इसमें कोई शक नहीं कि वर्ण-व्यवस्था के माध्यम से परम्परावादियों ने एक प्रकार की निर्णायक संस्कृति और मनोवैज्ञानिक जीत हासिल कर ली है। शायद इसकी प्रतिक्रिया के कारण ही दलित चेतना पूर्णत: उभार पर है। दलित आन्दोलन/ संस्कृति साहित्य के प्रणेता डॉ. अम्बेडकर ने ठीक ही लिखा है- "हिन्दू धर्म मेरी बुद्धि में जँचता नहीं, स्वाभिमान को भाता नहीं। जो धर्म तुम्हें शिक्षा प्राप्त नहीं करने देता, उस धर्म में तुम क्यों रहते हो? जिस धर्म में मनुष्यता नहीं, वह धर्म उद्दण्डता की सजावट है।" डॉ. अम्बेडकर ने महसूस किया इस छुआछूत के विनाश के लिए अनिवार्य है कि जाति का विनाश हो। साथ ही वर्ण व्यवस्था जिस पर जातियाँ आधारित हैं, का विनाश हो। चूँकि जाति हिन्दू धर्म का प्राण है, अत: जब तक हिन्दू धर्म इसके वर्तमान रूप में प्रचलित है तब तक जाति प्रथा रहना स्वाभाविक है। हमारे यहाँ जाति सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक जीवन का मूल स्त्रोत है अर्थात् जाति सामाजिक संस्कारों एवं रिश्तों की सीमा तय करती है।1
रचनाकार परिचय:-
दलित संवेदनाओं को अपने जीवनकाल में निरन्तर भोगते रहने के कारण डॉ. अम्बेडकर का अनुभव प्रगाढ़ था। इसलिए आपने अपने सम्बोधन में बड़ी दृढ़ता से कहा था कि "हिन्दू धर्म में दलितों की उन्नति सम्भव नहीं है। मैं हिन्दू धर्म में मरूँगा नहीं। हिन्दू धर्म विषमतावादी है। हिन्दू धर्म अछूतों का धर्म नहीं। उच्चता कर्म से नहीं जन्म से है। हिन्दू समाज व्यवस्था मुर्दे के समान है। हिन्दू देवताओं के दर्शन से कोई लाभ नहीं है।" सामाजिक एकता का सिध्दान्त उनको बौद्ध धर्म के अन्दर ही मिल गया। यही कारण था कि उन्होंने अपने कई अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था। उनका यह कदम हमेशा विवादास्पद ही रहा है। किन्तु यदि हम उनके धर्म परिवर्तन के पीछे की वास्तविक भावना को समझें तो हमें प्रतीत होता है कि इस धर्म परिवर्तन के पीछे उनका यह विश्वास था जो उन्हें सामाजिक एकता के आदर्श की ओर ले गया। इसका एक दूसरा पक्ष भी है। संभवत: उनको बौद्ध धर्म की महत्ता का अहसास न होता यदि वे पश्चिम के उदारवादी दृष्टिकोण के सम्पर्क में न आते। उन्होंने कई विदेशी समाजों का गहन अध्ययन किया था और इन समाजों की जो विशेषता उनको विशेष रूप से प्रिय थी, वह थी सामाजिक एकता। उनको यह अहसास हुआ कि भारतीय धर्म-दर्शनों में बुद्ध-दर्शन ही एक ऐसा दर्शन है जो सामाजिक एकता का आदर्श प्राप्त कर सकता है। जहाँ टैगोर ने आध्यात्मिक मानवतावाद का सिद्धान्त प्रचारित किया, नेहरू ने समाजवादी दृष्टिकोण को समझने-समझाने का प्रयास किया, वहीं डॉ. अम्बेडकर ने जातीय सन्दर्भ में पश्चिमी उदारवादी दृष्टिकोण की महत्ता को समझाने का प्रयत्न किया। उनकी इस भूमिका को उचित स्थान दिया जाना चाहिए।2
रचनाकार परिचय:-
युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डा. वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद’ की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डा. वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डा0 भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानो से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।
