बुद्धं शरणम गच्छामि ! धम्मं शरणम गच्छामि ! संघम शरणम गच्छामि !
जय भीम ! जय बुद्ध ! जय भारत !
Leberty, Equality and Fraternity !
Educate, Agitate and Organize !
Loading

Wednesday, 13 April 2011

आदिवासी साहित्य की उपस्थिति - नवल शुक्ल


आदिवासी साहित्य की उपस्थिति 
नवल शुक्ल

शुरू शुरू में हमारे बीच साहित्य के लिए मात्रा साहित्य का सम्बोधन पर्याप्त था। साहित्य और साहित्यकार, इससे अधिक हुआ तो लेखक, कवि, गद्यकार, उपन्यासकार, कथाकार, निबंधकार, ललित निबंधकार आदि। साहित्य के विभाजन- नामकरणᄉ के लिए भाषा, समय और प्रवृत्तियों की केन्द्रीय महत्ता थी। प्राचीन साहित्य, अर्वाचीन साहित्य, शास्त्राीय लोक साहित्य या प्राकृत अपभ्रंश, अवहट्ट आदिकाल, मध्यकाल से होते हुए आठवें, नवें, दशक के साहित्य का भी विभाजन सर्वज्ञात था। इन सभी प्रकार के साहित्यों में समय, इतिहास, प्रवृत्तियां महत्वपूर्ण हैं। इसी तरह से इनका विभाजन और नामकरण भी है।
नवें दशक के अंत में अचानक हिन्दी साहित्य में साहित्य वर्णगत विशेषण के रूप में वर्ग विशेषण के विभ्रम के साथ आया। उदाहरण के लिए दलित साहित्य। दलित शब्द में पीड़ित, वंचित, शोषित, मजदूर आदि के अतिरिक्त जातिगत अस्मिता अधिक है। दलित जाति के लोग सबसे अधिक पीड़ित, वंचित, शोषित और मजबूर रहे हैं और हैं, इस बारे में अलग से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। यह अलग बात है कि आजकल दलित जाति स्वयं के लिए दलित विशेषण का प्रयोग उचित नहीं मानती। हिन्दी में दलित साहित्य के नामकरण, पहचान और प्रतिष्ठा के लगभग पंद्रह बीस वर्षों में ही दलित विशेषण के प्रति दलितों के बीच विरक्ति आयी है।
हिन्दी में दलित साहित्य का सीधा सम्बंध मंडल आयोग के समय और राजनीति से है। दलित लेखन और दलित साहित्य पर हिन्दी साहित्य में चर्चा की शुरुआत श्री राजेन्द्र यादव ने की। बाद में शिवपुरी में दलित कलम नाम से गोष्ठी हुई। दिल्ली से शिवपुरी तक की दोनों गोष्ठियों में डॉ. नामवर सिंह की उपस्थिति थी। पहली गोष्ठी से दूसरी गोष्ठी के बीच दलित लेखन, दलित साहित्य आदि के बारे में सहमति असहमति या स्वीकारोक्ति अस्वीकारोक्ति की अनेक चर्चाएं होती रही हैं। इन पंद्रह बीस वषोर्ं के बीच दलित साहित्य की रचनाओं के प्रकाशन और दलित साहित्य पर केन्द्रित पत्रिाकाओं के अनेक उपक्रम हुए। हिन्दी साहित्य में दलित साहित्य बाकायदा स्थापित हुआ।
आज उपेक्षित का साहित्य या आदिवासी साहित्य के संदर्भ में लिखने बैठता हूं तो मेरी स्थिति विकट हैं। अभी तक मैं आदिवासी अंचलों या लोकांचलों में काम करते हुए यह देखता रहा कि कौन गायक है, कौन नर्तक, कौन चित्राकार है, कौन शिल्पकार। सृजन के विविध माध्यमों में आदिवासी समुदाय को परम्परागत ज्ञान के साथ काम करते हुए और अपने स्थानीय ज्ञान को शिद्दत के साथ बचाये रखने एवं उसका उपयोग करते रहने के कारण समुदाय के प्रति श्रद्धा, सम्मान और जिज्ञासा का भाव सदैव बना रहा। हमेशा ऐसा लगता रहा जैसे अपने पुरखों के बीच हूं और उनसे जान, सीख समझ रहा हूं। इनमें जीवन संघर्ष, जीवानुभव और सहज अभिव्यक्ति इस तरह संचित और सतत्‌ विद्यमान हैं जैसे पानी में हाइड्रोजन और आक्सीजन। सृजनात्मक उपलब्धि के रूप में मुझे पानी अच्छा लगता है।
