नहीं हो पातें. एक बात और, महाराष्ट्र जैसे जगहों पर चुनाव बहुत तरीके से मैनेज भी किए जाते हैं.
लेकिन वह भी कोई बड़ा प्रभाव नहीं छोड़ पातें?
-  क्योंकि वहां पर कांग्रेस का अपना आंदोलन है, जो दलित आंदोलन को स्वच्छंद रूप से खड़ा नहीं होने देना चाहते है. रामदास अठावले, योगेंद्र कवाडे, सुशील शिदें जैसे लोग आत्मनिर्भर दलित राजनीति को छोड़कर निर्भर दलित राजनीति की ओर आ रहे हैं. लोग अपने तात्कालिक फायदे को देखने लगते हैं और लौंग टर्म इंट्रेस्ट को नहीं समझते हैं. फिर इन्हें यूजीसी का चेयरमैन बना दिया जाता है या फिर राज्यसभा में भेज दिया जाता है. वहां उभरते हुए दलित लीडर- दलित दिमाग खत्म हो जाते हैं. कांग्रेसी नेताओं में इन्हें ‘कोऑप्ट’ करने की क्षमता होती है.
फिर क्या यह मान लिया जाए कि दलित नेताओं में समाज के लिए जूझने की प्रवृति कम हुई है?जेएनयू कैंटीन में डा. विवेक कुमार
- राजनेताओं की तो जरूर कम हुई है, इसमें कोई दो राय नहीं है. लेकिन महाराष्ट्र का जो सामाजिक आंदोलन है वो ज्यादा परिपक्व हुआ है. वहां आज भी छोटे-छोटे बच्चे काम कर रहे हैं. इसलिए सामाजिक आंदोलनों की जड़ें वहां बहुत गहरी हैं, लेकिन राजनीतिक आंदोलन क्षीण हो गया है-बंट गया है, क्योंकि लोग अपने तात्कालिक फायदे के लिए काम करने लगे हैं.
क्या यह समाज के समाज धोखा नहीं है?
- बहुत बड़ा धोखा है. लेकिन कभी-कभी लोग ऐसा सोचते हैं कि हम अपने जीवन को सुधार लें, बाकि पीढ़ियां चाहे जो सोचे, कोई दिक्कत नहीं है.
दलित नेताओं पर यह भी आरोप लगते रहे हैं कि अपने समाज का विश्वास जीतने के बाद वह अपने फायदे के लिए मुख्यधारा की अन्य पार्टियों से इस विश्वास को बेच देते हैं, यह आरोप कितना सही है.
- देखिए, हमें दोनों तरफ देखना चाहिए. यह समझना चाहिए कि दलित समाज के अंदर बहुत गुरबत है. अशिक्षा है, गरीबी है. लेकिन हमारा समाज बहुत समझदार भी है. क्योंकि हम मेहनतकश इंसान है, इसलिए वास्तविक राजनीति की समझ नहीं है. लोग भावनावश अपना अधिकार सामने वाले को दे देते हैं, लेकिन ये है कि जैसे-जैसे समाज में पढ़े-लिखे लोग आ रहे हैं, बात अब दूसरी ओर जा रही है. अब जल्दी बेचने के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं. आज 4-5 आत्मनिर्भर दलित आंदोलन चल रहे हैं. आप देखेंगे कि इतने वर्षों बाद अब रामविलास पासवान अपने आत्मनिर्भर आंदोलन पर आ गए हैं. अब ठीक है कि बाद में वह जोड़ें या घटाएं. इधर लोग जस्टिस पार्टी को भी चलाने का प्रयास कर रहे हैं. तो मेरे कहने का मतलब यह है कि समाज राजनैतिक रूप से परिपक्व होगा. क्योंकि राजनीति एक ऐसी कला है, जिसे किए बिना नहीं समझा जा सकता. दलित समाज राजनीति से दूर रहा है, तो राजनीति नहीं जानता है. इसलिए जब भी कोई कुठाराधात होता है तो वो समझता है कि उसका नेता खराब है. लेकिन उसे संयम रखना चाहिए. अपने नेता पर भरोसा रखना चाहिए. यह बड़ी बात है.
अखबार में छपा डा. विवेक कुमार द्वारा लिखा एक आर्टिकलदलित राजनीति के भविष्य को आप कैसे देखते हैं?
