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Tuesday, 15 June 2010

चमचा युग (पिट्ठुओं का जमाना)


चमचा युग (पिट्ठुओं का जमाना) 
कांशीराम

चमचा युग इस लोकप्रिय पुस्तिका चमचा युग से भारतीय राजनीति में एक नये युग का सूत्रापात होता है जिसने दलितों की स्वतंत्रा राजनीति को जन्म दिया। इस लोकप्रिय पुस्तक के लेखक कांशीराम उच्चकोटि के वक्ता तथा संगठनकर्ता रहे। लेखन के अतिरिक्त कांशीराम ने दबे कुचले पीड़ित और शोषित लोगों को एकत्रा कर मजबूत संगठन बामसेफ, डी.एस.4 तथा ब.स.पा. बना कर सत्ता हासिल करने में सफलता पायी। कांशीराम के दिये गये भाषणों एवं साक्षात्कारों की अनेक पुस्तकें विभिन्न आयोजनों पर रैलियों मेलों में बिकती हैं। अनुवादक राम गोपाल आजाद ने समता प्रकाशन, लश्करीबाग, नागपुर से इसका प्रकाशन 1982 में किया। इस पुस्तक का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अध्याय ÷चमचा युग' प्रस्तुत है। 

यदि चिर परिचित मुहावरों में कहना हो तो हिन्दुओं के लिहाज से संयुक्त निर्वाचक मंडल एक सड़ा गला उपनगर ;ं तवजजमद इवतवनहीद्ध है, जिसमें हिन्दुओं को किसी अछूत को नामांकित करने का ऐसा अधिकार मिला हुआ है जिसमें उसे अछूतों को प्रतिनिधि तो नाम मात्रा के लिए बनायें लेकिन असलियत में उसे हिन्दुओं का औजार (पिट्ठू) बना सकें।
डॉ.बी.आर. आम्बेडकर
चमचा है क्या?
इस उद्धरण में डॉ. आम्बेडकर ने ÷हिन्दुओं का औजार' शब्द का इस्तेमाल किया है। अनुसूचित जातियों के अधिकारों के सिलसिले में डॉ. आम्बेडकर इस ÷औजार' शब्द का प्रयोग अक्सर करते रहे। औजार शब्द के अलावा अन्य मिलते जुलते शब्द जैसे ÷हिन्दुओं के दलाल' या ÷हिन्दुओं के पिट्ठू' आदि का भी वे प्रयोग करते रहे। स्वतंत्राता परवर्ती राजनैतिक अपरिहार्यताओं ने इन औजारों, दलालों तथा पिट्ठुओं को बहुत अधिक बढ़ावा दिया। बाब साहेब डॉ. आम्बेडकर के 1956 ई. में दुखद परिनिर्वाण के बाद यह प्रक्रिया इतनी तेज हुई कि आज ये औजार, दलाल और पिट्ठू न केवल राजनैतिक क्षेत्रा में बहुतायत में 
छाये हुए हैं बल्कि मानव जीवन की प्रत्येक गतिविधि और सम्बंधों के क्षेत्रा में भी व्याप्त हैं। शुरू शुरू में ये औजार, दलाल और पिट्ठू केवल डॉ. आम्बेडकर को तथा विवेकवान नजरों को ही दिखायी पड़ते थे और उनके पश्चात इनका पता बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा लगाया जा सकता था किन्तु आज ये औजार, दलाल और पिट्ठू लोग हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी में इतने सामान्य उपादान बन गये हैं कि उन्हें किसी भी आम आदमी द्वारा जनता के बीच पहचाना जा सकता है। आम आदमी की अपनी एक शब्दावली होती है। उसकी शब्दावली में किसी औजार, दलाल और पिट्ठू को ÷चमचा' कहा जाता है और इस पुस्तक में मैंने आम आदमी के बोलचाल की शब्दावली का ही प्रयोग करने का निर्णय लिया है। मेरे ख्याल में जब हम आम आदमी के हित और लक्ष्य के लिए संघर्ष कर रहे हैं तो उसके बोलचाल की शब्दावली का इस्तेमाल करना ही उपयुक्त होगा।
चमचा एक देशी शब्द है जो ऐसे व्यक्ति के लिए प्रयुक्त किया जाता है जो अपने आप क्रियाशील नहीं हो पाता है बल्कि उसे सक्रिय करने के लिए किसी अन्य व्यक्ति की आवश्यकता पड़ती है। वह अन्य व्यक्ति चमचे को सदैव अपने व्यक्तिगत उपयोग और हित में अथवा अपनी जाति की भलाई में इस्तेमाल करता है जो स्वयं चमचे की जाति के लिए हमेशा नुकसानदेह होता है। इस पुस्तक में हम औजार, दलाल और पिट्ठू जैसे शब्दों से ज्यादा चमचा शब्द का प्रयोग करेंगे। भारतीय संदर्भ में और आम आदमी के लिए यह शब्द प्रयोग करना ज्यादा कारगर होगा क्योंकि यह अपने अर्थ के साथ अपने भाव की सम्प्रेषणीयता में भी अधिकतम प्रभावी है। चमचा, पिट्ठू, दलाल और औजारᄉ ये चारों शब्द लगभग समानार्थक हैं लेकिन इनके भाव में थोड़ा अंतर है। इसलिए उनका इस्तेमाल उनके अर्थ तथा भाव सम्प्रेषण की प्रभावशीलता पर निर्भर रहेगा।
किसी मिशनरी व्यक्ति को समझने की भूल नहीं करना चाहिए