आदिवासी साहित्य, मतलब वह नहीं जो वाचिक परम्परा में विद्यमान है, जो लुप्त हो गया है या जिसे लिपिबद्ध किया गया है या किया जा रहा है। यहां पर आदिवासी साहित्य, आदिवासी लेखन और अदिवासी लेखक के साथ जुड़ा है। यह व्यक्तिगत स्वभाव हो अथवा साहित्य के प्रति मेरी दृष्टि कि मैं लेखक को जाति के रूप में चिन्हित करते रहने से वंचित रहा। बल्कि इस तरह से देखना जानना उचित भी नहीं लगता रहा। शायद यह भी एक कारण है कि दलित साहित्य के रूप में साहित्य को पढ़ने देखने और लेखक को जानने में व्यथित भी होता हूं। साथ ही एक दूरी का बोध भी होता है। ठीक इसी प्रकार साहित्य में आदिवासी के विशेषण के साथ आदिवासी साहित्य के लिए महसूस कर रहा हूं।
आदिवासी साहित्य (पारम्परिक), कला, संगीत आदि पर काम करने, नृतत्वशास्त्रा का परिचय पाने और आये दिन होने वाले विमर्श के करीब होने से यह लगता रहा है कि नृतत्वशास्त्राीय अध्ययन में और उसके शास्त्रा में कोई खोट है। विशेषकर इस शास्त्रा और उसके अध्ययन की मंशा उचित नहीं प्रतीत हुई। यह लगता तो एक समुदाय को पहचानने और उसके समग्र अस्मिता का शास्त्रा और अध्ययन है, परंतु अनेक तरह के ज्ञान प्राप्ति के बावजूद मुझे हमेशा लगता रहा जैसे यह मनुष्य को अंततः एक इकाई बना देने का शास्त्रा और अध्ययन भी है।
आदिवासी साहित्य और आदिवासी लेखक के बारे में जब हिन्दी की रचनाओं और रचनाकारों को देखने का जतन करता हूं तो पाता हूं कि आदिवासी लेखक नहीं हैं। या उन्हें जानता नहीं हूं। साथ ही क्या वे यह चाहते होंगे कि आदिवासी लेखक के रूप में उनकी पहचान हो। या कि यह चाहते होंगे कि हिन्दी के रचनाकार के रूप में उनकी पहचान हो। मेरी समझ से तो हिन्दी के रचनाकार की पहचान और जातिगत वर्गीय रचनाकार की पहचान में से पहली पहचान अधिक अच्छी है। यूं भी हिन्दी किसी जाति की बोली भाषा नहीं है। यह मात्रा हिन्दी भाषी प्रदेश की भी नहीं है। हिन्दी भाषी प्रदेश की तमाम बोलियां उप बोलियां हिन्दी से अंतर्क्रिया करती हुई, हिन्दी को लगातार समृद्ध भी करती रही हैं और विस्तारित भी।
यदि आदिवासी साहित्य पर चर्चा प्रारम्भ हो ही रही है तो दलित साहित्य के गुण दोष संदर्भ के लिए कारगर होंगे। आदिवासी साहित्य के संदर्भ में कम से कम आदिवासी लेखकों की खोज और उनकी रचनात्मक भागीदारी के प्रति देरसबेर लोगों का ध्यान जाना लाजिमी है। साहित्य में आदिवासी लेखकों की कमी या लगभग अनुपस्थिति चिन्ता का विषय है। इस चिन्ता के पीछे मुख्य कारण है कि एक वृहत्तर समुदाय के रचनात्मक