दलित सैद्धांतिकी के अंतर्विरोध राजाराम भादू |
इस लेख के शीर्षक में जो पद ÷दलित सैद्धांतिकी' प्रयुक्त किया जा रहा है, इसी से कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है। पहली आपत्ति में तो शायद यही कहा जाऐगा कि ÷दलित सैद्धांतिकी' जैसी कोई चीज नहीं है। इसके प्रत्युत्तर में यदि कहा जाय कि दलित विषयक गम्भीर विचार विमर्श के वैचारिक आधार को ही हम दलित सैद्धांतिकी पद से अभिहित कर रहे हैं तो प्रतिप्रश्न होगा कि ऐसी कोई सैद्धांतिकी अभी विकसित ही नहीं हुई है। समकालीन दलित विमर्श की ओर संकेत करने पर भी कहा जाएगा कि यह किसी सर्वमान्य अथवा ऐसे किसी ठोस वैचारिक आधार पर नहीं टिका है जिसे दलित सैद्धांतिकी पद नाम दिया जा सके। इन्हीं प्रारम्भिक आपत्तियों से इस लेख के शीर्षक का अगला पद समस्याग्रस्त हो जाता है यानी जब ऐसी किसी सैद्धांतिकी का ही वजूद नहीं है तो अंतर्विरोध की बात करने का भला क्या औचित्य है? इन प्रश्न प्रतिप्रश्नों को हम शुरुआत में स्वाभाविक मानते हैं।
यहीं हम इस लेख की कुछ सीमाएं स्पष्ट कर देना चाहते हैं। एक तो यही कि समकालीन दलित विमर्श की वैचारिक पीठिका में कई ऐसे आधार हैं जो इसे एक सैद्धांतिकी प्रदान करने का काम करते हैं। इस विमर्श में हिस्सेदारी करते समय वक्ता/लेखकगण प्रायः यही प्रतीति कराते हैं कि वे एक खास तरह के संवाद में शामिल हैं। एक भिन्न परिप्रेक्ष्य को भी ऐसे संवादों में अनुभव किया जा सकता है। जो लोग इस विमर्श में उत्साह और प्रतिबद्धिता से लगे हैं वे इसकी एक भिन्न सैद्धांतिकी प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं। इसके मुकम्मिल हो जाने का दावा उन्होंने भले ही न किया हो। यह अभियान तभी से शुरू माना जा सकता है जब ÷दलित' पद सामने आया, निश्ष्चय ही इस संदर्भ में प्रयुक्त ÷डिप्रेस्ड' ÷अछूत' ÷शूद्र' और ÷हरिजन' जैसे पद पूर्व पीठिका में सम्मिलित रहेंगे। इस हिसाब से यह अभियान कई दशक की यात्राा पूरी कर चुका है और सैद्धांतिकी के नाम से भले ही इसे प्रस्तुत नहीं किया जाता हो लेकिन सोच की एक धारा तो सामने आ ही रही है। इस मुकाम पर अंतर्विरोध पर चर्चा करना अप्रासांगिक नहीं लगता। लेख की मुख्य सीमा यह है कि इसमें अंतर्विरोधों की ओर इंगित भर किया जा रहा है। निश्चय ही इन संकेतों के पीछे ठोस आधार हैं और आगे चर्चा होने पर इन्हें व्याख्यायित किया जा सकता है। दलित विमर्श के प्रति यहां कोई दुराग्रह नहीं है, आग्रह जरूर है कि इसे आलोचनात्मक विश्लेषण के दायरे में लाया जाय। इसकी मजबूती के लिए हम इसे आवश्यक समझते हैं।
दलित सैद्धांतिकी का एक अंतर्विरोध तो श्रेणीबद्धता को लेकर है। अकादमिक हल्के में इसे वर्ग न मान कर श्रेणी माना जाता है। वर्ग को अकादमिक हल्के में वर्गीकरण की आर्थिक इकाई मानते हैं। दलित को समाजशास्त्राी एक सामाजिक श्रेणी मानते हैं जबकि नृतत्वशास्त्राी इसे सामाजिक सांस्कृतिक श्रेणी स्वीकारते हैं। इसे लेकर भी ज्यादा मतभेद नहीं है कि बहुसंख्य दलित आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग का हिस्सा हैं। जैसा कि पूर्व में कहा गया कि इस श्रेणी को पूर्व में ÷डिप्रेस्ड' (वंचित), अछूत और ÷हरिजन' जैसे नाम दिये गये थे, लेकिन उनके लिए भिन्न भिन्न कारणों से स्वीकृति नहीं बनी। ÷वंचित' में श्रेणी के बहुत व्यापक हो जाने का खतरा था तो ÷अछूत' में सीमित। ÷हरिजन' शब्द से इस श्रेणी से सम्बद्ध लोगों की वैयक्तिक गरिमा प्रभावित होती थी। संविधान में ÷दलित' शब्द भी प्रयुक्त नहीं किया गया। समाज के निचले पायदान पर रहने वाली जातियों की कुछ तयशुदा मापदंडों पर पहचान करके उन्हें सूचीबद्ध किया गया। तदनंतर सामाजिक उत्थान के लिए किये गये संवैधानिक प्रावधानों के लिए अनुसूचित जाति पद प्रयुक्त किया गया है। जबकि सामाजिक रूपांतरण के लिए चले आंदोलन ऐसे समुदायों के लिए दलित पद इस्तेमाल करते रहे हैं।