कुछ लोगों द्वारा मिशनरी व्यक्तियों को चमचा समझने की भूल करना सम्भव है। यह एक भयंकर भूल हो सकती है। मिशनरी लोग और चमचे बिल्कुल विपरीत ध्रुव हैं। एक मिशनरी व्यक्ति जहां सबसे अधिक आज्ञाकारी होता है वहीं चमचा एक सर्वाधिक जी हुजूरी करने वाला चापलूस होता है। जो लोग आज्ञाकारिता और चापलूसी में अंतर नहीं कर सकते हैं उनके द्वारा किसी मिशनरी को भी चमचा समझने की भूल करने की सम्भावना है। किसी चमचे को उसके अपने ही समुदाय के विरुद्ध प्रयोग किया जाता है जबकि किसी मिशनरी को उसके अपने समुदाय की भलाई में प्रयोग किया जाता है। इससे भी बढ़ कर, किसी चमचे को अपने समुदाय के सच्चे और वास्तविक नेता को कमजोर करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है जबकि किसी मिशनरी को उसके समुदाय के सच्चे और वास्तविक नेता के हाथों को मजबूत करने और उसकी सहायता के लिए प्रयोग किया जाता है। एक चमचा और एक मिशनरी कार्यकर्ता के बीच अंतर को रेखांकित करने के लिए और भी तमाम बिन्दुओं को गिनाया जा सकता है किन्तु यहां हमारी एकमात्रा रुचि इस बिन्दु पर जोर देने की है कि किसी मिशनरी को चमचा समझने की भूल न की जाय।
चमचा बनाने की आवश्यकता
कोई औजार, दलाल, पिट्ठू अथवा चमचा इसलिए बनाया जाता है ताकि उससे सच्चे और वास्तविक संघर्षकर्ता का विरोध कराया जा सके। चमचों की मांग तभी होती है जब सामने सच्चा और वास्तविक संघर्षकर्ता मौजूद हो। जब किसी लड़ने वाले की ओर से किसी प्रकार की कोई लड़ाई न हो, संघर्ष न हो और कोई खतरा न हो तो चमचों की मांग भी नहीं रहती है। जैसा कि हम देख चुके हैं कि लगभग पूरे भारत में बीसवीं शताब्दी की शुरुआत से ही दलित वर्ग छुआछूत और अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़ा हुआ था। शुरुआत में उनकी उपेक्षा की गयी किन्तु बाद में जब दलित वगोर्ं का सच्चा नेतृत्व प्रबल और शक्तिसम्पन्न हो गया तो उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती थी। इस मुकाम पर उच्च जातीय हिन्दुओं को दलित वगोर्ं के विरुद्ध चमचों को उभारने की जरूरत महसूस हुई।
गोलमेज सम्मेलनों के दौरान डॉ. आम्बेडकर दलित वगोर्ं के लिए सर्वाधिक विश्वासोत्पादक रूप से लड़े। उस समय तक गांधी जी और कांग्रेस का ऐसा ख्याल था कि दलित वगोर्ं के पास कोई ऐसा वास्तविक नेता नहीं है जो उनके लिए लड़ सके। सन्‌ 1930-31 के आसपास गोलमेज सम्मेलनों के दौरान गांधी जी और कांग्रेस के तमाम विरोधों के बावजूद दलितों को पृथक निर्वाचक मंडल प्रदान करते हुए प्रधानमंत्राी का साम्प्रदायिक निर्णय 17 अगस्त 1932 को घोषित कर दिया गया। 1930 से 1932 की इस अवधि के दौरान गांधी जी और कांग्रेस ने पहली बार चमचों की आवश्यकता अनुभव की।
अंधकार युग से प्रकाश युग
भारत के अछूत लोग अपने ही देश में सदियों तक जैसी दर्दनाक तकलीफों या कष्टों से गुजरे हैं उस तरह पूरी दुनिया में कोई भी दूसरे लोग नहीं गुजरे, विदेशों में भी नहीं। भारत के अछूतों की तुलना में गुलामों, नीग्रो तथा यहूदी लोगों के कष्ट और अपमान कुछ भी नहीं हैं। जब हम किसी मानव की दूसरे मानव के प्रति अमानवीयता के बारे में सोचते हैं तो अछूतों के खिलाफ हिन्दुओं के सनातनवाद का कहीं कोई सानी नहीं मिलता है। भारत के अछूत सदियों से दुनिया के सबसे गये गुजरे गुलाम बने रहे। ब्राह्मणवाद के अंदर ऐसे विषैले जीवाणु थे कि इसने निकृष्टतम किस्म के अन्याय के खिलाफ विद्रोह करने की इच्छा को ही मार डाला। इस प्रकार भारत के अछूतों ने शताब्दियों तक जैसा संत्राास झेला है उनके लिए उसे अंधकार युग ही कहा जा सकता है।
ब्रिटिश शासन के दौरान इन अछूतों को पाश्चात्य शिक्षा और सभ्यता का काफी लम्बे समय तक सम्पर्क प्राप्त हुआ। इसने उनके अंदर विद्रोह की भावना भड़का दी। इस प्रकार हम बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही अछूतों को लगभग पूरे भारत में छुआछूत तथा अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़े होते पाते हैं। सन्‌ 1920 तक डॉ. आम्बेडकर उनके लिए नेता और मसीहा के रूप में उभर चुके थे। दस वर्षों के अंदर ही दलितों के ध्येय को उन्होंने 1930-32 के दौरान इंग्लैण्ड में सम्पन्न गोलमेज सम्मेलनों में उठाया। इन दो गोलमेज सम्मेलनों में वे अछूतों के लिए सफलतापूर्वक लड़े और उनके लिए विभिन्न अधिकारों, विशेषकर पृथक निर्वाचक मंडल के रूप में राजनैतिक अधिकारों को प्राप्त किया। पीछे मुड़ कर सिंहावलोकन करने पर हम सुरक्षित रूप से यह कह सकते हैं कि डॉ. आम्बेडकर भारत के अछूतों को अंधकार युग से प्रकाश युग की ओर ले जा रहे थे। किन्तु हाय! यह नहीं होना था, क्योंकि प्रकाश युग में पहुंचने के पूर्व ही वे अछूत चमचा युग में फिसल कर भटक गये।
चमचा युग में फिसलन
1931-32 की इस अवधि के दौरान गांधी जी और कांग्रेस ने डॉ. आम्बेडकर के प्रयासों को आंशिक रूप से ध्वस्त किया। डॉ. आम्बेडकर अछूतों को अंधकार युग से निकाल कर प्रकाश युग में ले जाने का संघर्ष कर रहे थे। किन्तु गांधी जी और कांग्रेस दूसरी ही साजिशें रच रहे थे। गांधी जी इस देश की व्यवस्था चातुर्वर्ण्य पर आधारित अपने धर्म के अनुसार चलाना चाहते थे। ऐसा करके उन्हें अछूतों को अंधकार युग में ही बनाये रखने का पक्का यकीन था ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार चातुर्वर्ण्य उन्हें सदियों तक बनाये रख सका।
