साम्प्रदायिकता का निवारण एस.एल. सागर |
धर्म निरपेक्षता बनाम साम्प्रदायिकता चर्चित पुस्तिका है। इसमें साम्प्रदायिकता के दुष्प्रभाव से बचने हेतु धर्म निरपेक्षता के वास्तविक मूल्यों को अपनाने पर बल दिया गया है। भारतवासियों के दोहरे चरित्रा को उजागर कर इसे ही साम्प्रदायिकता जैसी समस्या का मूल कारण बताया गया है। सागर प्रकाशन मैनपुरी द्वारा 1991 में प्रकाशित तथा एस.एल. सागर द्वारा लिखित यह पुस्तक देश के कोने कोने में विभिन्न आयोजनों में बिकती है। इस पुस्तक का यह अंश निश्चय ही साम्प्रदायिकता को लेकर नये प्रश्न करता है। सागर की अन्य चर्चित पुस्तकें हैंᄉ हिन्दू मानसिकता, सामाजिक न्याय, हिन्दुओं द्वारा गोमांस भक्षण, अछूत हिन्दू नहीं है।
साम्प्रदायिकता देश की अस्मिता के लिए बड़ी चुनौती बन चुकी है। यह देश इसी के कारण अनेक बार और अनेक वर्षों तक पराधीन रहा है। साम्प्रदायिकता राष्ट्रीय भावना के उदय होने में सबसे बड़ा अवरोध है। साम्प्रदायिकता से देश की स्वतंत्राता के लिए बहुत बड़ा संकट है। जब साम्प्रदायिकता की महामारी इतनी विकराल एवं भयावह है तो इसका निदान अवश्य ही खोजा जाना चाहिए। इसके निदान के लिए हमें इसके कारणों की खोज करना चाहिए और इसके प्रसारण के जो कारण हैं उन पर कारगर प्रतिबंध लगाये जाने चाहिए।
साम्प्रदायिक तत्व अफवाहों के सहारे इसका प्रसार करते हैं। इसके प्रसार के कारणों को रोका जाना चाहिए। साम्प्रदायिकता के विरुद्ध धर्म निरपेक्षता एक कारगर प्रयास है इस लिए धर्म निरपेक्षता का प्रचार प्रसार होना चाहिए।
साम्प्रदायिकतावाद परम्परावाद की जड़ से निकलता है। परम्पराओं के प्रति मोह साम्प्रदायिकता को जन्म देता है। यह सही है कि परम्परा में कुछ ऐसे जीवन तत्व होते हैं जो सामाजिक चेतना के अंग होते हैं पर इन परम्पराओं को इतना स्वार्थपरक बना दिया गया है कि इनसे अहित अधिक होता है और हित कम। इसलिए परम्परा का पीछा करना अब औचित्यहीन रह गया है।
साम्प्रदायिकता से देश विभाजन का खतरा है। साम्प्रदायिकता के जहर ने सम्पूर्ण देश को विषाक्त बना डाला है। हमें यह जानना बहुत आवश्यक है कि वे कौन सी परिस्थितियां हैं जिससे साम्प्रदायिकता का विषवृक्ष पल्लवित हुआ। हमें इन परिस्थितियों के अध्ययन के बाद उन्हीं संदर्भों में इसका निदान खोजना चाहिए।
यह सच है कि यहां में मुगलों से पूर्व शक, हूण, कुशान, मंगोल और गजनी के आक्रांता आये थे जिन्होंने देश के धन को भरपूर लूटा, सामूहिक कत्लेआम किये और स्त्राी पुरुषों को दास दासियां बना कर अरबस्तान को ले गये जहां उनमें से पुरुष का मूल्य 5 रुपया और स्त्राी का मूल्य 10 रुपया लगा कर चौराहों पर नीलाम कर दिया गया। ये आक्रांता आये और चले गये थे। जब मुगल भारत में आये तो वे वापस नहीं गये। यह घोर निकृष्ट सोच है कि भारत का हिन्दू शक और हूणों को विदेशी और आक्रांता नहीं कहता है और न आयोर्ं को ही जिन्होंने 60 