दलित संवेदनाओं को अपने जीवनकाल में निरन्तर भोगते रहने के कारण डॉ. अम्बेडकर का अनुभव प्रगाढ़ था। इसलिए आपने अपने सम्बोधन में बड़ी दृढ़ता से कहा था कि "हिन्दू धर्म में दलितों की उन्नति सम्भव नहीं है। मैं हिन्दू धर्म में मरूँगा नहीं। हिन्दू धर्म विषमतावादी है। हिन्दू धर्म अछूतों का धर्म नहीं। उच्चता कर्म से नहीं जन्म से है। हिन्दू समाज व्यवस्था मुर्दे के समान है। हिन्दू देवताओं के दर्शन से कोई लाभ नहीं है।" सामाजिक एकता का सिध्दान्त उनको बौद्ध धर्म के अन्दर ही मिल गया। यही कारण था कि उन्होंने अपने कई अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था। उनका यह कदम हमेशा विवादास्पद ही रहा है। किन्तु यदि हम उनके धर्म परिवर्तन के पीछे की वास्तविक भावना को समझें तो हमें प्रतीत होता है कि इस धर्म परिवर्तन के पीछे उनका यह विश्वास था जो उन्हें सामाजिक एकता के आदर्श की ओर ले गया। इसका एक दूसरा पक्ष भी है। संभवत: उनको बौद्ध धर्म की महत्ता का अहसास न होता यदि वे पश्चिम के उदारवादी दृष्टिकोण के सम्पर्क में न आते। उन्होंने कई विदेशी समाजों का गहन अध्ययन किया था और इन समाजों की जो विशेषता उनको विशेष रूप से प्रिय थी, वह थी सामाजिक एकता। उनको यह अहसास हुआ कि भारतीय धर्म-दर्शनों में बुद्ध-दर्शन ही एक ऐसा दर्शन है जो सामाजिक एकता का आदर्श प्राप्त कर सकता है। जहाँ टैगोर ने आध्यात्मिक मानवतावाद का सिद्धान्त प्रचारित किया, नेहरू ने समाजवादी दृष्टिकोण को समझने-समझाने का प्रयास किया, वहीं डॉ. अम्बेडकर ने जातीय सन्दर्भ में पश्चिमी उदारवादी दृष्टिकोण की महत्ता को समझाने का प्रयत्न किया। उनकी इस भूमिका को उचित स्थान दिया जाना चाहिए।2
हमारे तथाकथित हिन्दू समाज की सनातनी व्यवस्था में भारतीय दीन-दलित समाज अज्ञानांधकार में तड़फड़ाने के साथ चातुर्वर्ण्य व्यवस्था में पिसने के साथ दरिद्रता की आग में जल रहा था। इसके पीछे कारण यह था कि हमारे सिद्धान्त सदियों से ईश्वरकृत, अपौरुषेय एवं प्रश्नों से परे माने जाते रहे, क्योंकि इन सिद्धान्तों की जड़ें हमारे जेहन में इतनी गहरी कर दी गयी थीं, साथ ही इनकी व्याख्या ऐसी की गई थी जिनका कोई अकाट्य प्रमाण नहीं था। ऐसे मृतवत, अस्पृश्य दलित समाज में भगवान बुद्ध के पश्चात कई शताब्दियों तक कोई एक अकेला ऐसा सामाजिक चिंतक भारत में नहीं अवतरित हुआ जिसने इन तथाकथित सिद्धान्तों का खण्डन किया हो। हजारों वर्षों से शोषित, पीड़ित, दलित, अछूतपन, शासक-पोषक, सवर्ण वर्गों के जघन्य एवं अमानवीय शोषण, दमन, अन्याय के विरुद्ध छोटे-मोटे संघर्ष को संगठित रूप देने का कार्य सर्वप्रथम अद्भुत प्रतिभा, सराहनीय निष्ठा, न्यायशीलता, स्पष्टवादिता के धनी बाबा साहब युगपुरुष डॉ. भीमराव अम्बेडकर जी ने किया। आप ज्ञान के भण्डार और दलितों एवं शोषितों के मसीहा बनकर भारतीय समाज में अवतरित हुए। आपने दलितों एवं शोषितों को समाज में सर ऊँचा कर बराबरी के साथ चलना सिखाया। आप ऐसे समाज की केवल कल्पना ही कर सकते हैं, जब हमारे पुरखों में से कुछ को इन्सान जैसी शक्ल-सूरत होने के बावजूद, उन्हें सवर्ण समाज इन्सान नहीं समझता था। ऐसे समाज के प्रति बाबा साहब ने स्वअस्तित्व की सामर्थ्य, अस्मिता एवं क्रांन्ति की आग जलाई जिससे सामाजिक न्याय प्राप्ति के लिए अनेक दलित-शोषित कार्यकर्ता आत्मबलिदान के लिए उनके साथ खड़े हो गये।3