- आने वाले समय में आत्मनिर्भर दलित आंदोलन और परिपक्व होगा. जब लोगों को यह यकींन होगा कि आत्मनिर्भर दलित आंदोलन से हम बहुत कुछ पा सकते हैं, तो लोग खुद आगे आएंगे. जैसे एक बार महाराष्ट्र में एक यूनिवर्सिटी का नाम बाबा साहेब के नाम पर करने के लिए बहुत आंदोलन हुआ था, कईयों को शहादत देनी पड़ी थी, तो वहीं आज उत्तर प्रदेश में बाबा साहेब के नाम पर कई कॉलेज हैं. आत्मनिर्भरता का यही फायदा है और इसे समझना होगा.
दलित राजनीति के संदर्भ में पहले की और वर्तमान की चुनौतियों में क्या अंतर है?
- पहले दलितों को मानव समझाने की चुनौती थी. बाबा साहेब जब आंदोलन कर रहे थे तो दलितों को इंसान नहीं समझा जाता था. जब इंसान नहीं समझा जाता था तो उनके कोई अधिकार नहीं थे. बाबा साहेब ने पहली बार उन्हें नागरिक बनाने के लिए संघर्ष किया कि ये भी नागरिक हैं. जब नागरिक बन गए तो नागरिकों के मौलिक अधिकार होते हैं, उन अधिकारों को उन्होंने संविधान में प्रदत कराया. आज सबसे बड़ी चुनौती बाबा साहेब द्वारा संविधान में दिलाए गए अधिकारों को, ‘लैटर ऑफ स्पिरीट’ में लागू करवाना है. क्योंकि इसके लागू नहीं होने की स्थिति में आंदोलन ठहर जाएगा. आज हमारे पास बकायदा बिछी हुई बिसात है. केवल चाल चलनी है.
दूसरी बात, बाबा साहेब ने नंबर की ताकत यानि वन मैन-वन वोट-वन वैल्यू समझा दिया था, जिसे मान्यवर कांशीराम ने समझा और कहा कि 100 में से 85 प्रतिशन वोट हमारा है. वो 85 फीसदी वोट जोड़ते रहे. इससे अभी थोड़ी ही जातियां जुड़ी हैं और देखिए कि सरकार बन गई. दलितों को यह समझना पड़ेगा कि संगठन में शक्ति होती है और बिना सभी के जुड़े एक बड़ा समाज नहीं बनेगा. अंतरजातीय स्वभाव को भूल करके अपने संघर्ष को बड़े आयाम में कैसे परिवर्तित किया जाए, यह सोचना होगा. हम सब कास्टीज्म भूल करके अपने बड़े युग्म की तरफ बढ़ें. इसको लेकर बहुत बड़ी चुनौती है. राजनीति में जब तक हमारे नंबर नहीं बढ़ेंगे तब तक सत्ता नहीं आएगी.
आप समाज शास्त्र के शिक्षक हैं. सामाजिक रूप से जो पिछड़ापन है, वह कैसे दूर होगा?
- हां, यह दूसरी चुनौती है. पहले तो लग रहा था कि सारा दलित समाज गरीब है, अशिक्षित है, बेरोजगार है. लेकिन कालांतर में आजादी के 63 वर्ष के बाद एक ऐसा वर्ग पैदा हो गया है, जो शहरों में रह रहा है और जिसके पास नौकरियां है. इसलिए दलितों के दो फाड़ साफ दिखाई दे रहे हैं. एक शहर में रहने वाला दलित तो दूसरा गांवों में रहने वाला वर्ग. दोनों केडा. विवेक कुमार मसले अलग हो गए हैं. जो शहर में रह रहा है, उसको अच्छी नौकरी, अच्छा घर और आरक्षण चाहिए. जो वर्ग गांवों में रह रहा है, गरीबी में रह रहा है वह अभी दो जून की रोटी की जुगाड़ में लगा है. ऐसे में इस आंदोलन की चुनौती यह होगी कि उस अंतिम पायदान पर खड़े दलित साथी कि मुश्किलों को समझ कर उन्हें साथ में लाएं और उनके लिए संघर्ष करे. दूसरी तरफ न्यायपालिका, अफसरशाही और विश्वविद्यालयों में जारी पक्षपातपूर्ण रवैये से भी जूझने की चुनौती होगी. लड़ाई कई मोर्चों पर है, इसलिए समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से सबको किस तरह एक धागे में पिरो करके आंदोलित किया जाए. ये चुनौती सबसे बड़ी होगी.