हजार अनायोर्ंे का कत्लेआम किया था। शक, हूण, कुषान तीनों ही बाहरी हत्यारे आक्रांता थे पर वे भारत में बस गये। इन आक्रांताओं और मुगलों में क्या अंतर है फिर मुगलों को आक्रांता कहना कितनी बेइमानी की बात है। सच बात तो यह है कि मुगलों ने तो कोई कत्लेआम भी नहीं किया। अकबर ने तो सर्वधर्म समभाव की भावना से प्रेरित होकर दीन ए इलाही चलाया था। औरंगजेब जिस प्रकार बदनाम किया जाता है वह घृणा भाव के कारण बदनाम किया जाता है वरना अनेक हिन्दू उसके दरबार में उच्च पदों पर थे। अनेक मंदिरों के लिए उसने शाही खजाने से धन दिया था। उसे ÷जजिया कर' के लिए बदनाम किया जाता है पर जजिया तो उसने मुसलमानों पर भी लगाया था। औरंगजेब ने कोई मंदिर नहीं तुड़वाया बल्कि अनेक उदाहरण ऐसे भी मिल जायेंगे जहां स्वयं हिन्दू राजाओं द्वारा मंदिरों को ध्वस्त कराया गया था। कश्मीर के राजा हर्ष ने तो अनेक मूर्तियों को तुड़वाया था। मौर्य शासकों ने तो तमाम हिन्दू मूर्तियों को पिघला कर सिक्कों के लिए धातु इकट्ठी करायी थी।
खोजने पर नये तथ्य प्रकट हुए हैं कि भारत का इतिहास अंग्रेजों ने कम और हिन्दू लेखकों ने अधिक झूठे तथ्य घुसेड़ कर साम्प्रदायिक बनाया है और मुसलमानों के प्रति विषवमन किया है। विशम्भर नाथ पांडे पूर्व राज्यपाल उड़ीसा ने लिखा कि वे जब टीपू सुल्तान पर शोध कर रहे थे तो एक छात्रा के पास पुस्तक देखी, जिसमें लिखा था कि टीपू सुल्तान ने तीन हजार ब्राह्मणों को बलात इस्लाम धर्म कुबूल करने को विवश किया था और तीन हजार ब्राह्मणों ने आत्महत्या कर ली थी। यह लेख एक हिन्दू लेखक पंडित हरप्रसाद शास्त्राी का लिखा हुआ था। विशम्भर दयाल पांडे ने पं. हर प्रसाद से लिख कर पूछा कि यह कहां पर लिखा है तो हर प्रसाद ने कहा कि यह मैसूर के गजट में लिखा है पर गजट देखा गया, तो गजट में यह तथ्य कहीं नहीं पाया गया। इस प्रकार हिन्दू लेखकों ने मुसलमान बादशाहों के बारे में वैमनश्यतावश बहुत कुछ झूठ लिखा है। यही औरंगजेब के बारे में भी है। टीपू के बारे में तो यह प्रसिद्ध है कि उसका सेनापति ब्राह्मण था, वह 150 मंदिरों को प्रतिवर्ष अनुदान देता था, और श्रृंगेरी के जगतगुरु को बहुत मान्यता देता था। इससे साबित होता है कि इतिहास जानबूझ कर अंग्रेज लेखकों ने नहीं हिन्दू लेखकों ने ही झूठ लिखा है।
देश का विभाजन हुआ इसके लिए मुसलमान दोषी नहीं है। यदि गहराई से खोज की जाय तो तथ्य यही सामने आते हैं कि इसकी योजना तो सावरकर जैसे हिन्दू नेताओं के घरों में बनायी गयी थी। इस प्रकार मुसलमानों को दोषी ठहराना नितांत गलत है।