परम्परावादी व्यवस्था (वैदिक संस्कृति) के कारण हजारों वर्षों से कुचले गये समाज के लोग आज ''दलित'' संज्ञा से जाने जाते हैं और उनके विरोध का प्रमुख कारण वर्ण-धर्म है। कर्म श्रेष्ठ न होने पर भी जाति के नाम से श्रेष्ठ कहलाने वाला व्यक्ति या समाज अपने आप में एक धोखा है। विश्व की सभ्यता और संस्कृति में ऐसा कहीं भी देखने को नहीं मिलेगा कि व्यक्ति को एक बार स्पर्श होने से छूने वाला व्यक्ति अपवित्र हो जाए। भारत में अस्पृश्यता के इस जादुई सिद्धान्त का कोई तार्किक जवाब किसी समाजशास्त्री के पास अभी तक उपलब्ध नहीं है। यह अनूठा और बेमिसाल सिद्धान्त पूर्णतया षडयन्त्र और बेईमानी के अलावा कुछ नहीं दिखता है। जीवन की इन दग्ध एवं करुण स्थितियों से उबरने के लिये दलित साहित्य के माध्यम से दलित अपनी अस्मिता को पहचानने का प्रयास कर रहा है- दलित कौन है, उसकी स्थिति क्या थी? उसकी इस स्थिति के लिये कौन उत्तरदायी है, उनकी संस्कृति क्या थी? उसके पूर्वज कौन थे? यह चिन्तन ही दलित साहित्य के प्रमुख विषय हैं। दलित समुदाय के बहुजन (करोड़ों) लोग आर्य हिन्दुओं से सामाजिक न्याय की आशा लगाये हुए हैं, परन्तु धर्मान्धता और असमानता के पक्षधर ये लोग समानता के चिन्तन को ताक में रख देते हैं। आज देश में करोड़ों निर्धन, अनपढ़, बेरोजगार दलित व्यक्ति अपनी अस्मिता की तलाश में भटक रहे हैं। गिरिराज किशोर के शब्दों में कहें तो भारतीय समाज, खासतौर से जातीय हिन्दू समाज, जिसके कारण देश में दालित्य पनपा और आज भी अपने विकृत रूप में मौजूद है, विचित्र और परस्पर विरोधी मानसिकताओं का पुंज बनकर रह गया है। यह सब हजारों वर्षों से चले आ रहे मानसिक और मनोवैज्ञानिक अवरोधों का प्रतिफल है। ये मानसिक ग्रन्थियाँ ही विभिन्न स्तरों पर अपने को सही साबित करती हुई दालित्य को बढ़ाती ही नहीं गईं अपितु उसे अस्पृश्यता और दमन का शिकार भी बनाती गईं। इसी का फल था कि दलितों को भी यह समझाया गया कि दालित्य कर्मफल है।4
संसार में ऐसा कोई देश नहीं होगा जो मानव-मानव में इतना भेद रखता हो। परन्तु भारत का दलित, वह शोषित मानव है जो पैदा हुआ तब भी दलित है, जिन्दा रहेगा तब भी दलित है और मरेगा तब भी दलित है। अर्थात् आज भी दलित समाज स्मृतियुग की परम्परा में जी रहा है। कुछ मामलों में आज भी अछूत अन्य सवर्ण समाज के समक्ष बैठ नहीं सकता। उसके बच्चों के साथ बराबरी में बैठकर पढ़ नहीं सकता। चाय पीने के लिये अछूतों के लिये अलग कप, गिलास की व्यवस्था है। अछूतों के नाई द्वारा बाल नहीं बनाए जाते हैं। सामूहिक उत्सव में ढ़ोल नहीं बजाने दिया जाता। पंचायत में बराबरी से नहीं बैठने दिया जाता। जातिवादी मोहल्लों में अछूतों को मकान किराये