और सामाजिक सरोकार से वर्तमान साहित्य आधा अधूरा सा है। आदिवासी चेतना, रागात्मकता, प्रकृति, पर्यावरण, पारम्परिक और स्थानीय ज्ञान तथा अभिव्यक्ति की सहजता जब लेखन के माध्यम से सामने आयेगी तो जाहिर है साहित्य का जीवद्रव्य सघन होगा और जिजीविषा से भरापूरा भी। साहित्य में अभिव्यक्ति और कहन के नये आयाम आयेंगे। साहित्य की सृजनात्मकता में जो एकरूपता, जड़ता हो सकती है, वह ढीली होगी। कथ्य, कहन और भंगिमा से सृजनात्मक भूमि और क्षितिज का विस्तार होगा। अनजाने मिथ, कथानक, विभ्रम और यथार्थ से हिन्दी साहित्य समृद्ध होगा। हिन्दी की जनतांत्रिाकता और उसके मूल्यों का विकास और विस्तार होगा। न जाने कितने शब्द, अर्थ और छवियां धीरे धीरे रचनात्मक रूप से आयेंगी। सम्भव है अनेक जीवनानुभवों से साबका पहली बार होगा। कुल मिला कर साहित्य या काव्य संवेदना और काव्य भाषा का विकास होगा।
आदिवासी कला, साहित्य और संस्कृति पर काम करते हुए अनुभव के आधार पर यह कह सकता हूं कि आदिवासी साहित्य के माध्यम से स्वयं की पहचान, स्वयं की आवाज और स्वयं की सृजनात्मक अभिव्यक्ति से जो सामाजिक और राजनीतिक चेतना सामने आयेगी; उसमें अंततः पूरे भारतीय समाज की मुक्ति, अभिव्यक्ति और संघर्ष ही सामने होंगे। भारतीय समाज का सच और उसके मर्म सामने आयेंगे। परंतु यदि सिर्फ स्वयं की पहचान, पालिटिकल आइडेण्टिटी या अपनी पहचान की राजनीति के रूप में साहित्य का निर्माण होगा, तो वह मात्रा गुस्सा, नफरत, विभेद को सामने लायेगा। फिर आदिवासी साहित्य की सृजनात्मकता से साहित्य कम सम्पृक्त होगा। साहित्य की वर्तमान अभिव्यक्ति की चालढाल पर प्रतिक्रियात्मक लेखन अधिक होगा। इसमें इस राजनैतिक चेतना का अभाव होगा कि हमारे प्राथमिक दुश्मन कौन हैं। सामाजिक, आर्थिक कारणों की समग्र दृष्टि और परिप्रेक्ष्य का अभाव होगा। सामाजिक सरोकार बेहद तात्कालिक होंगे। अनुभव की तीव्रता, अभिव्यक्ति की विविधता और सहजता कम होगी।
वर्तमान में हिन्दी साहित्य में स्थापित और चर्चित आदिवासी रचनाकार नहीं हैं, यह स्थिति सचमुच भयावह है। एक भी आदिवासी लेखक की याद नहीं आती है, जो हमारी हिन्दी के पाठ्यक्रमों में हो। क्या कारण हैं कि आदिवासी रचनाकार साहित्यिक विधाओं में उच्चतर स्थिति में नहीं हैं? क्या लेखन नहीं हैं? क्या प्रकाशन की स्थितियां नहीं हैं या सही समय पर समुचित प्रोत्साहन का अभाव है? मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्य के आदिवासी हिन्दी लेखकों के संदर्भ में उपर्युक्त स्थितियों को परखने पर जो दृश्य सामने आता है, वह बेहद उलझा हुआ है। पहली कृति के प्रकाशन के लिए अनुदान की व्यवस्था मध्य प्रदेश में लगभग तीन दशकों से है। साहित्यिक पत्रा पत्रिाकाओं में रचनाओं का प्रकाशन भी सहज सम्भव है, बशर्ते रचना का एक सामान्य स्तर हो, परंतु प्रोत्साहन और समुचित संवाद की स्थिति का थोड़ा बहुत अभाव