इन साजिशों के वशीभूत होकर गांधी जी ने उनके लिए किसी प्रकार के संरक्षणों के विरुद्ध जम कर लड़ाई लड़ी। गोलमेज सम्मेलन में अंतिम स्थिति तक उन्होंने इंच इंच पर अड़ंगेबाजी की। अछूतों से अपनी शत्राुता के कारण वे इस हद तक चले गये कि उन्होंने अछूतों का विरोध करने में मुसलमानों का साथ लेने के लिए मुसलमानों की सभी मांगें स्वीकार कर लीं। किन्तु सौभाग्य से मुसलमानों ने उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया। इतने सबके बावजूद डॉ. आम्बेडकर उनके अधिकारों को, खास तौर पर पृथक निर्वाचक मंडल के रूप में उनके राजनैतिक अधिकारों को प्राप्त करने में सफल रहे।
गांधी जी के लिए तो यह अत्यधिक कठिन और असहनीय बात थी। जब उनकी सारी दलीलें नाकाम हो गयीं तो उन्होंने दबाव नीति का सहारा लिया और आमरण अनशन की धमकी दे डाली। ब्रिटिश प्रधानमंत्राी ने उन्हें अत्यंत विश्वासोत्पादक पत्रा लिखा किन्तु गांधी जी ने 20 सितम्बर 1932 को अपना अनशन शुरू कर दिया। गांधी जी के आमरण अनशन के दबावपूर्ण प्रभाव को डॉ. आम्बेडकर के उस वक्तव्य के निम्न उद्धरण से सर्वोत्तम रूप से स्पष्ट किया जा सकता है जो उन्होंने 19 सितम्बर 1932 को जारी किया थाᄉ''यह ध्यान देना और भी अधिक महत्वपूर्ण है कि महात्मा प्रतिक्रियावादी और अनियंत्राणीय शक्तियों को मुक्त कर रहे हैं और इस प्रकार हिन्दू समुदाय तथा दलित वगोर्ं के बीच घृणा की भावना को बढ़ावा दे रहे हैं जिससे उन दोनों के बीच मौजूद खाईं और भी चौड़ी हो रही है। जब मैंने गोलमेज सम्मेलन में मि. गांधी का विरोध किया था तो मेरे खिलाफ पूरे देश में बड़ा होहल्ला मचाया गया था और तथाकथित राष्ट्रीय प्रेस में मुझे राष्ट्रीय उद्देष्श्य के विरुद्ध देशद्रोही के रूप में चित्रिात करने, मेरे पक्ष की ओर से आने वाले पत्रााचार को दबाने तथा सभाओं और सम्मेलनों (जिनमें से कई तो कभी सम्पन्न ही नहीं हुए) की अतिशयोक्तिपूर्ण रिपोर्ट प्रकाशित कर मेरी पार्टी के खिलाफ प्रचार को बल देने का षड़यंत्रा चल रहा था। दलितों की कतारों में विभाजन पैदा करने के लिए चांदी की गोलियों ;ैपसअमत ठनससमजेद्ध का बेरोकटोक इस्तेमाल किया जा रहा था। कुछ झगड़ों की परिणति तो हिंसा में भी हुई।''
''यदि महात्मा इस सबकी व्यापक स्तर पर पुनरावृत्ति नहीं चाहते हैं तो भगवान के वास्ते उन्हें अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना चाहिए और विनाशकारी परिणामों को टालना चाहिए। मेरा विश्वास है कि महात्मा ऐसा नहीं चाहते होंगे। लेकिन यदि वे स्वयं को विरत नहीं करते हैं तो उनकी तमाम सदिच्छाओं के बावजूद इन परिणामों का आगे आना वैसे ही निश्चित और अवश्यंभावी है जैसे कि दिन के बाद रात आती है।''
डॉ. आम्बेडकर के बयान का उपरोक्त अंश डॉ. आम्बेडकर के उस पशोपेश की झलक देता है जिसमें वे उस समय उलझे हुए थे। डॉ. आम्बेडकर से गांधी जी का तर्क था कि ''मेरा जीवन आपके हाथों में है क्या आप मेरे जीवन को बचायेंगे?'' यह अपने अनशन के द्वारा पैदा की गयी परिस्थिति से स्वयं को निकालने की गांधी जी की बेहद बेसब्री को दर्शाता है। डॉ. आम्बेडकर तथा गांधी जी के ऐसे पशोपेश में होने के कारण दोनों ही इस स्थिति से निकलने के लिए उत्सुक थे। और इस प्रकार ÷हिन्दुओं की नापसंदगी और अछूतों की नाराजगी के बीच पूना समझौते को दोनों पक्षों द्वारा मान्यता दी गयी और उसे भारत सरकार अधिनियम में अंगीकृत कर लिया गया।'
पूना पैक्ट ने अछूतों से पृथक मताधिकार अथवा पृथक निर्वाचक मंडल छीन लिया और उन पर संयुक्त निर्वाचक मंडल थोप दिया। इसके प्रभाव को स्वयं बाबासाहेब डॉ. आम्बेडकर ने अद्भुत रूप से स्पष्ट किया हैᄉ''संयुक्त निर्वाचक मंडल और सुरक्षित सीटों की व्यवस्था, जो एतत्पश्चात पूना पैक्ट की शतोर्ं के अनुसार लागू होगी, के अंतर्गत स्थिति और भी बदतर हो जायेगी। यह कोरी कल्पना भर नहीं है। पिछले चुनाव (1946) ने निर्णायक रूप से यह साबित कर दिया है कि अनुसूचित जातियों को संयुक्त निर्वाचक मंडल में पूर्णरूपेण मताधिकार वंचित किया जा सकता है।''
अवश्यम्भावी होने वाला हो ही गया, पूना पैक्ट ने अनुसूचित जातियों को मताधिकार वंचित कर दिया और उसके द्वारा चमचा युग में धकेल दिया।
चमचा युग कितना पुराना है?
