बुद्ध प्रतिमा पर ह्र्दयांकित स्वास्तिक |
"स्वास्तिक" चिह्न का प्रयोग भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही किया जाता है | इसका अर्थ सु (अच्छा या शुभ ) अस्ति (होना) है |अर्थात यह शुभ और सकारात्मक शक्ति एवं विचारों का प्रतीक है | इस चिह्न का प्रयोग सिंधु घाटी सभ्यता के दौरान से ही किया जाता रहा है, सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेषों से यह पता चलता है | इसका प्रयोग बौद्ध संस्कृति में भी किया जाता है | बहुत सारी बौद्ध प्रतिमाओं पर स्वास्तिक चिह्न हृद्यांकित देखा जाता है | भारतीय घरों में भी इस का प्रयोग द्वार पर शुभ एवं मांगलिक प्रतीक के रूप में किया जाता है |
स्वास्तिक का पहला अर्थ सु + आस्तिक यानि शुभकारी या " वेल - बीइंग " होना है | "स्वास्तिक" शब्द का एक दूसरा अर्थ स्व + आस्तिक , अर्थात स्वयं पर आस्था रखने वाला, स्वयं को जानने, समझने को प्रवृत्त और स्वयं पर विश्वास करने वाला है यानि "सेल्फ-रियलाइजेशन" करना | निश्चित ही यह अर्थ "आस्तिक" अर्थात (ईश्वर में ) आस्था रखने वालों और "नास्तिक" अर्थात (ईश्वर में) आस्था नहीं रखने वालों के बीच मध्यम मार्गी है | बुद्ध ने जीवन का मध्यम मार्ग ही सुझाया है | उन्होंने ईश्वर जैसी किसी भी सर्वशक्तिमान , सर्वनियन्ता और सर्वत्र विद्यमान शक्ति के अस्तित्व से इंकार किया है | उन्होंने इस तरह के ईश्वर के अस्तित्व का खंडन करने में भी वाद विवाद करते हुए किसी लंबी चौड़ी बहस को तबज्जो नहीं दी, क्योंकि यह बहस व्यर्थ की बहस है और इसका मानव कल्याण से कोई सम्बन्ध नहीं है | जिज्ञासुओं की ईश्वर सम्बन्धी प्रश्नों पर वे मौन साध लेते थे | जाहिर है कि उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व का खंडन ही किया और जब जिज्ञासु ईश्वर के अस्तित्व होने या न होने की उलझन में ही पड़े रहते तो वे कहते इस पर बहस की कोई सार्थकता नहीं | तुम मुझसे यह पूछो कि मानव जीवन को कैसे कल्याणकारी और आनंदमय बनाया जाये वह मैं विस्तार से बताऊंगा |
यह विचार इसलिए भी प्रासंगिक है क्योंकि आज भी लोग ईश्वर के अस्तित्व या अनअस्तित्व को लेकर ही कभी न खत्म होने वाली बहस में पड़े रहते है | इस तरह की बहस को ही अपना उद्देश्य बनाकर इसी में सार्थकता मानते है जबकि जो चीजें सीधे मानव की भलाई से जुडी होती है उनसे उनका दूर का वास्ता भी नहीं होता |ऐसे लोग निरर्थक चीजों में ही अपना अमूल्य जीवन और समय बर्वाद करते है |
इसलिए आप ईश्वर में विश्वास करो या न करो यानि आप आस्तिक हो या नास्तिक हो, ऐसे किसी भी व्यर्थ की बातों को लेकर अंतहीन विचारयुद्ध में पड़ने की आवश्यकता नहीं है | यह बिलकुल भी महत्वपूर्ण नहीं है | आप का खुद को जानना ,पहचानना, खुद की और अपने चारों ओर की चीजों की यथार्थता को जानना, और मनुष्य जीवन को जीते जी बाधाओं और कमजोरियों का निदान और निराकरण करते हुए कैसे सुखमय, आनंदकारी और कल्याणकारी बनाया जाये , यह सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है | इसी में सार्थकता है | इसीलिए स्वास्तिक बनो, स्वयं पर विश्वास करो और स्वयं को जानो और आस्तिक और नास्तिक होने की बजाय इसी में जीवन की सार्थकता है |