है। यह अभाव साहित्य में डेढ़ दो दशक पूर्व अधिक रहा होगा। परंतु पिछले एक दशक में यह अभाव भी देखने को नहीं मिलता है। दरअसल साहित्य में रचना के मार्फत सतत्‌ संघर्ष और सम्वाद से ही रचनाकार अपनी जगह बनाता है। किसी वर्ग या जाति के नजरिये से रचनाकार का साहित्यिक प्रोत्साहन, महत्व और मूूल्यांकन किया भी नहीं जाता है। सम्भव है इस जगह पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता हो। यह ध्यान जातिगत या वर्गगत न होकर संवेदनपरक अवश्य होना चाहिए। अग्रज लेखकों, सम्पादकों, विमर्शकर्ताओं द्वारा साहित्य के निर्मम और निर्विवाद नजरिये से हट कर यदि आदिवासी लेखकों की रचनाओं को बिना जातिगत वर्गगत सम्बोधन के रेखांकित किया जाये तो सम्भव है परिदृश्य थोड़ा बदले। अनुभव की तीव्रता, सामाजिक राजनैतिक चेतना, वर्गगत चेतना, कहन की सहजता आदि के रूप में आदिवासी लेखकों की रचनाओं पर विमर्श किया जाना चाहिए। इन रचनाओं में जो अनजाने और नये मिथक या परम्पराएं आ रही हों, उसे चिद्दित किया जाना चाहिए। यहां तक कि रचना में आये स्थानीय ज्ञान और सहज विवेक को भी विमर्श का हिस्सा बनाया जा सकता है।
होता क्या है कि रचना का कोई भी माध्यम हो, वह माध्यम इतना बड़ा और जटिल हो जाता है कि नये रचनाकारों को थोड़ी झिझक बनी रहती है। यह झिझक उस माध्यम के बरतने के साथ जो रचा गया है, वह सही है या नहीं, के कारण अधिक होती है। संवाद, संगोष्ठी और प्रकाशनों की उपलब्धता से इसे कम किया जा सकता है। बस एक बार कुछ समय तक यह किया जाये तो आदिवासी क्षेत्राों से आदिवासी और गैर आदिवासी लेखकों और रचनात्मकता के अबाध स्रोत सामने आयेंगे। आदिवासी क्षेत्राों के गैर आदिवासी लेखकों को भी मैं जानबूझ कर इसलिए कह रहा हूं कि एक ही अंचल में लोगों का एक जैसा वातावरण है। कुल मिला कर इस वातावरण में हस्तक्षेप करने की जरूरत है। यह कहने बताने दिखाने और सुनाने की आवश्यकता है कि जो आप लिख रहे हैं, वह प्रथमतः अभिव्यक्ति है। वह सचमुच रचना है। वह किस माध्यम में, किस रूप में रचा जा रहा है, उसे बहुत अधिक जानने और सचेत होकर ठीक उसी तरह प्रतिरूप का निर्माण करना ही रचना नहीं है। अपना अनुभव, अपने लोगों का अनुभव, अपने समाज, देश और व्यवस्था के अनुभव को कहना भी रचना है। जाहिर है आदिवासी लेखक जो गाता है, वादन करता है, चित्रा बनाता है, कहानियां कहता है और ऐसे अनेक रचनात्मक विधाओं से वह सजह ही वाकिफ है तो वह ऐसे अनुभवों को रचनात्मकता के साथ ही लिखेगा।