स्वतंत्राता के बाद यह सोचा गया था कि अब इस प्रकार का वातावरण तैयार किया जायगा जिससे देश में साम्प्रदायिकता की आग को ठंडा किया जायगा, किन्तु दुर्भाग्य है कि भारत की सरकार ने पिछले 44 साल में साम्प्रदायिक सौहार्द को बनाने के बजाय इसकी खाइर्ं को अधिक चौड़ा ही किया है। संविधान में भी स्पष्ट लिखा गया है कि किसी भी धार्मिक संगठन को सांस्कृतिक और शैक्षणिक कायोर्ं के अतिरिक्त किसी भी प्रकार साम्प्रदायिकता उभारने की अनुमति नहीं दी जायगी। पर हम बराबर देख रहे हैं कि साम्प्रदायिकता बराबर उभारी गयी है और संविधान को भी ताक में रख दिया गया है। कांग्रेस ने सत्ता में रहते हुए भी केरल और पंजाब में खूब धार्मिक नाटक खेले। आज तो धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर राजनैतिक पार्टियां बन रही हैं। आज तो धर्म के नाम पर ही नेतागीरी चमक रही है। धर्म के नाम पर राजनैतिक नेता यात्रााएं निकाल रहे हैं। आज विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों में कटुता पैदा करके राजनीति चलायी जा रही है। आज इस देश में धर्मयुद्ध लड़े जा रहे हैं। अतः आज आवश्यकता इस बात की है कि राजनीति के हर नापाक गठबंधन को रोका जाय। साम्प्रदायिकता राष्ट्र प्रजातंत्रा और समाज की दुश्मन है इससे बचा जाय। धर्म की राजनीति करने वाले चाहे वे व्यक्ति हों, चाहे संगठन इन पर रोक लगायी जाय और इनका दमन किया जाय।
आज साम्प्रदायिकता के विरुद्ध प्रभावी आंदोलन की आवश्यकता है। साम्प्रदायिकता का प्रश्न आज काफी जटिल हो चुका है। हमने इसे रोकने के लिए न तो कोई वैकल्पिक उपाय खोजा, न कोई संवैधानिक निदान ढूंढा। हमारे राजनैतिक दलों ने तो साम्प्रदायिकता का ही सहारा लिया। हिन्दू की मानसिकता यह बन चुकी है कि मुसलमान पाकिस्तान लेकर अपने हिस्से का भाग ले चुके हैं अब उन्हें भारत में रहने का कोई अधिकार नहीं है और यदि रहना है जो उनके अधीन होकर रहें।
हमारे इस साम्प्रदायिक जुनून के लिए बहुत कुछ कानूनी व्यवस्था का अभाव और संवैधानिक निष्क्रियता भी दोषी है हमारा संविधान तो निष्क्रिय इसलिए हो रहा है क्योंकि वह 44 साल से ऐसे हाथों में ही रहा है जो साम्प्रदायिकता उत्प्रेरक और प्रयोग करने वाले ही थे। हमारे यहां कानून ऐसा कोई नहीं बना है जो किसी घटना से पहले उसे रोकता हो या दंडित करता हो। यहां घटना हो जाने पर कानून काम करना प्रारम्भ करता है। हमारे यहां की न्याय व्यवस्था दूषित है क्योंकि किसी को दंडित करने के लिए इसमें साक्ष्य चाहिए। हत्या हुई, जज ने भी देखा, सरकारी वकील ने भी देखा पर अपराधी को दंड तभी मिलेगा जब कोई गवाह, चाहे फर्जी ही क्यों न हो, अदालत में जाकर अपना बयान दर्ज कराये। हमारा कानून तो ऐसा भी है कि घटना हुई ही न हो और गवाह अदालत में झूठी गवाही दे दे तो आरोपी को सजा कर देगा, जहां कानून इस प्रकार अंधा हो उससे विवेक की आशा नहीं करनी चाहिए।