पर नहीं दिये जाते। अछूतों को बारात ले जाते समय बैण्ड-बाजों पर रोक लगा दी जाती है। घोड़ी पर नहीं बैठने दिया जाता। अछूतों के लिये शमषान भूमि पृथक से है। अछूतों को मद्रास में कुछ स्थानों पर दिन में खरीद-फरोख्त की इजाजत नहीं है। ये समस्त उदाहरण सम्पूर्ण भारत के राज्यों में व्याप्त दलित वेदनाओं एवं सत्य घटनाओं पर आधारित हैं। परन्तु सामाजिक परिवर्तन के इस दौर में स्थितियाँ दलितों के पक्ष में भी जा रही हैं। राजनीति ने वर्तमान दौर में दलितों को असीमित अधिकार दिए हैं और दलितों को इससे काफी राहत भी मिली है परन्तु कभी-कभी सनातनी व्यवस्था के शिकार कुछ दलित आज भी हो जाते हैं।
वर्तमान समय में दलितों के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती उनकी जातीय अस्मिता एवं आर्थिक स्थिति को लेकर है। क्योंकि जगतगुरू से लेकर छोटे धार्मिक मठाधीशों तक किसी को भी इस बात की चिन्ता नहीं है कि दलितों को निरन्तर शोषण एवं उत्पीड़न से कैसे बचाया जा सकता है। समाज में उन्हें सम्मानजनक स्थिति में कैसे लाया जा सकता है। कुछ परम्परावादी दलित चिंतक साहित्यकार, समानता और भ्रातृत्व पर आधारित बौद्ध एवं अम्बेडकरवादी सिद्धान्त की ओर आकर्षित हो रहे हैं, जो भारतीय संविधान की आत्मा भी है। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि जैसे-जैसे अंग्रेजी शासन काल में अछूतों और शूद्रों के लिए शिक्षा के द्वारा खुलते गये, ये लोग शिक्षित होते गये। जहाँ एक ओर विज्ञान की चहुमुँखी तरक्की ने दुनिया को अपनी मुठ्ठी में समेट लिया है, वहीं शूद्रों द्वारा हिन्दू धर्म ग्रन्थों को अधिकाधिक रूप में पढ़ा जाने लगा है। स्वतंत्र भारत में संवैधानिक संरक्षण और प्रदत्त सुविधाओं, अपने अधिकारों को समझने और उन्हें पाने के कारण से परम्परावादियों के अनेक बन्धन शिथिल होते गये। वर्तमान में भी जो सनातनी (वैदिक) साहित्य उपलब्ध है, उसमें अभिजात्य एवं सवर्णवादी प्रवृत्तियों के लक्षण सर्वाधिक व्याप्त हैं। उसमें शासक और शोषित दोनों ही भावनाएं सर्वत्र नजर आती हैं।
परिवर्ती अम्बेडकरवाद या दलित नव जागरण युग:
अम्बेडकरवाद की द्वितीय मुक्ति शृंखला का आरम्भ सन् 1975 के बाद प्रारम्भ होता है। 1975 के बाद दलित चेतना की जो धारा विकसित हुई, वह इसलिये विशिष्ट है कि उसने हिन्दी जगत में अपनी पृथक और विशिष्ट पहचान बनायी। यह प्रयास अभिनव एवं महत्वपूर्ण है, क्योंकि अभी तक ऐसा प्रयास किसी युग में नहीं किया गया था। एक पृथक धारा के रूप में हिन्दी दलित साहित्य इसी युग में अस्तित्व में आया। यही नहीं बल्कि उसे परिभाषित भी इसी काल में किया गया। यह धारा समग्र रूप में अम्बेडकर-दर्शन से विकसत हुई और यह दर्शन ही उसका मूलाधार बना। इसमें कोई दो राय नहीं कि अम्बेडकर-दर्शन में दलित-मुक्ति की अवधारणा की अभिव्यंजना ही वर्तमान हिन्दी दलित साहित्य की प्रतिबद्धता है। इसने नये सौन्दर्यशास्त्र की स्थापना की जो स्वतंत्रता, समता और बन्धुत्व के सिद्धान्तों पर आधारित है। इस धारा ने अपने सौन्दर्यशास्त्र से हिन्दी मुख्यधारा के साहित्य का मूल्यांकन कर उसे काफी