24 सितम्बर 1932 को पूना पैक्ट दलित वगोर्ं पर थोप दिया गया और उसी के साथ चमचा युग का सूत्रापात हो गया। जब हिन्दुओं को महज थोड़ी सी शक्ति सत्ता छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा तो उन्होंने सुरक्षा की दूसरी पंक्ति अख्तियार कर ली। उन्होंने इस बात का ख्याल फिर भी रखा कि दलितों के उ+पर से उनका नियंत्राण समाप्त न होने पाये। और इस नियंत्राण को उन्होंने संयुक्त निर्वाचक मंडल के जरिये हासिल कर लिया। संयुक्त निर्वाचक मंडल द्वारा अछूतों के प्रतिनिधि सिर्फ नाममात्रा के प्रतिनिधि बन कर रह गये न कि सच्चे प्रतिनिधि। क्योंकि कोई भी अछूत जो हिन्दुओं का प्रतिनिधि और उनका चमचा बनने के लिए सहमत न हो तो वह संयुक्त निर्वाचन के तहत चुनाव जीतने में सफल ही नहीं हो सकता है, जिसमें अछूत मतदाता 1:5 के अनुपात में या कहीं कहीं तो 1:10 के अनुपात में संख्यात्मक रूप से पीछे धकेल दिये गये हैं।
यही कारण था कि गांधी जी संयुक्त निर्वाचक मंडल के अंतर्गत एक सच्चे और वास्तविक प्रतिनिधि के बदले में दो चमचे देने के लिए सहमत हो गये। किन्तु चमचों की बड़ी से बड़ी संख्या एक भी सच्चे और वास्तविक प्रतिनिधि का विकल्प नहीं बन सकती है। दलित वगोर्ं ने चाहे पसंद किया हो या न किया हो किन्तु 24 सितम्बर 1932 को पूना पैक्ट ने उन्हें चमचा युग में धकेल दिया। यह चमचा युग 24 सितम्बर 1982 को पचास वर्ष का हो जायेगा, जिस दिन डी एस 4 स्वयं पूना में पूना पैक्ट का धिक्कार या भर्त्सना करेगी।
चमचा युग कब तक रहेगा?
हमारे सामने यह दूसरा प्रश्न है जिसका न सिर्फ उत्तर देना है बल्कि जिससे हमें जूझना भी है। सर्वप्रथम तो हमको यह समझना है कि पचास वर्षों में विभिन्न प्रकार के चमचे कैसे विकसित हो गये। आज भारत पर शासन कर रहे उच्च जातीय हिन्दुओं को चमचे पैदा करने की जरूरत तभी महसूस हुई जब उनके सामने दलित वगोर्ं के सच्चे और वास्तविक नेतृत्व के उभरने का खतरा उपस्थित हो गया। आज जब दलित शोषित जातियों का कोई सच्चा नेतृत्व नहीं है तो चमचों की मांग घट गयी है। किसी भी सूरत में चमचों की आज पहले जैसी पूछ नहीं है। किन्तु बामसेफ और डी एस 4 के रूप में सच्चे और वास्तविक नेतृत्व उभरने के साथ ही चमचे पुनः महत्व पा सकते हैं। ऐसी स्थिति तब तक बनी रहेगी जब तक उत्पीड़क और उत्पीड़ित के बीच संघर्ष बना रहेगा। मेरे अनुमान में चमचा युग के सुनिश्चित एवं पूर्ण अंत करने के लिए दस वर्ष से अधिक का समय नहीं लगेगा।
चमचों की विविध किस्में
''पूना पैक्ट की धारा (5) ने प्राथमिक चुनाव की प्रणाली को दस वर्ष तक सीमित कर दिया है जिसका अर्थ है कि 1947 ई. के पश्चात होने वाला कोई भी चुनाव संयुक्त निर्वाचक मंडल और सुरक्षित सीटों की एकमेव प्रणाली के अंतर्गत ही होगा।
संयुक्त निर्वाचक मंडल और सुरक्षित सीटों की प्रणाली के अंतर्गत स्थिति और भी बदतर हो जाऐगी, जो एतत्पश्चात पूना पैक्ट की शतोर्ं के अनुसार लागू होगी। यह कोरी कल्पना मात्रा नहीं है। पिछले चुनाव ने (1946) निर्णायक रूप से यह सिद्ध कर दिया है कि अनुसूचित जातियों को संयुक्त निर्वाचक मंडल से पूर्णरूपेण मताधिकारच्युत किया जा सकता है।'' डॉ.बी.आर. आम्बेडकर
डॉ. आम्बेडकर की आशंका सच निकली। संयुक्त निर्वाचक मंडल और आरक्षित सीटों की व्यवस्था ने अनुसूचित जातियों के स्वतंत्रा आंदोलन को ध्वस्त कर दिया। अनुसूचित जातियों को पूर्णतः मताधिकारच्युत कर दिया गया और लोकतंत्रा में मताधिकारच्युत किये गये लोगों की हालत की हम सहज ही कल्पना कर सकते हैं। डॉ. आम्बेडकर जैसी बौद्धिक क्षमता और कद का व्यक्ति दो बार, एक बार 1952 के आम चुनाव में बम्बई से, और दूसरी बार 1954 के उप चुनाव में भंडारा से, संसदीय चुनाव जीतने में असफल रहा। इन दोनों ही चुनावों में वे उच्च जातीय हिन्दुओं की कांग्रेस के टिकट पर खड़े अल्पज्ञात और अनजाने से प्रत्याशियों से पराजित हो गये।