इस प्रकार हम पाते हैं कि दलित श्रेणी हिन्दू धर्म समाज के पदानुक्रम में निचले पायदान पर मानी जाने वाली कुछ जातियों का समुच्चय है। जिस अंतर्विरोध की हम बात कर रहे हैं, वह इस समुच्चय की प्रकृति और स्वरूप को लेकर है। इन जातियों में ऐसी कोई समरूपताएं नहीं हैं जिन्हें आसानी से सामान्यीकृत किया जा सके। पारम्परिक रूप से हिन्दू धर्म समाज में अछूत माना जाना एक समरूपता हो सकती थी लेकिन जैसा कि पहले उल्लेख किया गया, इससे घेरा छोटा हो जाता है। इसके चलते कई और अछूत जातियां भी इस समुच्चय में शामिल हैं। इधर यह देखा गया है कि कई जाति समुदायों के प्रति दलित नेतृत्व समावेशी नहीं है जबकि ये जातियां संविधान में वर्णित अनुसूचित जाति में आती हैं। दलित नेतृत्व पर प्रायः ये आरोप भी लगता रहता है कि वह किसी जाति विशेष के प्रति पूर्वाग्रह ग्रस्त है। क्षेत्राीय आधार पर भी दलित आंदोलन में जाति विशेष के वर्चस्व की शिकायतें की जाती हैं। दलित श्रेणी समुच्चय में शामिल जाति समुदायों की आर्थिक ही नहीं सामाजिक सांस्कृतिक स्थितियों में भी अंतर्भेद और अंतद्वर्ंद्व हैं जो इस श्रेणी समुच्चय को समस्याग्रस्त कर देते हैं। जबकि विमर्श की प्रक्रिया में यह देखने में नहीं आता कि कहीं इस समस्या को सम्बोधित करने का प्रयत्न किया जा रहा हो।
दलित विमर्श का हिन्दू वर्णव्यवस्था से गहरा सम्बंध है। यह विमर्श इस व्यवस्था के प्रति आक्रामक और आलोचनात्मक है जो कि सर्वथा उचित है। इस आलोचना के प्रस्थानबिन्दु के तौर पर हिन्दू वर्ण व्यवस्था के उद्गम तथा शूद्रों की उत्पत्ति के लिए पौराणिक आख्यानों और तथाकथित ऐतिहासिक वृत्तांतों की व्याख्याएं प्रस्तुत की जाती हैं। इस मामले में एक अंतर्विरोध तो अप्रोच को लेकर है। दलित विमर्शकार पौराणिक आख्यानों को ऐतिहासिक मान कर चलते हैं। इसी तरह वे किसी भी प्राचीन मध्यकालीन वृत्तांतों की ऐतिहासिकता जांचने का कोई वैज्ञानिक उपक्रम नहीं करते। यह वैसी ही गड़बड़ी है जैसा साम्प्रदायिक तत्व करते रहते हैं। ऐसे में इस उद्यम के भिन्न नतीजों की उम्मीद कैसे की जा सकती है।
इस प्रसंग में दूसरा अंतर्विरोध विषयवस्तु को लेकर है। डॉ. आम्बेडकर अपनी पुस्तक ÷शूद्रों की खोज' (हिन्दी संस्करण, प्रोग्रेसिव पब्लिशर, नागपुर) के सातवें अध्याय के आरम्भ में ही यह स्थापना देते हैं, ÷यह सिद्ध हो चुका कि शूद्र अनार्य नहीं हैं। तो वे क्या हैं?' इसका उत्तर निम्नलिखित हैᄉ
1. शूद्र आर्य हैं।
2. शूद्र क्षत्रिाय हैं।
3. शूद्रों का स्थान क्षत्रिायों में उच्च था क्योंकि प्राचीन काल में कई तेजस्वी और बलशाली राजा शूद्र थे।
इस स्थापना के बाद वे आगे लिखते हैं यह मत इतना अनोखा है कि इसे बिना प्रमाण लोग मानने को तैयार न होंगे। अतएव अब प्रमाण की जांच की जाये। डॉ. आम्बेडकर अपनी स्थापना के पक्ष में प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। इसी पुस्तक के पिछले अध्यायों में भी वे कई संदर्भित प्रमाण देते हैं। इनके विस्तार में जाने की यहां आवश्यकता नहीं है।
दूसरी ओर ऐसे दर्जनों दलित चिन्तक लेखक हैं जो शूद्रों को अनार्य, दस्यु, द्रविड़, शक या हूणों से जोड़ते हैं और आयोर्ं का प्रतिद्वंद्वी ठहराते हैं (उदाहरण के लिए ÷आर्य अनार्य वंश कथा'ᄉ के. नाथ, धर्म निरपेक्षता बनाम साम्प्रदायिकता' एस.एल. सागर और ÷जाति तोड़ो' चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु)। विडम्बना यह है कि ऐसे सभी लेखक चिन्तक डॉ. आम्बेडकर के कृतित्व के प्रति न केवल सम्मान भाव रखते हैं बल्कि उससे प्रेरणा पाने का उल्लेख करते हैं। फिर इन परस्पर विरोधी अवधारणाओं को कैसे लिया जाय और इसकी तार्किक निष्पत्ति क्या हो सकती है? सृष्टि, वर्णव्यवस्था या जाति विशेष की उत्पत्ति को लेकर भारत के लगभग हर जाति समुदाय में कुछ किवदंतियां या दंत कथाएं प्रचलित हैं। डॉ. आम्बेडकर देश में चार हजार जातियां होने का उल्लेख करते हैं। इनमें से अधिसंख्य वंचित जातियां हैं। इनमें परस्पर सूक्ष्म सांस्कृतिक भिन्नताएं हैं। इनके रीति रिवाज, अनुष्ठान, मूल्य मान्यताओं और लोक आख्यानों के कुछ विश्लेषण सामने आये हैं। वे दलित अंतर्भेद के कई स्तरों को उद्घटित करते हैं।
इसी से सम्बद्ध एक सवाल और है। यदि शूद्र भी आर्य हैं अथवा शूद्र द्रविड़, शक या हूण हैं तो आदिवासी कौन है? आदिवासी विमर्श का दौर भी आरम्भ हो चुका है। वे भी अपनी उत्पत्ति के उत्सों को खोज रहे हैं। इस सिलसिले में एक मान्यता यह उभर रही है कि आयोर्ं के आक्रमण के बाद जो दास बना लिए गये वे शूद्र हैं और जो जंगलों में भाग गये वे आदिवासी हैं। इस क्रम में आदिवासी समुदाय को भी समरूप मानने की गलती की जा रही है जबकि कई आदिवासी समुदायों के रिश्ते विद्वेषपूर्ण हैं और उनमें गहरे सांस्कृतिक विभेद हैं।