मायावती की जो अब तक की राजनीति है और उन्होंने यूपी की सरकार में आने के बाद जो काम किया है, क्या आप उससे संतुष्ट हैं?
- एक समाजशास्त्री के दृष्टिकोण से इसमें वो गधे और उसके बेटे वाली कहावत लागू होती है. (किस्सा सुनाते हैं) ‘एक गधे को लेकर बाप-बेटे जा रहे थे. रास्ते में लोगों ने हंसना शुरू कर दिया कि गधा रहने के बावजूद दोनों पैदल चल रहे हैं. बाप ने गधे पर बेटे को बैठा दिया तो लोग ताने देने लगें कि बाप पैदल चल रहा है, बेटा गधे पर है. अब बेटे ने बाप को बैठा दिया तो लोग बाप की निंदा करने लगे कि बेटे को पैदल चला रहा है और खुद आराम कर रहा है. अब दोनों गधे पर बैठ गए तो लोग बाप-बेटे को निर्दयी कहने लगे कि एक गधे पर दोनों बैठ गए हैं. जब दोनों लोग उतर गए तो लोग फिर हंसने लगे.’ इस समाज के साथ भी ऐसा ही हैं. इस समाज द्वारा कुछ भी किया जाएगा वह ग्राह्य नहीं होगा. इसलिए संतोष की बात करना एक अतिश्योक्ति है. न कोई संतोष कर रहा, न ही कोई संतुष्ट है लेकिन अच्छा इसलिए लग रहा है कि एक प्रयास है और इसे सभी को सराहना चाहिए. तभी जाकर एक साकारात्मक छवि बन पाएगी.
आज राष्ट्रीय स्तर पर दलित नेतृत्व के नाम पर एक शून्य उभर आया है. जगजीवन राम आखिरी नेता थे, जिससे देश भर के दलित जुड़े. मायावती हैं तो वह कुछ राज्यों तक सीमित है. यह शून्य कैसे भर पाएगा?
- राष्ट्रीय स्तर पर एकांगी नेतृत्व पुरानी बात हो गई है क्योंकि समाज अब आगे निकल गया है. जब तक राष्ट्रीय स्तर पर शून्य की बात है तो, जब तक समाज से अखिल भारतीय स्तर पर प्रधानमंत्री पद का दावेदार नहीं उभरेगा, लोग उसको राष्ट्रीय नेता नहीं मानेंगे. इसलिए समाज को यह लगता है कि अखिल भारतीय स्तर पर कोई लीडर नहीं है, लेकिन भारतीय राजनीति को भी देखें और उसमें एक खास परिवार को छोड़ दें तो यहां भी किसी भी पार्टी में अखिल भारतीय लीडर नहीं है. अगर यह पैदा करना है तो जन आधार पैदा करना पड़ेगा. यह बात दिखाई नहीं पर रही.
डा. विवेक कुमाररामविलास पासवान और उदित राज जैसे लोगों की राजनीति का भविष्य क्या है?
- इन लोगों की शुरुआती दौर की राजनीति एंटी बसपा रही है. अब तक इन लोगों ने कोई साकारात्मक प्रोग्राम नहीं दिया है. अब तक इन लोगों ने लुभावने वादों पर राजनीति की हैं. जब तक ये कोई साकारात्मक प्रोग्राम नहीं देंगे और अपनी पार्टी के संगठनात्मक ढ़ांचे को मजबूत नहीं करेंगे, तब तक मुझे नहीं लगता कि इनका कोई भविष्य है. अपनी पार्टी की संरचना में इनको संगठनात्मक ढाचे को मजबूत कर उसमें कैडर बनाने होंगे. अगर ये लोग इसके लिए समय देने को तैयार है. तो कुछ संभव है.
क्या यह संभव है कि सभी दलित नेता एक मंच पर आ सकते हैं?
- कतई नहीं. यह हो ही नहीं सकता क्योंकि जो बड़े लीडर हैं उन्हें लगता है कि उनकी राजनीति सुरक्षित है. वैसे ही जो पुराने नेता हैं वो क्यों किसी के साथ काम करेंगे. जैसे संघप्रिय गौतम हैं, उन्होंने बाबा साहेब के साथ काम किया है. दूसरे उनके सामने बच्चे हैं. रामविलास पासवान वगैरह खुद को स्थापित लीडर समझते हैं, वो किसी के साथ क्यों आएंगे. बहन मायावती की तो अपनी राष्ट्रीय पार्टी है, तो क्यूं किसी के साथ जाएंगी. जहां तक छोटे लीडरों की बात है, उनकी अपनी इतनी छोटी-छोटी डिमांड है कि वो पनप नहीं पा रहे हैं तो इसलिए साथ आना मुश्किल है.