सौभाग्य से उस समय स्थिति को सुधारने और सम्हालने के लिए डॉ. आम्बेडकर मौजूद थे। बदली हुई रणनीति और दांवपेच के परिणामस्वरूप अनुसूचित जाति के लोग 1957 ई. के आम चुनाव के दौरान अपनी पकड़ पुनः मजबूत कर सकते थे। किन्तु हाय रे बदकिस्मती। इस रणनीति को उसकी तार्किक परिणति तक ले जाने के लिए उसके बाद डा. आम्बेडकर ही हमारे बीच नहीं रहे। उनके महापरिनिर्वाण के अलावा नये नये किस्म के चमचों के उभरने से स्थिति और गड़बड़ा गयी। डॉ. आम्बेडकर को अपने समय में सिर्फ कांग्रेस के और अनुसूचित जातियों के चमचों से जूझना पड़ा। किन्तु आम्बेडकर परवर्ती वर्षों में कांग्रेस के अलावा दूसरी पार्टियों ने भी न सिर्फ अनुसूचित जातियों के बीच से बल्कि दूसरी जातियों के बीच से भी चमचे पैदा करने की जरूरत महसूस की। और इस तरह विविध किस्म के चमचों का व्यापक पैमाने पर प्रादुर्भाव हुआ।
(अ) जाति और समुदायवार चमचे
भारत के दलित शोषित लोग, जो देश की कुल जनसंख्या का लगभग 85 प्रतिशत हैं, एक नेतृत्वविहीन समूह है। वास्तव में उनमें नेतृत्वविहीनता उत्पन्न करने में उच्च जातीय हिन्दू सफल रहे। ऐसी स्थिति इन जातियों और समुदायों में चमचे पैदा करने के लिए सर्वाधिक अनुकूल है। जाति और समुदायवार इन चमचों को निम्न श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता हैᄉ
(1) अनुसूचित जातियां अनिच्छुक ;त्मसनबजंदजद्ध चमचे
बीसवीं शताब्दी के दौरान अनुसूचित जातियों का सम्पूर्ण संघर्ष इस बात का स्पष्ट संकेत करता है कि वे उज्ज्वल युग में प्रवेश करने का प्रयास कर रहे थे किन्तु उन्हें गांधी जी और कांग्रेस ने चमचा युग में धकेल दिया। वे अभी भी दबाव में रहते हुए कष्ट उठा रहे हैं। उन्होंने हालांकि मौजूदा स्थिति से समझौता नहीं किया है किन्तु वे इसके बाहर निकल पाने में अक्षम हैं। इसीलिए उन्हें अनिच्छुक चमचों के रूप में अभिहीत किया जा सकता है।

(2) अनुसूचित जनजातियां : नवदीक्षित ; प्दपजपंजमकद्ध चमचे
अनुसूचित जनजातियां भारत के संवैधानिक और आधुनिक विकास के दौरान संघर्ष करने के लिए नहीं जानी जाती हैं। 1940 ई. के दौरान अनुसूचित जातियों के साथ उन्होंने भी मान्यता और अधिकारों को प्राप्त करना प्रारम्भ किया। भारतीय संविधान के अनुसार 26 जनवरी, 1950 के पश्चात उन्हें भी वही पहचान और अधिकार मिल गये जो अनुसूचित जातियों के हैं। उन्हें यह सब अनुसूचित जातियों के संघर्ष के परिणामस्वरूप हासिल हो गया, जिसने दलित शोषित भारतीयों के पक्ष में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय जनमत तैयार किया। इनका आज तक भारत के केन्द्रीय मंत्रिामंडल में कभी प्रतिनिधित्व नहीं हुआ। फिर भी ऐसा लगता है कि उन्हें जो कुछ भी मिल जाय बस उसी से संतुष्ट हैं। जो सबसे बुरी बात है वह यह है कि वे अभी भी इस भ्रम में हैं कि उनके उत्पीड़क और शोषक ही उनके हितैषी और खैरख्वाह हैं। इसलिए उन्हें नवदीक्षित चमचों का नाम दिया जा सकता है, क्योंकि उन्हें चमचा युग में सीधे सीधे प्रविष्ट करा दिया गया।
(3) अन्य पिछड़ी जातियां : महत्वाकांक्षी ;।ेचपतपदहद्ध चमचे
एक लम्बी जद्दोजेहद और संघर्ष के बाद अनुसूचित जातियों को, जनजातियों समेत, मान्यता और अधिकार मिले। इन सबके परिणामस्वरूप उनमें से कुछ ने अपनी हालत इतनी सुधार ली कि वैसा करना उनकी शक्ति और सामर्थ्य से भी बाहर था। उनकी प्रगति, शिक्षा, सरकारी सेवा और राजनीति के क्षेत्राों में स्पष्ट है। अनुसूचित जातियों और जनजातियों की ऐसी प्रगति ने अन्य पिछड़ी जातियों के अंदर तीव्र अभिलाषाएं जगा दीं। अब तक इन अभिलाषाओं को पूरा करने में वे विफल ही रहे।