यदि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में अनेक आदिवासी कलाकार पिछले दो तीन दशकों में पारम्परिक रचना कर्म से आकर समकालीन कला माध्यमों में रचनाएं कर रहे हैं तो आदिवासी लेखक समकालीन हिन्दी साहित्य में अपनी जगह क्यों नहीं बना सकता? उदाहरण के लिए भीली चित्राकार पेमा फात्या पारम्परिक चित्राकला पिथौरा का सृजन दीवारों पर पूरे अनुष्ठान के साथ करते हैं तो कैनवस पर पारम्परिक को ही बिना अनुष्ठान के करते हैं। जबकि भीली चित्राकार स्व. टेरू टाहेड़ ने पारम्परिक भीली चित्राकला पिथौरा के शैलीगत तत्वों और रूपाकारों को समकालीन चित्राकला में जगह दी। उन्होंने परम्परागत चित्रा नहीं बनाये। ठीक इसी तरह भीली चित्राकार भूरीबाई और लाड़ोबाई ने भी परम्परा से मात्रा सृजनात्मक तत्वों को ग्रहण किया। बस्तर के मुरिया चित्राकार बेलगूर मंडावी, शंकर जयलाल आदि ने पहली बार कागज, कैनवस, रंग, ब्रश को लिया और जो चित्रा सृजित किये उसने समकालीन चित्राकला को विस्तारित किया। डिंडोरी, मंडला के मुख्यतः परधान जनजाति के चित्राकारों ने पिछले दो ढाई दशक में जो चित्रा बनाये वह समकालीन गोंड चित्राकला या जणगण कलम के नाम से जाना जाता है। आज पचास से अधिक परधान एवम्‌ गोंड चित्राकार जो रचनाएं कर रहे हैं, वे समकालीन हैं। उसके संदर्भ उनकी प्रकृति, वातावरण, गीतों, कथाओं और मिथ कथाओं में हैं। यह हमारा समकाल है। जगदीश स्वामीनाथन ने जब पहली बार सरगुजा रायगढ़ के प्राथमिक जनजाति पहाड़ी कोरवा को रंग ब्रश प्रदान किया और परिणामस्वरूप जो चित्रा सामने आये उसे देख कर स्वामीनाथन ने ÷जादुई लिपि' नामक मोनोग्राफ लिखा और पहाड़ी कोरवा द्वारा बनाये गये चित्राों को समकालीन आधुनिक चित्राकारों के चित्राों के साथ एवं समानांतर विश्लेषित किया। मूर्तिशिल्प, गायन आदि रचना माध्यमों में भी ऐसे अनेक उदाहरण हैं। तो फिर समकालीन आदिवासी साहित्य में आदिवासी लेखकों की स्थिति यदि विरल है तो जाहिर है वातावरण, परिस्थिति, अवसर, प्रोत्साहन आदि की कमी अवश्य है।
इसी संदर्भ में उल्लेख करना चाहूंगा कि पेमा फात्या, बेलगूर मंडावी आदि कलाकारों ने बातचीत (प्रकाशित) के माध्यम से चित्राकला के संदर्भ में अपने अनुभव और दृष्टि आदि की भी बातें की हैं। जबकि ये कलाकार साक्षर नहीं हैं। आज श्याम, वेंकटेश जैसे नयी थी पीढ़ी के आदिवासी चित्राकार हैं जो चित्रा रचना के साथ अपनी बातें लिख कर भी कहते हैं। वेंकटेश द्वारा इंग्लैंड में बनाये गये चित्राों या कथात्मक चित्राों पर अंग्रेजी एवं अन्य कई भाषाओं में पुस्तकें भी प्रकाशित हो रही हैं।
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के आदिवासी लेखकों के संदर्भ में दो लेखक मेरे सामने हैंᄉ एक श्री महिपाल भूरिया और दूसरे श्री भानुप्रकाश। महिपाल भूरिया जी हिन्दी और अंग्रेजी में जनजातीय साहित्य, संस्कृति पर लिखते हैं। भूरिया जी की लेखनी समाजशास्त्राीय भी है। महिपाल भूरिया ने पिछले तीन दशकों में भीली साहित्य, संस्कृति पर अनेक लेख लिखे हैं, जो देश विदेश की प्रतिष्ठित पत्रा पत्रिाकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। भूरिया मूलतः स्कालर हैं। वे अध्यवसाय और लेखन के अलावा सामाजिक सांस्कृतिक मोर्चे पर भी वर्षों से सक्रिय हैं।