आज की राजनीति में चारो ओर यूथ की बात हो रही है. कांग्रेस-भाजपा और तमाम पार्टियां उनको लुभाने में जुटी है. लेकिन जो दलित युवा है, वह कहां जाए?
- सबसे बड़ी बात है कि दलित युवा एकांगी नहीं है. उसमें भी कई फाड़ हैं. सबसे बड़ा तबका ग्रामीण इलाकों में है. वह अनपढ़ और डेली वेज पर काम करके जी रहा है. उसके सामने सबसे बड़ा अंधकार है. उसके लिए प्रोग्राम, पॉलिसी और न्याय जुटाना दलित आंदोलन के लिए एक चैलेंज होगा. जो दूसरा यूथ है वह पहली पीढ़ी का है और शहरों में है. वह डाक्टर, इंजीनियर बनने में लगा है. एक पीढ़ी ऐसी है, जिसकी पहली जेनेरेशन विश्वविद्यालयों में आ गई है. वह टीचर हो गया है तो उसकी कोई बिसात नहीं है, उसको कोई सुनता नहीं है. तो ये जो तीन प्रकार के यूथ हैं इनके अपने-अपने एजेंडे हैं. दलित समाज की जो पार्टियां हैं उनकी खुद के इतने मसायल हैं कि वो यूथ विंग नहीं संभाल सकते. कांशीराम जी से यह प्रश्न किया गया था कि आप यूथ विंग क्यो नहीं बनाते. उनका जवाब था कि विंग कि जरूरत प्लेन को पड़ती है. जब प्लेन टेक ऑफ कर लेता है तो उसकी बॉडी संभालने के लिए विंग चाहिए होता है. लेकिन हमारी बॉडी ही नहीं संभल रही. इसलिए हमारे यूथ को अपने आप आत्मनिर्भर संगठन के संदर्भ में सोचना चाहिए कि किस तरह सत्यनिष्ठा के साथ आंदोलन चलेगा. क्योंकि यह तबका बहुत जल्दी संतुष्ट हो जाता है और बहुत जल्दी बहक भी जाता है. इसलिए हमारे जो यूथ हैं उन्हें और भी परिपक्वता और विचारधारा के आधार पर जोड़ना पड़ेगा ताकि कोई उसे बरगला न कर सके.
क्या आप निजी क्षेत्र में आरक्षण का समर्थन करते हैं?
- बिल्कुल, सौ फीसदी. लेकिन हमें यह भी समझना चाहिए कि क्यों होना चाहिए? देखिए, पब्लिक सेक्टर दलितों को केवल सात फीसदी जॉब देता है. जबकि 97 फीसदी लोग प्राइवेटजेएनयू स्थित अपने आफिस में डा. विवेक कुमार सेक्टर में बिना रिजर्वेशन के जीते हैं. भारत में अगर इंडियन लेबर कमिशन का जॉब का आंकड़ा लें तो तकरीबन दो करोड़ जॉब आते हैं. इन दो करोड़ लोगों में शिड्यूल कास्ट का आरक्षण प्रतिशत गिन लिया जाए तो वो तकरीबन तीस लाख होगा. एक परिवार में पांच लोगों को मान लिया जाए तो डेढ़ करोड़ लोग दलितों को आरक्षण के तहत मिलने वाली नौकरियों से लाभान्वित होते है. दलितों की आबादी है 18 करोड़. अब 16 करोड़ 50 लाख लोग बिना रिजर्वेशन के ही जी रहे हैं. ऐसे में प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण की जवाबदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए. हमारे लोगों को अब नौकरियों के अलावा संसाधन में भी आरक्षण मांगना चाहिए. जमीन के बंटवारे में भी हमें हमारा हक मिलना चाहिए. हमें सप्लाई में भी रिजर्वेशन मिलना चाहिए. मेरा मानना है कि अगर एक अस्पताल में किसी दवा की 100 गोलियां बिकती है, तो इसमें से 16 गोलियां हमारे लोगों से खरीदी जानी चाहिए. सरकार चाहे तो क्वालिटी जांच ले. जूते बनाने का धंधा तो हमारे लोगों का है. स्पोर्ट्स हॉस्टल में हमसे भी 100 में 16 जूते लो. यह चीज गाड़ियों, डीलरशिप जैसी हर छोटी-बड़ी चीज की सप्लाई में होनी चाहिए. ऐसा करके सरकार किसी का हक नहीं मार रही है. बल्कि दलितों में नए इंटरप्येनोरशिप डेवलप कर रही है. इसके लिए सरकार को केवल एक आर्डर निकालना है. केवल नौकरियों में आरक्षण मांगकर हमें अपना समय बर्बाद नहीं करना चाहिए. क्योंकि सरकारी क्षेत्र में नौकरियां कम हो रही है.