हद तक दलितों के लिये अप्रासंगिक साबित किया है। इसने प्रेमचन्द्र, निराला एवं अन्य रचनाकारों तक का पूर्नमूल्यांकन किया और उनकी कई रचनात्मक स्थापनाओं पर प्रश्नचिह्व भी लगाये। वर्तमान हिन्दी दलित साहित्य इस अर्थ में भी विशिष्ट है कि साहित्य की सभी विधाओं में उसका विकास हो रहा है। यद्यपि फूले और अम्बेडकर ने संस्थागत प्रयत्नों के माध्यम से दलितों के पक्ष-पोषण की बात की लेकिन सन्-70 के दशक के बाद कई संस्थायें सामने आती हैं, जिन्होंने अपने प्रयासों से दलितों के उत्थान पर कार्य किया। इस सन्दर्भ में दलित साहित्य प्रकाशन संस्था, अम्बेडकर मिशन, दलित आर्गनाइजेशन, राष्ट्रीय दलित संघ, दलित राइटर्स फोरम, दलित साहित्य मंच, लोक कल्याण संस्थान आदि के माध्यम से दलितों की स्थिति सुधारने के सन्दर्भ में अनेक कार्य किये गये! इन दलित संस्थाओं ने जिन दो महत्वपूर्ण पक्षों की ओर ध्यान आकृष्ट कराया उनमें एक है दलितों की सामाजिक स्थिति में सुधार और दूसरा दलितों के लिए आरक्षण की माँग। इस सन्दर्भ में भारतीय संविधान में संशोधन का भी प्रावधान किया गया और संस्थाओं में समाचार पत्रों, लेखों और गोष्ठियों का भी सहारा लिया जिसके माध्यम से दलितों को जागरूक और एकत्रित करने का कार्य किया गया। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि इन संस्थाओं ने दलित चिंतन को राजनैतिक स्वरूप भी प्रदान किया और समाज में एक विशेष वर्ग का नये सिरे से ध्रुवीकरण किया। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि वर्तमान-सामाजिक एवं राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में दलित विमर्श चिंतन का एक प्रमुख हिस्सा बन चुका है।5 मौजूदा दलित साहित्यकारों ने दलित लेखन को स्थपित करने के लिये कड़ा संघर्ष किया। यह उनके संघर्षों का ही परिणाम है कि हिन्दी जगत और मीडिया ने एक शताब्दी की लम्बी उपेक्षा के बाद दलित साहित्य को स्वीकार किया और उसे अपने पत्रों एवं पत्रिकाओं में थोड़ा-थोड़ा स्थान दिया। लेकिन यह भी तब सम्भव हुआ, जब सामाजिक परिवर्तन की राजनीति ने नयी दलित चेतना विकसित की और उसका प्रभाव सम्पूर्ण संविधान पर पड़ा। इसलिए यह हिन्दी जगत की राजनैतिक विवशता भी है। इस मत से कुछ विद्वत दलित चिंतकों की असहमति हो सकती है, परन्तु सत्ता के बनते-बिगड़ते समीकरण भी दलित साहित्य को प्रभावित करते हैं, इस बात से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता है। कुछ हद तक यह युग दलित पत्रकारिता के लिये भी जाना जायेगा, क्योंकि दलित साहित्य के साथ-साथ दलित पत्रकारिता का भी सशक्त विकास इस युग में हुआ है। दलित पत्रकारों में डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर, मोहन दास नैमिशराय, डॉ. श्यौराज सिंह 'बेचैन', के.पी. सिंह, प्रेम कपाड़िया, मणिमाला, ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहर सिंह, बी.आर. बुद्धिप्रिय, सुरेश कानडे, डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव इत्यादि पत्रकारों ने दलित पत्रकारिता को प्रखर दलित प्रश्नों से जोड़कर विचारोत्तेजक और क्रांन्तिकारी बनाया है। इसलिये दलित चेतना के इस वर्तमान युग को दलित 'नवजागरण' युग का नाम भी दिया जा सकता है।