पौराणिक आख्यान और अनैतिहासिक वृत्तांतों को सांस्कृतिक पाठ ;ज्मगजद्ध के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है। इनमें से कुछ इतिहास की स्रोत सामग्री के रूप में प्रयुक्त हो सकते हैं। ऐसा करने पर जो निष्कर्ष आये हैं, उनसे हिन्दू वर्णव्यवस्था का महिमा मंडन नहीं होता बल्कि उसकी अमानवीयता और क्रूरता ही सामने आती है। रोमिला थापर, रामशरण शर्मा और डी.डी. कोशम्बी जैसे आधुनिक इतिहासकारों के विश्लेषण इसका प्रमाण हैं किन्तु दलित विमर्शकार प्रायः अपने लेखन में इनके कामों से संदर्भ नहीं देते। वर्णव्यवस्था को लेकर गांधी जी के साथ डॉ. आम्बेडकर की जो बहस है और इसमें वे वणोर्ं के बीच जिस ÷अशुद्ध सम्बंध' को रेखांकित करते हैं, वह इधर भी कई विद्वानों द्वारा रेखांकित किया जाता रहा है। यह भी सही है कि सांस्कृतिक प्रतिरोध के लिए पूर्ववर्ती सांस्कृतिक विषयवस्तु ;ज्मगजद्ध का नया पाठ और विश्लेषण करने की आवश्यकता है। लेकिन हम ऐसी विषयवस्तु रच नहीं सकते और व्याख्या में अतिरंजित नहीं हो सकते।
धर्म एक पूर्व सामंती संरचना है और सामंतवाद के दौर में संस्थागत धर्म ने उसकी भेदमूलक शक्ति संरचना को वैधता प्रदान करने की भूमिका अदा की है। हिन्दू धर्म की वर्णव्यवस्था के बारे में भूमिका का भी यही परिप्रेक्ष्य है। बेशक, बौद्ध धर्म अपने आरम्भिक दौर में क्रांतिकारी तेवर लिए था किन्तु इस ऐतिहासिक सच्चाई को भी नकारा नहीं जा सकता कि इसने संस्थागत रूढ़ स्वरूप अख्तियार किया और सामंती सत्ताओं से अपने रिश्ते कायम किये। डॉ. आम्बेडकर जब यह घोषणा करते हैं कि वे हिन्दू धर्म में पैदा भले ही हुए हों लेकिन वे इसमें मरेंगे नहीं तो इसमें धर्म के प्रति उनका आलोचनात्मक रुख नहीं व्यक्त होता बल्कि हिन्दू धर्म से बैर भाव जाहिर होता है। इसकी अनुगूंजें पूना पैक्ट से पहले के उनके लेखों व बहस में सुनी जा सकती हैं। धर्म के प्रति रुख दलित सैद्धांतिकी का एक प्रमुख अंतर्विरोध है। भले ही डॉ. आम्बेडकर ने कितने ही समर्थकों के साथ धर्म परिवर्तन किया हो, उसके बाद भी दलित समूह धर्मान्तरण करते रहे हों, उनका धार्मिक नजरिया बहुत स्पष्टता से सामने नहीं आता। एक चीज साफ है कि वे हिन्दू धर्म में अपने दर्जे के प्रति अंसतोष के कारण ऐसा करते हैं। लेकिन ईसाई, इस्लाम अथवा बौद्ध हो जाने के बाद भी वे अलगाये जाते हैं। सबसे क्रांतिकारी मान कर अपनाये गये बौद्ध धर्म में भी वे ÷नव बौद्ध' की भेदपरक पहचान रखते हैं। मौजूदा दलित बौद्ध इस धर्म के सम्प्रदायों हीनयान व महायान, इसकी चिन्तन धाराओं और एक हद तक इसके साहित्य से प्रायः अनभिज्ञ हैं। बल्कि उन्होंने बौद्ध धर्म के नाम पर कुछ खास अनुष्ठान और कर्मकांडों को भी अपना लिया है।
दलित सैद्धांतिकी में धर्म की बात यहीं खत्म नहीं होती। डॉ. धर्मवीर और कंवल भारती अलग दलित धर्म की बात करते हैं और उसकी कुछ विशिष्ट अभिलक्षणाओं तथा तत्वों को वर्गीकृत करते हैं (देखेंᄉ दलित धर्म की अवधारणा और बौद्ध धर्म, कंवल भारती, कदम, दिल्ली)। कंवल भारती तो दलितों को वर्ण व्यवस्था से बाहर अर्थात ÷पंचम' या अति शूद्र मानते हुए कहते हैं कि वे हिन्दू ही नहीं हैं। कतिपय ईसाई मिशनरी आदिवासियों के बारे में भी यही कहते हैं। अंतर्विरोध यह है कि अभी भी बहुसंख्य दलित हिन्दू धर्म में शामिल हैं। वे हिन्दू धर्म की मुख्यधारा में शामिल होना चाहते हैं। हिन्दूवादी संघ उनकी इस आकांक्षा का दोहन करके उन्हें बावरी मस्जिद ध्वंस और गुजरात 2002 जैसी कार्यवाहियों में इस्तेमाल करते हैंं। इस परिघटना के व्याख्याकार समाजशास्त्राी एम.एन. श्रीनिवासन से अपने को सहमत पाते हैं और इसे संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के रूप में मानते हैं।
पूना पैक्ट से पहले डॉ. आम्बेडकर ने दलितों को हिन्दुओं से अलगाने और उनके लिए पृथक निर्वाचन प्रणाली विकसित करने की जोरदार पैरवी की थी। कुछ साल पहले डरबन में हुए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में दलितों के प्रति भेदभाव को वैश्विक स्तर पर नस्लभेद की श्रेणी में रखने के लिए भी पैरवी की गयी। लेकिन ऐसे पैरोकार अल्पमत में ही रहे। बहुसंख्य दलितों ने इन मार्गों का कोई खास समर्थन नहीं किया। इस पर भी दलित सैद्धांतिकी धर्म विषयक मामलों को किसी नयी दृष्टि से देखने के प्रति उत्सुक नहीं दिखाई देती। इस मामले में धर्म के प्रति नारीवादी ;ळमदकमतद्ध नजरिये से काफी सीख की गुंजाइश हो सकती है, ऐसा हमें लगता है।