यह तर्क भी सुनने में आता है कि दलितों में योग्यता नहीं है?
- जहां तक निजी क्षेत्रों में योग्यता की बात है तो इसकी कोई संवैधानिक परिभाषा नहीं है. योग्यता की परिभाषा वो लोग बनाते हैं जो सत्ता में होते हैं. और सत्ता में बैठने वाले लोग योग्यता का निर्धारण हमेशा अपने पक्ष में, अपनी सांस्कृतिक विरासत के आधार पर करते हैं. तीसरी बात यह है कि योग्यता का निर्धारण आजकल परीक्षा में आने वाले अंकों से निर्धारित होता है. अंग्रेजी बोलने को ही योग्यता का आधार माना जाता है. यह भी उन्हीं के द्वारा किया गया निर्धारण है. जबकि भाषा ज्ञान की निशानी नहीं है, बल्कि सोशल बैकग्राउंड की निशानी है. इसलिए व्यक्तियों के सामाजिक परिवेश को देखकर योग्यता का पैमाना बने और उसके आधार पर परीक्षा हो. तब कहीं जाकर हम एक समाज की कल्पना कर सकते हैं.
फिर से मायावती की बात करते हैं. उन्होंने अपनी राजनीति बहुजन समाज के नारे के साथ शुरू की थी. आज वह सर्वजन समाज के नारे पर आ गई हैं. क्या यूपी में बहुजनों की समस्याएं खत्म हो गई हैं?
बहुजन समाज पार्टी को दो तरीके से समझना चाहिए. एक तो वो राजनैतिक आंदोलन है, दूसरा सामाजिक आंदोलन भी है. राजनीतिक आंदोलन के तहत जो नारे दिए गए हैं वो राजनीति तक ही सीमित रह सकते हैं. एक बात और है. आपके जितने वोट हैं, उससे आप आत्मनिर्भर सरकार नहीं बना सकते हैं और इसलिए आपको दूसरे समाज का सहारा लेना पड़ेगा. इसलिए राजनैतिक तौर पर तो यह नारा सही हो सकता है लेकिन सामाजिक तौर पर जब हम काम देखते हैं, जैसे बुद्ध के नाम पर प्रतिमा बनती है, महामाया के नाम से शहर बनता है, कांशीराम के नाम से योजनाएं बन रही है, तो इसका मतलब यह हुआ कि सामाजिक तौर पर आंदोलन आज भी जारी हैं. बाकी सत्ता में आने के बाद सबको संरक्षण देना होता है. सबको साथ लेकर चलना पड़ता है. तो जो भी परिवर्तन है, वह सत्ता में आने के बाद का परिवर्तन है.
आपने मूर्तियों की और महामाया नगर की बात की. इसको लेकर भी बसपा और मायावती की काफी आलोचना हुई है.
- मैं इन मूर्तियों और पार्क को रिएक्सनरी एजेंटे से नहीं देखता हूं. यह बसपा के विचारात्मक सोच का नतीजा है क्योंकि अपना दल बनाते समय ही उन्होंने इंगित कर दिया था कि जब हम सत्ता में आएंगे तो हम आपको वो सब देंगे जिसका वादा किया था. उन्होंने यह किया भी. इसलिए मुझे लगता है कि वो साकारात्म एजेंडा था. पूर्ववर्ती सरकारों में बहुजन समाज के लीडरों को न्याय नहीं दिया, इज्जत नहीं दी. कल तक जिन जगहों पर केवल सवर्णों का एकाधिकार था और जो दलितों के लिए प्रतिबंधित थी, उस एकाधिकार को तोड़कर वहां दलितों की मूर्तियां लगाना जनतांत्रिकरण की निशानी है. इससे कल तक जो लोग चमरौटी में सीमित कर दिए गए थे, वो चौराहे पर आ रहे हैं. इसमें लोगों को मूर्तियों से कोई परहेज नहीं है बल्कि उन्हें एकाधिकार टूटने का डर सता रहा है. वास्तविकता में वही लोग इसकी निंदा कर रहे हैं, जिनकों इन महापुरुषों के योगदान के बारे में कुछ नहीं पता. उनको भी दोष नहीं देना चाहिए क्योंकि उनकी कक्षाओं में, उनके विश्वविद्यालयों में कभी इन महापुरुषों की चर्चा होने ही नहीं दी गई. इसकी वजह से वो चेतना शून्य हैं. इसलिए उनको दोषी ठहराना गलत होगा.