परम्परावादी व्यवस्था (वैदिक संस्कृति) के कारण हजारों वर्षों से कुचले गये समाज के लोग आज ''दलित'' संज्ञा से जाने जाते हैं और उनके विरोध का प्रमुख कारण वर्ण-धर्म है। कर्म श्रेष्ठ न होने पर भी जाति के नाम से श्रेष्ठ कहलाने वाला व्यक्ति या समाज अपने आप में एक धोखा है। विश्व की सभ्यता और संस्कृति में ऐसा कहीं भी देखने को नहीं मिलेगा कि व्यक्ति को एक बार स्पर्श होने से छूने वाला व्यक्ति अपवित्र हो जाए। भारत में अस्पृश्यता के इस जादुई सिद्धान्त का कोई तार्किक जवाब किसी समाजशास्त्री के पास अभी तक उपलब्ध नहीं है। यह अनूठा और बेमिसाल सिद्धान्त पूर्णतया षडयन्त्र और बेईमानी के अलावा कुछ नहीं दिखता है। जीवन की इन दग्ध एवं करुण स्थितियों से उबरने के लिये दलित साहित्य के माध्यम से दलित अपनी अस्मिता को पहचानने का प्रयास कर रहा है- दलित कौन है, उसकी स्थिति क्या थी? उसकी इस स्थिति के लिये कौन उत्तरदायी है, उनकी संस्कृति क्या थी? उसके पूर्वज कौन थे? यह चिन्तन ही दलित साहित्य के प्रमुख विषय हैं। दलित समुदाय के बहुजन (करोड़ों) लोग आर्य हिन्दुओं से सामाजिक न्याय की आशा लगाये हुए हैं, परन्तु धर्मान्धता और असमानता के पक्षधर ये लोग समानता के चिन्तन को ताक में रख देते हैं। आज देश में करोड़ों निर्धन, अनपढ़, बेरोजगार दलित व्यक्ति अपनी अस्मिता की तलाश में भटक रहे हैं। गिरिराज किशोर के शब्दों में कहें तो भारतीय समाज, खासतौर से जातीय हिन्दू समाज, जिसके कारण देश में दालित्य पनपा और आज भी अपने विकृत रूप में मौजूद है, विचित्र और परस्पर विरोधी मानसिकताओं का पुंज बनकर रह गया है। यह सब हजारों वर्षों से चले आ रहे मानसिक और मनोवैज्ञानिक अवरोधों का प्रतिफल है। ये मानसिक ग्रन्थियाँ ही विभिन्न स्तरों पर अपने को सही साबित करती हुई दालित्य को बढ़ाती ही नहीं गईं अपितु उसे अस्पृश्यता और दमन का शिकार भी बनाती गईं। इसी का फल था कि दलितों को भी यह समझाया गया कि दालित्य कर्मफल है।4
संसार में ऐसा कोई देश नहीं होगा जो मानव-मानव में इतना भेद रखता हो। परन्तु भारत का दलित, वह शोषित मानव है जो पैदा हुआ तब भी दलित है, जिन्दा रहेगा तब भी दलित है और मरेगा तब भी दलित है। अर्थात् आज भी दलित समाज स्मृतियुग की परम्परा में जी रहा है। कुछ मामलों में आज भी अछूत अन्य सवर्ण समाज के समक्ष बैठ नहीं सकता। उसके बच्चों के साथ बराबरी में बैठकर पढ़ नहीं सकता। चाय पीने के लिये अछूतों के लिये अलग कप, गिलास की व्यवस्था है। अछूतों के नाई द्वारा बाल नहीं बनाए जाते हैं। सामूहिक उत्सव में ढ़ोल नहीं बजाने दिया जाता। पंचायत में बराबरी से नहीं बैठने दिया जाता। जातिवादी मोहल्लों में अछूतों को मकान किराये पर नहीं दिये जाते। अछूतों को बारात ले जाते समय बैण्ड-बाजों पर रोक लगा दी जाती है। घोड़ी पर नहीं बैठने दिया जाता। अछूतों के लिये शमषान भूमि पृथक से है। अछूतों को मद्रास में कुछ स्थानों पर दिन में खरीद-फरोख्त की इजाजत नहीं है। ये समस्त उदाहरण सम्पूर्ण भारत के राज्यों में व्याप्त दलित वेदनाओं एवं सत्य घटनाओं पर आधारित हैं। परन्तु सामाजिक परिवर्तन के इस दौर में स्थितियाँ दलितों के पक्ष में भी जा रही हैं। राजनीति ने वर्तमान दौर में दलितों को असीमित अधिकार दिए हैं और दलितों को इससे काफी राहत भी मिली है परन्तु कभी-कभी सनातनी व्यवस्था के शिकार कुछ दलित आज भी हो जाते हैं।