दलित राजनीति और दलित सैद्धांतिकी के बीच बड़ा अंतर्विरोध है। इनके द्वंद्व को समझना भी मुश्किल है। दलित राजनीति मौजूदा दलित विमर्श का अनुकरण कर रही है अथवा इसके उलट हो रहा है, कहना मुश्किल है। इसके ठोस ही नहीं मूर्त उदाहरण हैं। दलित सैद्धांतिकी अभी भी ब्राह्मणवाद विरोध के आधार पर खड़ी है जबकि उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी, जो उत्तर भारत में दलित राजनीति की नुमाइंदगी करती है, ब्राह्मण जाति के सहमेल से सत्ता में पहुंची है। बहुजन के नारे से दलित राजनीति सत्ता तक नहीं पहुुंची, उसने सर्वजन का नारा दिया। फिर हाथी नहीं गणेश हो गये। स्व. कांशीराम अवसरवाद को दलित राजनीति की मुख्य राजनीति मानते थे। ऐसे में बुद्ध को भी हिन्दू अवतार माना जा सकता है।
दलित विमर्श स्वातंत्रय आंदोलन और नवजागरण के दौर में जाति भेद के विरुद्ध उभरे आंदोलन को लगभग नजरअंदाज करता है। इस दौर में ब्राह्मणवाद के आलोचक आर्य समाज को सुधारवादी कह कर खारिज करता है। मार्क्सवादी और आधुनिक चिन्तक व इतिहासकारों ने भारत में सांस्कृतिक प्रतिरोध की जो लोकायत, बुद्ध और जैन धर्म से प्रणीत प्रति संस्कृति, संत परम्परा को रेखांकित किया, उसे दोहराते हुए भी उन्हें श्रेय देने से बचता है। दूसरी ओर इस तथ्य से आंखें चुराता है कि दलित जाति समुदायों में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो हिन्दू आख्यानों, मूल्य मान्यताओं और विश्वासों को गहरे आत्मसात किये हुए हैं। उनके लिए हिन्दुओं को ÷अन्य' के रूप में प्रस्तुत करना सहज नहीं है।
दलितों में सक्रिय सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं द्वारा रची गयी लोकप्रिय पुस्तिकाओं, गीतों व आख्यानों में वैज्ञानिक इतिहास दृष्टि, वस्तुपरकता और प्रमाणिकता का अक्सर अभाव पाया जाता है। ये दलित सैद्धांतिकी के सह उत्पाद भी नहीं लगते। इनका मुख्य स्वर ÷अन्य' (सवर्ण हिन्दू) के प्रति घृणा है। प्रायः संघर्ष में घृणा को जायज ठहराया जाता है लेकिन यदि हम जाति व्यवस्था का उन्मूलन करना चाहते हैं तो घृणा से क्या अर्जित कर सकते हैं।
सवाल अंततः दलित सैद्धांतिकी के दर्शन से जुड़ा है। इसका ध्येय दलितों को एक पृथक श्रेणी के रूप में स्थापित करना है जिसके कारण इस श्रेणी के सशक्त होने की आवश्यकता सामने आयी है। भारत के संविधान की रोशनी में देखें तो लोकतांत्रिाक समाज व्यवस्था के लिए जाति का उन्मूलन एक अनिवार्यता है। इसके लिए समाज को समावेशी और बहुलतावादी बनाना होगा। यदि हम दलित श्रेणी की स्वतंत्रा अस्मिता की बात करेंगे तो इसकी जगह जाति केन्द्रित अस्मिताएं विकसित होंगी। और फिर आदिवासी अस्मिता का क्या करेंगे जो संख्या में दलितों से भले ही थोड़ी कम हो, देशव्यापी उपस्थिति रखती है। उसकी वंचना का इतिहास भले ही कम कष्टकर रहा हो लेकिन सदियों पुराना है और उनके लिए भी सामाजिक न्याय उतना ही है।
यह देखना दिलचस्प है कि कांग्रेस के एजेण्डा में दलितों का मुद्दा 1917 में शामिल हुआ। स्व. कांशीराम अपनी पुस्तक ÷चमचा युग' में उन तथ्यों का बयान करते हैं जिनके चलते कांग्रेस इस एजेण्डा को अपनाने के लिए मजबूर हुई। इन तथ्यों में उस समय के दलित उभार की घटनाएं भी शामिल हैं। 1917 में ही बम्बई में दो अलग अलग सभापतियों की अध्यक्षता में दलित वगोर्ं की दो सभाएं हुईं। इनमें से पहली सभा 11 नवम्बर, 1917 को सर नारायण चंद्रापरकर और दूसरी इसके एक सप्ताह बाद बापू जी नामदेव वागडे की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई। इन सभाओं में दलित समुदाय की अनेक मांगों को लेकर प्रस्ताव पारित किये गये। इनमें एक प्रस्ताव अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा को लेकर था जो दोनों सभाओं में पारित किया गया था। आगे हम देखते हैं कि दलित आंदोलन ने ऐसे मुद्दों पर जोर देना कम कर दिया जो सामाजिक परिवर्तन के बुनियादी आधारों को प्रभावित करते।