हाल के वषोर्ं में वे सभी दरवाजों पर दस्तक दिये जा रहे हैं किन्तु उनके लिए कोई भी दरवाजा नहीं खुला। अभी हरियाणा के जून 1982 में हुए चुनावों को हमें निकटता से देखने का अवसर मिला। अन्य पिछड़ी जातियों के छोटे नेताओं ने टिकटों के लिए सभी दरवाजे खटखटाये किन्तु अंत में हमने यही पाया कि कुल 90 सीटों में से वे मात्रा एक टिकट कांग्रेस से और एक टिकट लोकदल से प्राप्त कर सके। आज हरियाणा विधानसभा में 90 सदस्यों में अन्य पिछड़ी जातियों का सिर्फ एक सदस्य है। कुछ स्थानों को छोड़ कर, खासकर दक्षिण में, हम उन्हें टिकट प्राप्त करने के लिए दर दर भटकते हुए और अलग अलग स्तरों पर जद्दोजेहद करते हुए किन्तु जायज हक पाने में विफल होते हुए पाते हैं, ठीक उसी तरह जैसे हरियाणा में। दरअसल उनमें से अधिकांश तो वह सब पाने की अभिलाषा और लालसा करते हैं जिसे अनुसूचित जातियां/जनजातियां पहले ही हासिल कर चुकी हैं। पिछड़े वर्ग की 3700 से भी अधिक जातियों में से लगभग 1000 जातियां न केवल ऐसी लालसा कर रही हैं बल्कि अनुसूचित जाति/जनजाति की सूची में स्वयं को शामिल कराने के लिए संघर्ष कर रही हैं। इस प्रकार कुल मिला कर ओ.बी.सी. (अन्य पिछड़े वगोर्ं) का व्यवहार बर्ताव हमें इसी विश्वास पर ले जाता है कि वे तीव्र स्पृहा वाले महत्वाकांक्षी चमचे हैं।
(4) अल्पसंख्यक : मजबूर ;भ्मसचसमेद्ध चमचे
1971 की जनगणना के अनुसार धार्मिक अल्पसंख्यक भारत की कुल जनसंख्या का 17 प्रतिशत हैं। वे अंग्रेजों के भारत से जाने के पहले 15 अगस्त 1947 तक अपनी जनसंख्या के अनुसार अपनी भागीदारी हासिल करते रहे। उसके बाद वे पूरी तरह भारत की शासक जातियों की मेहरबानी और रहमोकरम पर निर्भर हैं। साम्प्रदायिक दंगों की बहुतायत ने मुसलमानों को पंजों के बल खड़ा कर रखा है। ईसाई लोग असहाय बने घिसट रहे हैं। सिक्ख सम्मानजनक अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं और बौद्ध लोग तो उठ खड़े होने में भी विफल हो चुके हैं। यह सब यही साबित करता है कि भारत में अल्पसंख्यक लाचार मजबूर चमचे हैं।
(ब) पार्टीवार चमचे
''कांग्रेस का दूसरा दुष्कृत्य है कांग्रेसी अछूतों को दलीय अनुशासन में जकड़ना। वे कांग्रेस कार्यकारिणी के चंगुल में नियंत्रिात हैं। वे ऐसा कोई प्रश्न नहीं पूछ सकते जो इसे (कांग्रेस) पसंद न हो। वे ऐसा कोई प्रस्ताव भी पेश नहीं कर सकते जिसकी यह (कांग्रेस) अनुमति न दे। वे ऐसा कोई विधेयक नहीं ला सकते जिस पर इसे (कांग्रेस) आपत्ति हो। अपनी इच्छा और विवेक से वे वोट नहीं दे सकते और अपनी भावनाओं को वे अभिव्यक्त तक नहीं कर सकते। वे यहां मूक जानवरों की भांति हांके जाते हैं। विधायिका में उनके प्रतिनिधित्व को प्राप्त कराने का एक उद्देश्य अछूत लोगों को अपनी परेशानियां और शिकायतें उठाने योग्य बनाना तथा उनके साथ होने वाली ज्यादतियों को दूर कराने के लिए सक्षम बनाना था। कांग्रेस ने ऐसा होना सफलतापूर्वक तथा प्रभावी रूप से रोक दिया है।
''इस दुखद और लम्बी कहानी के पटाक्षेप के लिए कांग्रेस ने पूना पैक्ट का रस तो स्वयं चूस लिया और बचा खुचा छिलका छूंछ अछूतों के मुंह पर फेंक दिया।'' ᄉडॉ.बी.आर. आम्बेडकर
अनुसूचित जातीय सांसदों/विधायकों की बेबसी का ऐसा वर्णन डॉ. आम्बेडकर ने अपनी विख्यात पुस्तक ÷कांग्रेस और गांधी ने अछूतों के लिए क्या किया?' में बखूबी किया है। ऐसा हाल 1945 में था। उसके बाद के वषोर्ं में व्यापक पैमाने पर और भी बदतर स्थिति के हम साक्षी हैं। उस समय उच्च जातीय हिन्दुओं की सिर्फ एक ही पार्टी थी जो ऐसा व्यवहार करती थी और अनुसूचित जातियों में चमचे उत्पन्न करती थी। लेकिन आज तो राष्ट्रीय स्तर की ऐसी सात और प्रांतीय स्तर की अनेक पार्टियां हैं जो न सिर्फ अनुसूचित जातियों में बल्कि भारत की सभी पीड़ित शोषित जातियों में चमचे पैदा करती हैं। आज उच्च जाति की ये सभी पार्टियां रस पी पी कर बचे खुचे छिलके पच्चासी प्रतिशत पीड़ित शोषित समुदायों के मुंह पर फेंक रही हैं।
इस प्रकार इन पार्टीवार चमचों ने हमारी स्थिति को और भी खराब बना डाला है। जो लोग इस समस्या से जूझने के इच्छुक हैं वे अपने सामने मौजूद बृहत्तर समस्या के इस पहलू को नजर अंदाज नहीं कर सकते हैं।
(स) अबोध या अज्ञानी चमचे ;प्हदवतंदज ब्ींउबीेंद्ध