श्री भानुप्रकाश मूलतः कवि हैं। ÷यहां इस शहर में' नामक एक कविता संग्रह सन्‌ 1994 में मध्य प्रदेश साहित्य परिषद के सहयोग से प्रकाशित है। श्री भानुप्रकाश के पहले कविता संग्रह के आवरण पर राजेश जोशी लिखते हैं किᄉ ''भानुप्रकाश सदी के इस अंतिम दशक की कविता के एक सम्वेदनशील, प्रतिभावान कवि हैं। उनकी कविता में हमारे समय के सबसे भयावह सवालों से आमना सामना करने में किसी तरह की हिचहिचाहट नहीं है। उनके पास एक जाग्रत नागरिकता है और साथ ही अपने आसपास घटित हो रही चीजों और प्रकृति को देखने समझने की एक अद्भुत सूझ भी'' इस अद्भुत सूझ के अलावा भाषा की सादगी, स्थितियों के अंतर्विरोधी स्वरूप को पकड़ने की कोशिश, एक अलग भाषा तलाशने की छटपटाहट आदि अनेक तथ्यों की ओर राजेश जोशी संकेत करते हैं। दरअसल, ये सभी तथ्य और संकेत यह पुष्ट करते हैं कि यदि आदिवासी लेखकों का आगमन अधिक मात्राा में होगा तो हमारा साहित्य, समय और समाज अधिक अनुभव सम्पृक्त होगा।
श्री भानुप्रकाश ने कविता के अलावा अनेक कहानियां भी लिखी हैं। अधिकांश कहानियां प्रकाशित हैं और चंद्रभान ÷राही' के सम्पादन में ÷समकालीन कहानियां, पुस्तक में उपलब्ध भी हैं, परंतु अनेक ऐसे अल्पज्ञात आदिवासी रचनाकार भी हैं जिनका साहित्य में बाकायदा आगमन नहीं हो पाया है। वे अल्पज्ञात या लगभग अज्ञात हैं। अनेक रचनाकार स्वांतःसुखाय की मानसिकता में लिख रहे हैं। इनमें समय और सवाल की कमी भी है। उदाहरण के लिए पंकज लाल बैगा, रूप सिंह कुशराम, विश्वासी तिग्गा, फतेह बहादुर सिंह, छबिल कुमार मेहर, ओमकार ठाकुर, सोहन सिंह डाबर, तरुण दागोड़े, राधेश्याम, डॉ.अंजना मुवैल सोलंकी, डॉ. रामकुमारी धुर्वे, वृजलाल टेकाम, सुक्कल सिंह, प्रेम सिंह डोरिया, दीपक जामनिया, चंदन मोहरे, गोपाल धुरिया, कन्हैया कुमरे, कु. अन्ना माधुरी तिर्की, श्रीराम विलास मीना, शंकरलाल, बालाप्रसाद तेकाम, दादा राम सिंह बड़करे, सुखलाल अंगारे, मीना रावत, डॉ. सुनीता मसराम, भाउ+लाल पारधी, विष्णु सिंह, मंगल सिंह मरकाम, हुकुम सिंह मंडलोई, एस.बी. धारणे आदि अनेक आदिवासी लेखक हैं जो मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में रहते हुए रचनाएं कर रहे हैं।
साहित्य में इन रचनाकारों की सम्यक पहचान होने के लिए, ऐसे रचनाकार जो मात्रा अभ्यास रचनाएं कर रहे हैं, उन्हें जानने के लिए तथा अनेक अज्ञात रचनाकारों की साहित्य के परिदृश्य में उपस्थिति के लिए कई प्रकार के उपक्रम और प्रयास लगातार करने होंगे। मंच, अवसर, वातावरण, साहित्य सान्निध्य, संवाद और गोष्ठी आदि के कायोर्ं तथा रचना शिविरों के माध्यम से आदिवासी लेखकों को समकालीन साहित्य और समय में इस तरह से सक्रिय किया जा सकता है कि साहित्य में आदिवासी लेखकों की उपस्थिति का भरपूर अहसास हो। ।
-------------------------------------
साभार: तद्भव दलित विशेषांक http://www.tadbhav.com/dalit_issue/aadibasi_sahitya.html#adibasi