वर्तमान समय में दलितों के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती उनकी जातीय अस्मिता एवं आर्थिक स्थिति को लेकर है। क्योंकि जगतगुरू से लेकर छोटे धार्मिक मठाधीशों तक किसी को भी इस बात की चिन्ता नहीं है कि दलितों को निरन्तर शोषण एवं उत्पीड़न से कैसे बचाया जा सकता है। समाज में उन्हें सम्मानजनक स्थिति में कैसे लाया जा सकता है। कुछ परम्परावादी दलित चिंतक साहित्यकार, समानता और भ्रातृत्व पर आधारित बौद्ध एवं अम्बेडकरवादी सिद्धान्त की ओर आकर्षित हो रहे हैं, जो भारतीय संविधान की आत्मा भी है। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि जैसे-जैसे अंग्रेजी शासन काल में अछूतों और शूद्रों के लिए शिक्षा के द्वारा खुलते गये, ये लोग शिक्षित होते गये। जहाँ एक ओर विज्ञान की चहुमुँखी तरक्की ने दुनिया को अपनी मुठ्ठी में समेट लिया है, वहीं शूद्रों द्वारा हिन्दू धर्म ग्रन्थों को अधिकाधिक रूप में पढ़ा जाने लगा है। स्वतंत्र भारत में संवैधानिक संरक्षण और प्रदत्त सुविधाओं, अपने अधिकारों को समझने और उन्हें पाने के कारण से परम्परावादियों के अनेक बन्धन शिथिल होते गये। वर्तमान में भी जो सनातनी (वैदिक) साहित्य उपलब्ध है, उसमें अभिजात्य एवं सवर्णवादी प्रवृत्तियों के लक्षण सर्वाधिक व्याप्त हैं। उसमें शासक और शोषित दोनों ही भावनाएं सर्वत्र नजर आती हैं।
परिवर्ती अम्बेडकरवाद या दलित नव जागरण युग:
अम्बेडकरवाद की द्वितीय मुक्ति शृंखला का आरम्भ सन् 1975 के बाद प्रारम्भ होता है। 1975 के बाद दलित चेतना की जो धारा विकसित हुई, वह इसलिये विशिष्ट है कि उसने हिन्दी जगत में अपनी पृथक और विशिष्ट पहचान बनायी। यह प्रयास अभिनव एवं महत्वपूर्ण है, क्योंकि अभी तक ऐसा प्रयास किसी युग में नहीं किया गया था। एक पृथक धारा के रूप में हिन्दी दलित साहित्य इसी युग में अस्तित्व में आया। यही नहीं बल्कि उसे परिभाषित भी इसी काल में किया गया। यह धारा समग्र रूप में अम्बेडकर-दर्शन से विकसत हुई और यह दर्शन ही उसका मूलाधार बना। इसमें कोई दो राय नहीं कि अम्बेडकर-दर्शन में दलित-मुक्ति की अवधारणा की अभिव्यंजना ही वर्तमान हिन्दी दलित साहित्य की प्रतिबद्धता है। इसने नये सौन्दर्यशास्त्र की स्थापना की जो स्वतंत्रता, समता और बन्धुत्व के सिद्धान्तों पर आधारित है। इस धारा ने अपने सौन्दर्यशास्त्र से हिन्दी मुख्यधारा के साहित्य का मूल्यांकन कर उसे काफी हद तक दलितों के लिये अप्रासंगिक साबित किया है। इसने प्रेमचन्द्र, निराला एवं अन्य रचनाकारों तक का पूर्नमूल्यांकन किया और उनकी कई रचनात्मक स्थापनाओं पर प्रश्नचिह्व भी लगाये। वर्तमान हिन्दी दलित साहित्य इस अर्थ में भी विशिष्ट है कि साहित्य