दलित सैद्धांतिकी के अंतर्विरोधों की चूंकि अनदेखी की जाती रही है, इसलिए इस ओर इंगित करना हमने प्रासंगिक माना है। दलित विमर्श के प्रति निष्क्रिय किस्म की पक्षधरता का रुख इधर समझदारी माना जाता है और इसे पालिटिकली करेक्ट होने का तकाजा समझा जाता है। ऐसे में हमें अनुमान है कि कुछ लोगों को ये टिप्पणियां अच्छी नहीं लगेंगी। इन्हें लेकर असहमतियां हो सकती हैं, एतराज हो सकते हैं, बेशक कुछ बातें गलत सिद्ध हो सकती हैं किन्तु दलित सैद्धांतिकी के प्रति आलोचनात्मक रवैया और खुलापन इसके लिए किसी भी प्रकार से अहितकर नहीं है, यह हमारी विनम्र धारणा है।
यहीं हम इस लेख की कुछ सीमाएं स्पष्ट कर देना चाहते हैं। एक तो यही कि समकालीन दलित विमर्श की वैचारिक पीठिका में कई ऐसे आधार हैं जो इसे एक सैद्धांतिकी प्रदान करने का काम करते हैं। इस विमर्श में हिस्सेदारी करते समय वक्ता/लेखकगण प्रायः यही प्रतीति कराते हैं कि वे एक खास तरह के संवाद में शामिल हैं। एक भिन्न परिप्रेक्ष्य को भी ऐसे संवादों में अनुभव किया जा सकता है। जो लोग इस विमर्श में उत्साह और प्रतिबद्धिता से लगे हैं वे इसकी एक भिन्न सैद्धांतिकी प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं। इसके मुकम्मिल हो जाने का दावा उन्होंने भले ही न किया हो। यह अभियान तभी से शुरू माना जा सकता है जब ÷दलित' पद सामने आया, निश्ष्चय ही इस संदर्भ में प्रयुक्त ÷डिप्रेस्ड' ÷अछूत' ÷शूद्र' और ÷हरिजन' जैसे पद पूर्व पीठिका में सम्मिलित रहेंगे। इस हिसाब से यह अभियान कई दशक की यात्राा पूरी कर चुका है और सैद्धांतिकी के नाम से भले ही इसे प्रस्तुत नहीं किया जाता हो लेकिन सोच की एक धारा तो सामने आ ही रही है। इस मुकाम पर अंतर्विरोध पर चर्चा करना अप्रासांगिक नहीं लगता। लेख की मुख्य सीमा यह है कि इसमें अंतर्विरोधों की ओर इंगित भर किया जा रहा है। निश्चय ही इन संकेतों के पीछे ठोस आधार हैं और आगे चर्चा होने पर इन्हें व्याख्यायित किया जा सकता है। दलित विमर्श के प्रति यहां कोई दुराग्रह नहीं है, आग्रह जरूर है कि इसे आलोचनात्मक विश्लेषण के दायरे में लाया जाय। इसकी मजबूती के लिए हम इसे आवश्यक समझते हैं।
दलित सैद्धांतिकी का एक अंतर्विरोध तो श्रेणीबद्धता को लेकर है। अकादमिक हल्के में इसे वर्ग न मान कर श्रेणी माना जाता है। वर्ग को अकादमिक हल्के में वर्गीकरण की आर्थिक इकाई मानते हैं। दलित को समाजशास्त्राी एक सामाजिक श्रेणी मानते हैं जबकि नृतत्वशास्त्राी इसे सामाजिक सांस्कृतिक श्रेणी स्वीकारते हैं। इसे लेकर भी ज्यादा मतभेद नहीं है कि बहुसंख्य दलित आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग का हिस्सा हैं। जैसा कि पूर्व में कहा गया कि इस श्रेणी को पूर्व में ÷डिप्रेस्ड' (वंचित), अछूत और ÷हरिजन' जैसे नाम दिये गये थे, लेकिन उनके लिए भिन्न भिन्न कारणों से स्वीकृति नहीं बनी। ÷वंचित' में श्रेणी के बहुत व्यापक हो जाने का खतरा था तो ÷अछूत' में सीमित। ÷हरिजन' शब्द से इस श्रेणी से सम्बद्ध लोगों की वैयक्तिक गरिमा प्रभावित होती थी। संविधान में ÷दलित' शब्द भी प्रयुक्त नहीं किया गया। समाज के निचले पायदान पर रहने वाली जातियों की कुछ तयशुदा मापदंडों पर पहचान करके उन्हें सूचीबद्ध किया गया। तदनंतर सामाजिक उत्थान के लिए किये गये संवैधानिक प्रावधानों के लिए अनुसूचित जाति पद प्रयुक्त किया गया है। जबकि सामाजिक रूपांतरण के लिए चले आंदोलन ऐसे समुदायों के लिए दलित पद इस्तेमाल करते रहे हैं।
इस प्रकार हम पाते हैं कि दलित श्रेणी हिन्दू धर्म समाज के पदानुक्रम में निचले पायदान पर मानी जाने वाली कुछ जातियों का समुच्चय है। जिस अंतर्विरोध की हम बात कर रहे हैं, वह इस समुच्चय की प्रकृति और स्वरूप को लेकर है। इन जातियों में ऐसी कोई समरूपताएं नहीं हैं जिन्हें आसानी से सामान्यीकृत किया जा सके। पारम्परिक रूप से हिन्दू धर्म समाज में अछूत माना जाना एक समरूपता हो सकती थी लेकिन जैसा कि पहले उल्लेख किया गया, इससे घेरा छोटा हो जाता है। इसके चलते कई और अछूत जातियां भी इस समुच्चय में शामिल हैं। इधर यह देखा गया है कि कई जाति समुदायों के प्रति दलित नेतृत्व समावेशी नहीं है जबकि ये जातियां संविधान में वर्णित अनुसूचित जाति में आती हैं। दलित नेतृत्व पर प्रायः ये आरोप भी लगता रहता है कि वह किसी जाति विशेष के प्रति पूर्वाग्रह ग्रस्त है। क्षेत्राीय आधार पर भी दलित आंदोलन में जाति विशेष के वर्चस्व की शिकायतें की जाती हैं। दलित श्रेणी समुच्चय में शामिल जाति समुदायों की आर्थिक ही नहीं सामाजिक सांस्कृतिक स्थितियों में भी अंतर्भेद और अंतद्वर्ंद्व हैं जो इस श्रेणी समुच्चय को समस्याग्रस्त कर देते हैं। जबकि विमर्श की प्रक्रिया में यह देखने में नहीं आता कि कहीं इस समस्या को सम्बोधित करने का प्रयत्न किया जा रहा हो।