No comments:

Post a Comment

Please write your comment in the box:
(for typing in Hindi you can use Hindi transliteration box given below to comment box)

Do you like this post ?

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails

लिखिए अपनी भाषा में

Type in Hindi (Press Ctrl+g to toggle between English and Hindi)

Search in Labels Crowd

22 vows in hindi (1) achhut kaun the (1) adivasi sahitya (1) ADMINISTRATION AND FINANCE OF THE EAST INDIA COMPANYby Dr B R Ambedkar (1) ambedar (1) ambedkar (34) ambedkar 119th birth anniversary (2) ambedkar 22 vows (1) ambedkar and gandhi conversation (1) ambedkar and hinduism (1) ambedkar anniversary (2) ambedkar birth anniversary (2) ambedkar books (18) ambedkar chair (1) ambedkar death anniversary (1) Ambedkar in News (1) ambedkar inspiration (1) ambedkar jayanti (3) ambedkar jayanti 2011 (1) ambedkar life (3) ambedkar literature (11) ambedkar movie (3) ambedkar photographs (2) ambedkar pics (3) ambedkar sahitya (10) ambedkar statue (1) ambedkar vs gandhi (2) ambedkar writings (1) ambedkar's book on buddhism (2) ambedkarism (8) ambedkarism books (1) ambedkarism video (1) ambedkarite dalits (2) anand shrikrishna (1) arising light (1) arya vs anarya true history (1) atheist (1) beginners yoga (1) books about ambedkar (1) books from ambedkar.org (10) brahmnism (1) buddha (33) buddha and his dhamma (15) buddha and his dhamma in hindi (2) buddha jayanti (1) buddha or karl marx (1) buddha purnima (2) Buddha vs avatar (1) Buddha vs incarnation (1) buddha's first teaching day (1) Buddham Sharanam Gacchami (1) Buddham Sharanam Gachchhami (1) buddhanet books (6) buddhism (43) buddhism books (18) buddhism conversion (1) buddhism for children (1) buddhism fundamentals (1) buddhism in india (4) buddhism meditation (1) buddhism movies (1) buddhism video (7) buddhist marriage (1) caste annhilation (1) castes in india (1) castism in india (1) chamcha yug (1) charvak (1) Chatrapati Shahu Bhonsle (1) chinese buddhism (1) dalit (2) dalit and buddhism (1) dalit andolan (1) dalit antarvirodh (1) dalit books (1) dalit great persons (1) dalit history (1) dalit issues (2) dalit leaders (1) dalit literature (1) dalit masiha (1) dalit movement (2) dalit movement in Jammu (1) dalit perspectives on Religion (1) dalit politics (1) dalit reformation (1) dalit revolution (1) dalit sahitya (2) dalit thinkers (1) dalits (2) dalits glorious history (1) dalits in India (1) darvin (1) dhamma (16) dhamma Deeksha (2) digital library of India (1) docs (1) Dr Babasaheb - untold truth (1) Dr Babasaheb movie (2) federation vs freedom (1) four sublime states (1) freedom for dalits (1) gandhi vs ambedkar (1) google docs (1) guru purnima (1) hindi posts (8) hindu riddles (1) hinduism (1) in hindi (1) inter-community relations (1) Jabbar Patel movie on Ambedkar (1) jati varna system (1) just be good (1) kanshiram (1) karl marx (1) lenin (1) literature (4) lodr buddha tv (1) lord buddha (1) meditation (9) meditation books (1) meditation video (6) mindfilness (1) navayan (1) news (1) Nyanaponika (1) omprakash valmiki (1) online books about ambedkar (1) pali tripitik (2) parinirvana (1) periyar (1) pics (3) Poona Pact (1) poona pact agreement (1) prakash ambedkar (1) Prof Tulsi Ram (1) quintessence of buddhism (1) ranade gandhi and jinnah (2) sahitya (1) sampradayikta (1) savita ambedkar (1) Sayaji Rao Gaekwar (1) secret buddhism (1) secularism (1) self-realization (1) sukrat (1) Suttasaar (1) swastika (1) teesri azadi movie (1) tipitaka (1) torrent (1) tribute to ambedkar (1) Tripitik (2) untouchables (2) vaisakh purnima (1) video (7) video about ambedkar (1) Vipassana (5) vipassana books (1) vipassana video (3) vipasyana (3) vivek kumar interview (1) well-being (1) what buddha said (13) why buddhism (1) Writings and Speeches (1) Writings and Speeches by Dr B R Ambedkar (11) yoga (5) yoga books (1) yoga DVD (2) yoga meditation (2) yoga video (4) yoga-meditation (9) अम्बेडकर जीवन (1) बुद्ध और उसका धम्म (2) स्वास्तिक (1) हिंदी पोस्ट (24)

Visitors' Map


Visitor Map
Create your own visitor map!

web page counter