पीड़ित भारतीय, विशेषकर दलित वर्ग लगभग पूरे भारत में अन्याय के खिलाफ संघर्ष करते रहे। अधिकतर संघर्ष स्थानीय और क्षेत्राीय बने रहे। यदि देश के आकार और जनसंख्या को दिमाग में रखें तो हम कह सकते हैं कि वे संघर्ष लगभग अलग थलग से चलाये जाते रहे, इतने अलग थलग कि वे गुटीय संघर्ष जैसे दिखते हैं। इन गुटीय या समूह संघषोर्ं में लोग सिर्फ अपने गुट के संघर्ष के बारे में जानते थे जबकि अन्य स्थानों पर अपने ही भाइयों द्वारा चलाये गये अन्य संघषोर्ं के बारे में वे अनभिज्ञ ही बने रहे। दलितों की इस अक्षमता की इस तथ्य से अच्छी तरह कल्पना की जा सकती है कि दलित वगोर्ं का बहुत बड़ा हिस्सा उन्हीं दलित वगोर्ं के हित में चलाये गये डॉ. आम्बेडकर के आजीवन संघर्ष से पूर्णतः अनभिज्ञ बना रहा। आज भी अनुसूचित जाति के पचास प्रतिशत लोग डॉ. आम्बेडकर के जीवन और कायोर्ं से बिल्कुल अपरिचित हैं।
अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा अन्य पिछड़े वगोर्ं के ऐसे व्यापक अज्ञान का उच्च जातीय हिन्दुओं द्वारा भरपूर शोषण किया गया। उनके अज्ञान तथा अन्य कमजोरियों का फायदा उठा कर उच्च जातीय हिन्दू बड़ी आसानी से उनके बीच चमचे पैदा कर सकते थे। इस किस्म के चमचों को अज्ञानी चमचों की संज्ञा दी जा सकती है। ये अज्ञानी चमचे डॉ. आम्बेडकर के जीवनकाल में उनके लिए बहुत बड़ा सिरदर्द थे। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ÷कांग्रेस और गांधी ने अछूतों के लिए क्या किया?' में डॉ. आम्बेडकर ने इसके कुछ उदाहरण दिये हैं। अज्ञानी अछूतों का ऐसा ही एक उदाहरण नीचे दिया जा रहा हैᄉ
14-4-45 के फ्री प्रेस जर्नल (एक अखबार) के अनुसार, राय बहादुर मेहरचंद खन्ना नामक एक व्यक्ति ने पेशावर में 12 अप्रैल 1945 को दलित वर्ग संघ के तत्वावधान में हुई अछूतों की सभा में यह कहा, बताया जाता है;
''महात्मा गांधी आपके सर्वश्रेष्ठ मित्रा हैं जिन्होंने आपके लिए आमरण अनशन तक का आश्रय लिया और पूना समझौता किया जिसके अंतर्गत आपको मताधिकार सम्पन्न बनाया गया तथा लोकल बोडोर्ं और विधायिका में प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया। मैं जानता हूं कि आप में से कुछ लोग डॉ. आम्बेडकर के पीछे भाग रहे हैं जो ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की उत्पत्ति मात्रा है और अंग्रेजी हुकूमत के हाथों को मजबूत करने के लिए आपका इस्तेमाल करता है ताकि भारत विभाजित हो जाय और सत्ता पर अंग्रेज लोग बरकरार बने रहें। मैं आपसे आपके ही हित में अपील करता हूं कि आप स्वयंभू नेताओं और अपने सच्चे मित्राों के फर्क को पहचानें।''
दलित वगोर्ं के ऐसे अज्ञान के कारण उच्च जातीय हिन्दू उन्हें बड़ी आसानी से बहका सकते थे। वे बड़े विश्वसनीय तरीके से उन्हें समझा सकते थे कि उनके अधिकारों को हड़पने वाला और कोई नहीं बल्कि उनका मसीहा ही है। और इस तरह दलित वगोर्ं के बहुत बड़े जनसमुदाय को बहकाया जा सकता था और उन्हीं में से अज्ञानी चमचे बनाये जा सकते थे।
(द) ज्ञानी चमचे या आम्बेडकरवादी चमचे ;म्दसपहीजमदमक व्त् ।उइमकांतपजम ब्ींउबीेंद्ध
अभी हमने अज्ञानी जनसमुदाय और उनमें से चमचे कैसे बनाये जा सकते थे इस पर गौर किया। किन्तु चमचा युग का सबसे अधिक त्राासदीपूर्ण भाग प्रबुद्ध चमचे अथवा आम्बेडकरवादी चमचे हैं। स्वयं डॉ. आम्बेडकर ने इंगित किया था कि अछूतों के संघर्ष में एक ओर स्वयं उनकी भूमिका और दूसरी ओर गांधी जी की भूमिका के बारे में अज्ञानी जनता को कैसे बहका दिया गया था। हम अज्ञानी जनसाधारण के आचरण व्यवहार को तो फिर भी समझ सकते हैं किन्तु प्रबुद्ध लोगों के आचरण का क्या किया जाय, खासकर स्वयं बाबासाहेब डॉ. आम्बेडकर द्वारा ज्ञानी ध्यानी बनाये गये लोगों के आचरण का। इन प्रबुद्ध लोगों को तो गांधी जी और डॉ. आम्बेडकर द्वारा निभायी गयी भिन्न भिन्न भूमिकाओं के बारे में जरूर ही जानना चाहिए।