दलित विमर्श का हिन्दू वर्णव्यवस्था से गहरा सम्बंध है। यह विमर्श इस व्यवस्था के प्रति आक्रामक और आलोचनात्मक है जो कि सर्वथा उचित है। इस आलोचना के प्रस्थानबिन्दु के तौर पर हिन्दू वर्ण व्यवस्था के उद्गम तथा शूद्रों की उत्पत्ति के लिए पौराणिक आख्यानों और तथाकथित ऐतिहासिक वृत्तांतों की व्याख्याएं प्रस्तुत की जाती हैं। इस मामले में एक अंतर्विरोध तो अप्रोच को लेकर है। दलित विमर्शकार पौराणिक आख्यानों को ऐतिहासिक मान कर चलते हैं। इसी तरह वे किसी भी प्राचीन मध्यकालीन वृत्तांतों की ऐतिहासिकता जांचने का कोई वैज्ञानिक उपक्रम नहीं करते। यह वैसी ही गड़बड़ी है जैसा साम्प्रदायिक तत्व करते रहते हैं। ऐसे में इस उद्यम के भिन्न नतीजों की उम्मीद कैसे की जा सकती है।
इस प्रसंग में दूसरा अंतर्विरोध विषयवस्तु को लेकर है। डॉ. आम्बेडकर अपनी पुस्तक ÷शूद्रों की खोज' (हिन्दी संस्करण, प्रोग्रेसिव पब्लिशर, नागपुर) के सातवें अध्याय के आरम्भ में ही यह स्थापना देते हैं, ÷यह सिद्ध हो चुका कि शूद्र अनार्य नहीं हैं। तो वे क्या हैं?' इसका उत्तर निम्नलिखित हैᄉ
1. शूद्र आर्य हैं।
2. शूद्र क्षत्रिाय हैं।
3. शूद्रों का स्थान क्षत्रिायों में उच्च था क्योंकि प्राचीन काल में कई तेजस्वी और बलशाली राजा शूद्र थे।
इस स्थापना के बाद वे आगे लिखते हैं यह मत इतना अनोखा है कि इसे बिना प्रमाण लोग मानने को तैयार न होंगे। अतएव अब प्रमाण की जांच की जाये। डॉ. आम्बेडकर अपनी स्थापना के पक्ष में प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। इसी पुस्तक के पिछले अध्यायों में भी वे कई संदर्भित प्रमाण देते हैं। इनके विस्तार में जाने की यहां आवश्यकता नहीं है।
दूसरी ओर ऐसे दर्जनों दलित चिन्तक लेखक हैं जो शूद्रों को अनार्य, दस्यु, द्रविड़, शक या हूणों से जोड़ते हैं और आयोर्ं का प्रतिद्वंद्वी ठहराते हैं (उदाहरण के लिए ÷आर्य अनार्य वंश कथा'ᄉ के. नाथ, धर्म निरपेक्षता बनाम साम्प्रदायिकता' एस.एल. सागर और ÷जाति तोड़ो' चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु)। विडम्बना यह है कि ऐसे सभी लेखक चिन्तक डॉ. आम्बेडकर के कृतित्व के प्रति न केवल सम्मान भाव रखते हैं बल्कि उससे प्रेरणा पाने का उल्लेख करते हैं। फिर इन परस्पर विरोधी अवधारणाओं को कैसे लिया जाय और इसकी तार्किक निष्पत्ति क्या हो सकती है? सृष्टि, वर्णव्यवस्था या जाति विशेष की उत्पत्ति को लेकर भारत के लगभग हर जाति समुदाय में कुछ किवदंतियां या दंत कथाएं प्रचलित हैं। डॉ. आम्बेडकर देश में चार हजार जातियां होने का उल्लेख करते हैं। इनमें से अधिसंख्य वंचित जातियां हैं। इनमें परस्पर सूक्ष्म सांस्कृतिक भिन्नताएं हैं। इनके रीति रिवाज, अनुष्ठान, मूल्य मान्यताओं और लोक आख्यानों के कुछ विश्लेषण सामने आये हैं। वे दलित अंतर्भेद के कई स्तरों को उद्घटित करते हैं।
इसी से सम्बद्ध एक सवाल और है। यदि शूद्र भी आर्य हैं अथवा शूद्र द्रविड़, शक या हूण हैं तो आदिवासी कौन है? आदिवासी विमर्श का दौर भी आरम्भ हो चुका है। वे भी अपनी उत्पत्ति के उत्सों को खोज रहे हैं। इस सिलसिले में एक मान्यता यह उभर रही है कि आयोर्ं के आक्रमण के बाद जो दास बना लिए गये वे शूद्र हैं और जो जंगलों में भाग गये वे आदिवासी हैं। इस क्रम में आदिवासी समुदाय को भी समरूप मानने की गलती की जा रही है जबकि कई आदिवासी समुदायों के रिश्ते विद्वेषपूर्ण हैं और उनमें गहरे सांस्कृतिक विभेद हैं।
पौराणिक आख्यान और अनैतिहासिक वृत्तांतों को सांस्कृतिक पाठ ;ज्मगजद्ध के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है। इनमें से कुछ इतिहास की स्रोत सामग्री के रूप में प्रयुक्त हो सकते हैं। ऐसा करने पर जो निष्कर्ष आये हैं, उनसे हिन्दू वर्णव्यवस्था का महिमा मंडन नहीं होता बल्कि उसकी अमानवीयता और क्रूरता ही सामने आती है। रोमिला थापर, रामशरण शर्मा और डी.डी. कोशम्बी जैसे आधुनिक इतिहासकारों के विश्लेषण इसका प्रमाण हैं किन्तु दलित विमर्शकार प्रायः अपने लेखन में इनके कामों से संदर्भ नहीं देते। वर्णव्यवस्था को लेकर गांधी जी के साथ डॉ. आम्बेडकर की जो बहस है और इसमें वे वणोर्ं के बीच जिस ÷अशुद्ध सम्बंध' को रेखांकित करते हैं, वह इधर भी कई विद्वानों द्वारा रेखांकित किया जाता रहा है। यह भी सही है कि सांस्कृतिक प्रतिरोध के लिए पूर्ववर्ती सांस्कृतिक विषयवस्तु ;ज्मगजद्ध का नया पाठ और विश्लेषण करने की आवश्यकता है। लेकिन हम ऐसी विषयवस्तु रच नहीं सकते और व्याख्या में अतिरंजित नहीं हो सकते।