की सभी विधाओं में उसका विकास हो रहा है। यद्यपि फूले और अम्बेडकर ने संस्थागत प्रयत्नों के माध्यम से दलितों के पक्ष-पोषण की बात की लेकिन सन्-70 के दशक के बाद कई संस्थायें सामने आती हैं, जिन्होंने अपने प्रयासों से दलितों के उत्थान पर कार्य किया। इस सन्दर्भ में दलित साहित्य प्रकाशन संस्था, अम्बेडकर मिशन, दलित आर्गनाइजेशन, राष्ट्रीय दलित संघ, दलित राइटर्स फोरम, दलित साहित्य मंच, लोक कल्याण संस्थान आदि के माध्यम से दलितों की स्थिति सुधारने के सन्दर्भ में अनेक कार्य किये गये! इन दलित संस्थाओं ने जिन दो महत्वपूर्ण पक्षों की ओर ध्यान आकृष्ट कराया उनमें एक है दलितों की सामाजिक स्थिति में सुधार और दूसरा दलितों के लिए आरक्षण की माँग। इस सन्दर्भ में भारतीय संविधान में संशोधन का भी प्रावधान किया गया और संस्थाओं में समाचार पत्रों, लेखों और गोष्ठियों का भी सहारा लिया जिसके माध्यम से दलितों को जागरूक और एकत्रित करने का कार्य किया गया। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि इन संस्थाओं ने दलित चिंतन को राजनैतिक स्वरूप भी प्रदान किया और समाज में एक विशेष वर्ग का नये सिरे से ध्रुवीकरण किया। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि वर्तमान-सामाजिक एवं राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में दलित विमर्श चिंतन का एक प्रमुख हिस्सा बन चुका है।5 मौजूदा दलित साहित्यकारों ने दलित लेखन को स्थपित करने के लिये कड़ा संघर्ष किया। यह उनके संघर्षों का ही परिणाम है कि हिन्दी जगत और मीडिया ने एक शताब्दी की लम्बी उपेक्षा के बाद दलित साहित्य को स्वीकार किया और उसे अपने पत्रों एवं पत्रिकाओं में थोड़ा-थोड़ा स्थान दिया। लेकिन यह भी तब सम्भव हुआ, जब सामाजिक परिवर्तन की राजनीति ने नयी दलित चेतना विकसित की और उसका प्रभाव सम्पूर्ण संविधान पर पड़ा। इसलिए यह हिन्दी जगत की राजनैतिक विवशता भी है। इस मत से कुछ विद्वत दलित चिंतकों की असहमति हो सकती है, परन्तु सत्ता के बनते-बिगड़ते समीकरण भी दलित साहित्य को प्रभावित करते हैं, इस बात से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता है। कुछ हद तक यह युग दलित पत्रकारिता के लिये भी जाना जायेगा, क्योंकि दलित साहित्य के साथ-साथ दलित पत्रकारिता का भी सशक्त विकास इस युग में हुआ है। दलित पत्रकारों में डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर, मोहन दास नैमिशराय, डॉ. श्यौराज सिंह 'बेचैन', के.पी. सिंह, प्रेम कपाड़िया, मणिमाला, ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहर सिंह, बी.आर. बुद्धिप्रिय, सुरेश कानडे, डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव इत्यादि पत्रकारों ने दलित पत्रकारिता को प्रखर दलित प्रश्नों से जोड़कर विचारोत्तेजक और क्रांन्तिकारी बनाया है। इसलिये दलित चेतना के इस वर्तमान युग को दलित 'नवजागरण' युग का नाम भी दिया जा सकता है।
साभार: साहित्य शिल्पी @ http://www.sahityashilpi.com/2009/12/blog-post_2416.html
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