हम यह जान कर दंग रह गये कि इन प्रबुद्ध चमचों ने लगभग एक वर्ष पहले से 24 सितम्बर 1982 को पूना पैक्ट की स्वर्ण जयंती मनाने के लिए पूना में एक समिति का गठन किया। एक वर्ष पूर्व अग्रिम रूप से बनायी गयी प्रारम्भिक समिति में भारतीय रिपब्लिकन पार्टी (आर. पी. आई.) के महामंत्राी, दलित पैंथर्स के पदाधिकारी और डॉ. आम्बेडकर की प्रबुद्ध बिरादरी के कुछ वरिष्ठ अधिकारी सम्मिलित थे। अब, गांधी जी और डॉ. आम्बेडकर की पूना पैक्ट किये जाने तक की भूमिकाओं को, पेशावर के अपने अज्ञानी भाइयों से भिन्न रूप से, अच्छी तरह जानने समझने के बाद तो पूना के प्रबुद्ध लोगों को पूना समझौते की स्वर्ण जयंती मनाने का विचार भी मन में नहीं लाना चाहिए था। किन्तु वे आम्बेडकरवादी चमचे न सिर्फ स्वर्ण जंयती के बारे में सोच रहे थे बल्कि करीब एक साल पहले से उसकी तैयारी में बड़े जोशोखरोश से जुटे हुए थे। और इससे भी गयी गुजरी बात तो यह हुई कि जिन्होेंने श्री आर.आर.भोले के नेतृत्व में बाबासाहेब डॉ. आम्बेडकर की सलाह पर 1946 में पूना पैक्ट की भर्त्सना निन्दा की थी वे भी स्वर्ण जयंती मनाने के अवसर के लिए स्वयं को तैयार कर रहे थे।
सिर्फ इसी बात को ध्यान में रख कर नहीं बल्कि उनके सर्वतोमुखी आचरण और विगत कई वषोर्ं से चंद टुकड़ों के लिए पिट्ठूगीरी में लिप्त रहने को ध्यान में रख कर भी हमने इस किस्म के चमचों को प्रबुद्ध (ज्ञानी) चमचों अथवा आम्बेडकरवादी चमचों का नाम देना तय किया है। उनकी पिट्ठूगीरी के परिणामस्वरूप होने वाले दुष्प्रभावों को हमने पृथक अध्याय में वर्णित किया है।
(ई) चमचों के चमचे
वयस्क मताधिकार पर आधारित लोकतांत्रिाक ढांचे की राजनैतिक अपरिहार्यताओं ने भारत की शासक जातियों को भारतीय पीड़ित शोषित समुदायों के बीच चमचे पैदा करने के लिए बाध्य कर दिया। इस प्रकार राजनैतिक गतिविधियों के विभिन्न स्तरों पर हम चमचों की बहुतायत देखते हैं।
इन राजनैतिक चमचों की कीमत इस बात से आंकी जाती है कि उनकी अपनी जाति या समुदाय में कितनी पैठ है। बड़े और उ+ंचे स्तर पर सक्रिय चमचे बड़े मामलों की व्यवस्था स्वयं नहीं कर सकते हैं। इसीलिए उन्हें शासक जातियों की वफादारी से और पूरी सेवा करने के लिए स्वयं अपने चमचे बनाने की जरूरत पड़ती है। इसके अलावा अनुसूचित जातियों और जनजातियों के शिक्षित नौकरीयाफ्ता लोगों की निरंतर बढ़ती संख्या ऐसे चमचे पैदा करने के लिए उपजाउ+ जमीन प्रदान करती है। शिक्षित नौकरीयाफ्ता लोगों के इस वर्ग में से चालाक व्यक्ति राजनैतिक चमचों से नाजायज पक्षपात और फायदा लेने के लिए उनकी पिट्ठूगीरी करने पर तत्पर रहते हैं। समय गुजरने के साथ साथ ऐसे व्यक्तियों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। ऐसे पिट्ठुओं के वर्ग को चमचों का चमचा कहा जा सकता है।
(ऐ) चमचे विदेशों में
चूंकि भारत में पीड़ित भारतीयों का कोई स्वतंत्रा आंदोलन नहीं है इसलिए विगत वर्षों के दुलारे और चहेते चमचे नीचे पड़े हुए हैं। भारत में चमचों के इस निचले ग्राफ ने 1980 में हुए संसदीय और विधानसभा चुनावों के बाद निम्नतम बिन्दु को छू लिया। भारत में चहेते चमचों के इस निम्नस्तर को विदेशों में रहने वाले कई अवसरवादी अछूतों ने चमचों की कमी होना समझा।
इस खाली जगह को भरने के लिए ही जैसे तमाम स्वार्थी और मौकापरस्त अछूत भारत की ओर दौड़ पड़े। अमेरिका से ऐसे ही एक काबिल महाशय स्वयं को शासक पार्टी के एक चमचे के रूप में फिट कराने के लिए दिल्ली मंें और उसके इर्दगिर्द घृणित प्रयास करते देखे गये। भारत में अपने लम्बे प्रवास के दौरान उनका मोहभंग हो गया और वे न्यूयार्क की कांग्रेस (इ) का सदस्य बनने के लिए वापस अमेरिका लौट गये। ऐसे लगभग सभी स्वार्थी अछूतों को मोहभंग के बाद अपने विदेशी मुल्कों की ओर वापस लौट जाना पड़ा। मैंने ऐसे असफल प्रयासों को उल्लेख करने के लिए केवल इसलिए चुना है ताकि यह स्मरण कराया जा सके कि सौंपी गयी भूमिका निभाने के लिए तत्पर कुछ चमचे विदेशों में भी छिपे हुए हैं। जब और जैसे ही भारतीय पीड़ितों का स्वतंत्रा आंदोलन भारत में मजबूत होगा तब वे पुनः खुले रूप में बाहर आ जायेंगे।

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साभार तद्भव दलित विशेषांक http://tadbhav.com/dalit_issue/chamcha_yug.html#chamcha

1 comment:

  1. books for those who follow chamchagiri of BJP and Congress

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