धर्म एक पूर्व सामंती संरचना है और सामंतवाद के दौर में संस्थागत धर्म ने उसकी भेदमूलक शक्ति संरचना को वैधता प्रदान करने की भूमिका अदा की है। हिन्दू धर्म की वर्णव्यवस्था के बारे में भूमिका का भी यही परिप्रेक्ष्य है। बेशक, बौद्ध धर्म अपने आरम्भिक दौर में क्रांतिकारी तेवर लिए था किन्तु इस ऐतिहासिक सच्चाई को भी नकारा नहीं जा सकता कि इसने संस्थागत रूढ़ स्वरूप अख्तियार किया और सामंती सत्ताओं से अपने रिश्ते कायम किये। डॉ. आम्बेडकर जब यह घोषणा करते हैं कि वे हिन्दू धर्म में पैदा भले ही हुए हों लेकिन वे इसमें मरेंगे नहीं तो इसमें धर्म के प्रति उनका आलोचनात्मक रुख नहीं व्यक्त होता बल्कि हिन्दू धर्म से बैर भाव जाहिर होता है। इसकी अनुगूंजें पूना पैक्ट से पहले के उनके लेखों व बहस में सुनी जा सकती हैं। धर्म के प्रति रुख दलित सैद्धांतिकी का एक प्रमुख अंतर्विरोध है। भले ही डॉ. आम्बेडकर ने कितने ही समर्थकों के साथ धर्म परिवर्तन किया हो, उसके बाद भी दलित समूह धर्मान्तरण करते रहे हों, उनका धार्मिक नजरिया बहुत स्पष्टता से सामने नहीं आता। एक चीज साफ है कि वे हिन्दू धर्म में अपने दर्जे के प्रति अंसतोष के कारण ऐसा करते हैं। लेकिन ईसाई, इस्लाम अथवा बौद्ध हो जाने के बाद भी वे अलगाये जाते हैं। सबसे क्रांतिकारी मान कर अपनाये गये बौद्ध धर्म में भी वे ÷नव बौद्ध' की भेदपरक पहचान रखते हैं। मौजूदा दलित बौद्ध इस धर्म के सम्प्रदायों हीनयान व महायान, इसकी चिन्तन धाराओं और एक हद तक इसके साहित्य से प्रायः अनभिज्ञ हैं। बल्कि उन्होंने बौद्ध धर्म के नाम पर कुछ खास अनुष्ठान और कर्मकांडों को भी अपना लिया है।
दलित सैद्धांतिकी में धर्म की बात यहीं खत्म नहीं होती। डॉ. धर्मवीर और कंवल भारती अलग दलित धर्म की बात करते हैं और उसकी कुछ विशिष्ट अभिलक्षणाओं तथा तत्वों को वर्गीकृत करते हैं (देखेंᄉ दलित धर्म की अवधारणा और बौद्ध धर्म, कंवल भारती, कदम, दिल्ली)। कंवल भारती तो दलितों को वर्ण व्यवस्था से बाहर अर्थात ÷पंचम' या अति शूद्र मानते हुए कहते हैं कि वे हिन्दू ही नहीं हैं। कतिपय ईसाई मिशनरी आदिवासियों के बारे में भी यही कहते हैं। अंतर्विरोध यह है कि अभी भी बहुसंख्य दलित हिन्दू धर्म में शामिल हैं। वे हिन्दू धर्म की मुख्यधारा में शामिल होना चाहते हैं। हिन्दूवादी संघ उनकी इस आकांक्षा का दोहन करके उन्हें बावरी मस्जिद ध्वंस और गुजरात 2002 जैसी कार्यवाहियों में इस्तेमाल करते हैंं। इस परिघटना के व्याख्याकार समाजशास्त्राी एम.एन. श्रीनिवासन से अपने को सहमत पाते हैं और इसे संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के रूप में मानते हैं।
पूना पैक्ट से पहले डॉ. आम्बेडकर ने दलितों को हिन्दुओं से अलगाने और उनके लिए पृथक निर्वाचन प्रणाली विकसित करने की जोरदार पैरवी की थी। कुछ साल पहले डरबन में हुए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में दलितों के प्रति भेदभाव को वैश्विक स्तर पर नस्लभेद की श्रेणी में रखने के लिए भी पैरवी की गयी। लेकिन ऐसे पैरोकार अल्पमत में ही रहे। बहुसंख्य दलितों ने इन मार्गों का कोई खास समर्थन नहीं किया। इस पर भी दलित सैद्धांतिकी धर्म विषयक मामलों को किसी नयी दृष्टि से देखने के प्रति उत्सुक नहीं दिखाई देती। इस मामले में धर्म के प्रति नारीवादी ;ळमदकमतद्ध नजरिये से काफी सीख की गुंजाइश हो सकती है, ऐसा हमें लगता है।
दलित राजनीति और दलित सैद्धांतिकी के बीच बड़ा अंतर्विरोध है। इनके द्वंद्व को समझना भी मुश्किल है। दलित राजनीति मौजूदा दलित विमर्श का अनुकरण कर रही है अथवा इसके उलट हो रहा है, कहना मुश्किल है। इसके ठोस ही नहीं मूर्त उदाहरण हैं। दलित सैद्धांतिकी अभी भी ब्राह्मणवाद विरोध के आधार पर खड़ी है जबकि उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी, जो उत्तर भारत में दलित राजनीति की नुमाइंदगी करती है, ब्राह्मण जाति के सहमेल से सत्ता में पहुंची है। बहुजन के नारे से दलित राजनीति सत्ता तक नहीं पहुुंची, उसने सर्वजन का नारा दिया। फिर हाथी नहीं गणेश हो गये। स्व. कांशीराम अवसरवाद को दलित राजनीति की मुख्य राजनीति मानते थे। ऐसे में बुद्ध को भी हिन्दू अवतार माना जा सकता है।
