डा0 अम्बेडकर दूरदृष्टा और विचारों से क्रांतिकारी थे तथा सभी धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन पश्चात वे बौद्ध धर्म की ओर उन्मुख हुए। एक ऐसा धर्म जो मानव को मानव के रूप में देखता था, किसी जाति के खाँचे में नहीं। एक ऐसा धर्म जो धम्म अर्थात नैतिक आधारों पर अवलम्बित था न कि किन्हीं पौराणिक मान्यताओं और अंधविश्वास पर। अम्बेडकर बौद्ध धर्म के ‘आत्मदीपोभव’ से काफी प्रभावित थे और दलितों व अछूतों की प्रगति के लिये इसे जरूरी समझते थे।
1935 में नासिक जिले के भेवले में आयोजित महार सम्मेलन में ही अम्बेडकर ने घोषणा कर दी थी कि- ‘‘आप लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि मैं धर्म परिवर्तन करने जा रहा हूँ। मैं हिन्दू धर्म में पैदा हुआ, क्योंकि यह मेरे वश में नहीं था लेकिन मैं हिन्दू धर्म में मरना नहीं चाहता। इस धर्म से खराब दुनिया में कोई धर्म नहीं है इसलिए इसे त्याग दो। सभी धर्मों में लोग अच्छी तरह रहते हैं पर इस धर्म में अछूत समाज से बाहर हैं। स्वतंत्रता और समानता प्राप्त करने का एक रास्ता है धर्म परिवर्तन। यह सम्मेलन पूरे देश को बतायेगा कि महार जाति के लोग धर्म परिवर्तन के लिये तैयार हैं। महार को चाहिए कि हिन्दू त्यौहारों को मनाना बन्द करें, देवी देवताओं की पूजा बन्द करें, मंदिर में भी न जायें और जहाँ सम्मान न हो उस धर्म को सदा के लिए छोड़ दें।’’
अम्बेडकर की इस घोषणा पश्चात ईसाई मिशनरियों ने उन्हें अपनी ओर खींचने की भरपूर कोशिश की और इस्लाम अपनाने के लिये भी उनके पास प्रस्ताव आये। कहा जाता है कि हैदराबाद के निजाम ने तो इस्लाम धर्म अपनाने के लिये उन्हें ब्लैंक चेक तक भेजा था पर अम्बेडकर ने उसे वापस कर दिया।
वस्तुतः अम्बेडकर एक ऐसा धर्म चाहते थे, जिसकी जड़ें भारत में हों। अन्ततः 24 मई 1956 को बुद्ध की 2500 वीं जयन्ती पर अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म में दीक्षा लेने की घोषणा कर दी और अक्टूबर 1956 में दशहरा के दिन नागपुर में हजारों शिष्यों के साथ उन्होंने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया। उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाने के पीछे भगवान बुद्ध के एक उपदेश का हवाला भी दिया- ‘‘हे भिक्षुओं! आप लोग कई देशों और जातियों से आये हुए हैं। आपके देश-प्रदेश में अनेक नदियाँ बहती हैं और उनका पृथक अस्तित्व दिखाई देता है। जब ये सागर में मिलती हैं, तब अपने पृथक अस्तित्व को खो बैठती हैं और समुद्र में समा जाती हैं। बौद्ध संघ भी समुद्र की ही भांति है। इस संघ में सभी एक हैं और सभी बराबर हैं। समुद्र में गंगा या यमुना के मिल जाने पर उसके पानी को अलग पहचानना कठिन है। इसी प्रकार आप लोगों के बौद्ध संघ में आने पर सभी एक हैं, सभी समान हैं।’’
बौद्ध धर्म ग्रहण करने के कुछ ही दिनों पश्चात 6 दिसम्बर 1956 को डा0 अम्बेडकर ने नश्वर शरीर को त्याग दिया पर ‘आत्मदीपोभव’ की तर्ज पर समाज के शोषित, दलित व अछूतों के लिये विचारों की एक पुंज छोड़ गए। उनके निधन पर तत्कालीन प्रधानमंत्री पं0 जवाहरलाल नेहरू ने लोकसभा में श्रद्धांजलि व्यक्त करते हुए कहा था कि- ‘‘डा0 अम्बेडकर हमारे संविधान निर्माताओं में से एक थे। इस बात में कोई संदेह नहीं कि संविधान को बनाने में उन्होंने जितना कष्ट उठाया और ध्यान दिया उतना किसी अन्य ने नहीं दिया। वे हिन्दू समाज के सभी दमनात्मक संकेतों के विरूद्ध विद्रोह के प्रतीक थे। बहुत मामलों में उनके जबरदस्त दबाव बनाने तथा मजबूत विरोध खड़ा करने से हम मजबूरन उन चीजों के प्रति जागरूक और सावधान हो जाते थे तथा सदियों से दमित वर्ग की उन्नति के लिये तैयार हो जाते थे।’’
साभार: आकांशा यादव @ शब्द शिखर http://shabdshikhar.blogspot.com/2010/04/0.html
No comments:
Post a Comment
Please write your comment in the box:
(for typing in Hindi you can use Hindi transliteration box given below to comment box)