आपने राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर दलितों की आवाज उठाई है. वहां किस तरह की दिक्कतें होती हैं?
- अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सरकारों की बातें होती हैं, व्यक्तियों की नहीं. इसलिए वो सुनना नहीं चाहतें क्योंकि दो देशों के रिश्ते प्रभावित होते हैं. उनको भारतीय समाज की जोजेएनयू स्थित अपने आफिस के दरवाजे पर डा. विवेक कुमार वास्तविकता है, वह भी नहीं पता. उनको लगता है कि भारतीय लोग बड़ी शांति से, भक्ति से जैसे पहले रह रहे थे, आज भी वैसे ही रह रहे हैं. उनके मुताबिक भारत में कोई शोषण नहीं है. हमारे देश का एक तबका भी यह प्रचारित करता हैं कि हमारे यहां ऐसा कुछ नहीं है. कुछ था तो संविधान ने उसका संज्ञान ले लिया है. लेकिन अब संयुक्त राष्ट संघ ने इसका संज्ञान ले लिया है.
आपकी भविष्य की क्या योजनाएं हैं?
- मेरी कोशिश दलित समाज की साकारात्मक छवि स्थापित करने की है. अब तक जो छवि बनी है, उसके मुताबिक हम गंदे, दारूबाज और अयोग्य हैं. मैं इस छवि को बदलना चाहता हूं. हमें बताना होगा कि हमारा समाज लेने वाला नहीं बल्कि देने वाला है. चाहे वह किसी बच्चे को सबसे पहली बार छूने वाली दाई हो या अन्य कार्य करने वाले लोग, हमारे ही श्रम से देश चलता है और देश में आर्थिक बदलाव आता है. मेरी कोशिश समाज के नायक-नायिकाओं को उभारने की है. बाबा साहेब को दलित नेता के रूप में सीमित कर दिया गया था, जबकि वो राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के नेता थे. आज कई चिंतक इसे दिशा दे रहे हैं. भारतीय समाज में जो दलित समाज है, उसके अपने मूल्य है. उसे वापस लाना होगा. चूंकि शिक्षा के क्षेत्र में हूं इसलिए सोचता हूं कि भारतीय समाज के प्राइमरी से लेकर पीएचडी तक हर पाठ्यक्रम में दलित समाज की सकारात्मक छवि को किस तरह समायोजित किया जाए.
वंचित समाज के हित में अगर आपको एक फार्मूला बनाने को कहा जाए, तो इस समाज की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक हालात ठीक  करने के लिए आप क्या करेंगे?
- यह कहना तो जरा मुश्किल है लेकिन एक फार्मूला यह हो सकता है कि वास्तविकता में दिक्कत कहां है, उसकी प्रकृति क्या है, उस दिक्कत को समझा जाए, तब जाकर उसका हल मिल सकता है. इसे चिन्हित करना होगा. बाबा साहेब ने 60 साल पहले जिन मुश्किलों को समझा था, वह आज भी बहुत दूर नहीं हो पाई हैं. आज के कंप्यूटर युग में बाबा साहेब के दिए मूलमंत्र के साथ 21 सदी के कालखंड को समझना होगा. आज अदालत, ब्यूरोक्रेसी, राजनीति और मीडिया जैसी सत्ता को चलाने वाली संस्थाओं में अनुपातिक जनसंख्या के आधार पर दलितों की भागीदारी जरूरी है. जमीन और संसाधन में भागीदारी सुनिश्चित करने की भी जरूरत है.
विवेक जी, आपने इतना अधिक वक्त दिया और विस्तार से बातें की, धन्यवाद
- धन्यवाद अशोक जी।

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