दलित विमर्श स्वातंत्रय आंदोलन और नवजागरण के दौर में जाति भेद के विरुद्ध उभरे आंदोलन को लगभग नजरअंदाज करता है। इस दौर में ब्राह्मणवाद के आलोचक आर्य समाज को सुधारवादी कह कर खारिज करता है। मार्क्सवादी और आधुनिक चिन्तक व इतिहासकारों ने भारत में सांस्कृतिक प्रतिरोध की जो लोकायत, बुद्ध और जैन धर्म से प्रणीत प्रति संस्कृति, संत परम्परा को रेखांकित किया, उसे दोहराते हुए भी उन्हें श्रेय देने से बचता है। दूसरी ओर इस तथ्य से आंखें चुराता है कि दलित जाति समुदायों में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो हिन्दू आख्यानों, मूल्य मान्यताओं और विश्वासों को गहरे आत्मसात किये हुए हैं। उनके लिए हिन्दुओं को ÷अन्य' के रूप में प्रस्तुत करना सहज नहीं है।
दलितों में सक्रिय सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं द्वारा रची गयी लोकप्रिय पुस्तिकाओं, गीतों व आख्यानों में वैज्ञानिक इतिहास दृष्टि, वस्तुपरकता और प्रमाणिकता का अक्सर अभाव पाया जाता है। ये दलित सैद्धांतिकी के सह उत्पाद भी नहीं लगते। इनका मुख्य स्वर ÷अन्य' (सवर्ण हिन्दू) के प्रति घृणा है। प्रायः संघर्ष में घृणा को जायज ठहराया जाता है लेकिन यदि हम जाति व्यवस्था का उन्मूलन करना चाहते हैं तो घृणा से क्या अर्जित कर सकते हैं।
सवाल अंततः दलित सैद्धांतिकी के दर्शन से जुड़ा है। इसका ध्येय दलितों को एक पृथक श्रेणी के रूप में स्थापित करना है जिसके कारण इस श्रेणी के सशक्त होने की आवश्यकता सामने आयी है। भारत के संविधान की रोशनी में देखें तो लोकतांत्रिाक समाज व्यवस्था के लिए जाति का उन्मूलन एक अनिवार्यता है। इसके लिए समाज को समावेशी और बहुलतावादी बनाना होगा। यदि हम दलित श्रेणी की स्वतंत्रा अस्मिता की बात करेंगे तो इसकी जगह जाति केन्द्रित अस्मिताएं विकसित होंगी। और फिर आदिवासी अस्मिता का क्या करेंगे जो संख्या में दलितों से भले ही थोड़ी कम हो, देशव्यापी उपस्थिति रखती है। उसकी वंचना का इतिहास भले ही कम कष्टकर रहा हो लेकिन सदियों पुराना है और उनके लिए भी सामाजिक न्याय उतना ही है।
यह देखना दिलचस्प है कि कांग्रेस के एजेण्डा में दलितों का मुद्दा 1917 में शामिल हुआ। स्व. कांशीराम अपनी पुस्तक ÷चमचा युग' में उन तथ्यों का बयान करते हैं जिनके चलते कांग्रेस इस एजेण्डा को अपनाने के लिए मजबूर हुई। इन तथ्यों में उस समय के दलित उभार की घटनाएं भी शामिल हैं। 1917 में ही बम्बई में दो अलग अलग सभापतियों की अध्यक्षता में दलित वगोर्ं की दो सभाएं हुईं। इनमें से पहली सभा 11 नवम्बर, 1917 को सर नारायण चंद्रापरकर और दूसरी इसके एक सप्ताह बाद बापू जी नामदेव वागडे की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई। इन सभाओं में दलित समुदाय की अनेक मांगों को लेकर प्रस्ताव पारित किये गये। इनमें एक प्रस्ताव अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा को लेकर था जो दोनों सभाओं में पारित किया गया था। आगे हम देखते हैं कि दलित आंदोलन ने ऐसे मुद्दों पर जोर देना कम कर दिया जो सामाजिक परिवर्तन के बुनियादी आधारों को प्रभावित करते।
दलित सैद्धांतिकी के अंतर्विरोधों की चूंकि अनदेखी की जाती रही है, इसलिए इस ओर इंगित करना हमने प्रासंगिक माना है। दलित विमर्श के प्रति निष्क्रिय किस्म की पक्षधरता का रुख इधर समझदारी माना जाता है और इसे पालिटिकली करेक्ट होने का तकाजा समझा जाता है। ऐसे में हमें अनुमान है कि कुछ लोगों को ये टिप्पणियां अच्छी नहीं लगेंगी। इन्हें लेकर असहमतियां हो सकती हैं, एतराज हो सकते हैं, बेशक कुछ बातें गलत सिद्ध हो सकती हैं किन्तु दलित सैद्धांतिकी के प्रति आलोचनात्मक रवैया और खुलापन इसके लिए किसी भी प्रकार से अहितकर नहीं है, यह हमारी विनम्र धारणा है।
-------------------------------------
साभार: तद्भव दलित विशेषांक http://www.tadbhav.com/dalit_issue/dalit_saidhantik.html#dalit
No comments:
Post a Comment
Please write your comment in the box:
(for typing in Hindi you can use Hindi transliteration box given below to comment box)