हिन्दू समाज के उच्च तबकों (जातियों) में श्रेष्ठता का एक महारोग व्याप्त है। धर्म, जाति और लिंग सम्बंधी श्रेष्ठता की मानसिकता भी बहुत कुछ हमारी साम्प्रदायिक भावना को उभारने के लिए उत्तरदायी है। श्रेष्ठता की मानसिकता दूसरे के महत्व को स्वीकार करने की गुंजाइश समाप्त कर देता है और जब तथाकथित श्रेष्ठ तबके के अंह को कहीं ठेस पहुंचती है तो वह साम्प्रदायिकता पर उतर आता है। यह एक सामंती मनोवृत्ति है जो समानता की भावना के विपरीत है। यह सामंतवादी दर्शन हिन्दू समाज की आधारशिला है। इसमें सहनशीलता की कोई गुंजाइश नहीं है। आज अनेक हत्याकांड केवल श्रेष्ठता की सामंती भावना के परिणामस्वरूप ही उ+ंचे हिन्दुओं द्वारा दलितों के किये जाते हैं। ये अपने धर्म को श्रेष्ठ मानते हैं इसलिए मुसलमानों की हत्याएं करते हैं। इस प्रकार सामंतवादिता और श्रेष्ठता की भावना ने सहनशीलता समाप्त कर हिन्दू समाज में जड़ता पैदा कर दी है। इस जड़ता को जब कोई कुरेदता है तो हिंसक साम्प्रदायिकता खड़ी हो जाती है। सन् 1955 से लेकर 1989 तक अस्पृश्यता अपराध अधिनियम और अनुसूचित जाति अत्याचार अपराध अधिनियम इसी कारण असफल हो गये। इस प्रकार इस श्रेष्ठता और सामंतवादी भावना का उन्मूलन हुए बिना साम्प्रदायिकता को रोक पाना सम्भव नहीं है।
कुछ विचारकों की यह धारणा है कि साम्प्रदायिकता के विरुद्ध समाज को शिक्षित किया जाय और शिक्षा का स्तर बचपन से ही सुधारा जाय परंतु जहां शिक्षा के कोर्स में साम्प्रदायिकता उभाड़ने वाले पाठ होंगे, अंधविश्वास और धर्मांधता वाले पाठ बच्चों को पढ़ाएं जायेंगे वहां साम्प्रदायिकता बढ़ने के अतिरिक्त घटने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता है। इसीलिए यह आवश्यक है कि बच्चों के लिए शिक्षा का पाठ्यक्रम राष्ट्रीय सहमति के आधार पर निर्धारित किया जाय।
साम्प्रदायिकता के विरुद्ध एक आंदोलन की आवश्यकता है जो भाषणों तक सीमित न रह कर व्यवहार में उतारा जाना चाहिए। सामूहिक विवाह, सामूहिक भोज और सामूहिक गोष्ठियां होनी चाहिए। आक्रोश हिंसा को बढा+ता है। आंदोलनों से साम्प्रदायिक आक्रोश घटेगा और हिंसा पर रोक लगायी जा सकेगी।
श्रेष्ठता पर आधारित साम्प्रदायिकता का भाव मनुष्यता के अस्तित्व को नकारता है और यह मनुष्य के जीने की स्वायत्तता को स्वीकार नहीं करता है। जनतंत्रा इसके लिए एक अतिउत्तम माध्यम है। हमारे यहां सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि किताबी रूप में हमने जनतंत्रा को वरण कर लिया है पर व्यवहार में इसे जातिवाद और धर्मवाद से घिनौना बना दिया है। एक धर्म और जाति के लोग अपने प्रत्याशी को विधानसभा और लोकसभा में पहुंचाने के लिए बूथ कैप्चर कर लेते हैं। हां बूथ कैप्चरिंग यदि निचली जातियों द्वारा की जाती होती तो कोई कारगर उपाय सत्ता द्वारा अवश्य कर दिया गया होता चूंकि सत्ता पर उच्चवर्ण हावी है और बूथ कैप्चर उन्हीं के लोग करते हैं तो वे इस पर क्यों रोक लगायें। यह भी साम्प्रदायिकता है। इसने तो प्रजातंत्रा को इतना दूषित बना दिया है कि दुर्गंध आने लगी है। प्रजातंत्रा का आशय यही था कि हर आदमी को सत्ता में समान हिस्सेदारी मिले और कमजोर को भी सबल के समान सबल बनाया जाय। पर ऐसा हुआ नहीं। यदि प्रजातंत्रा को ही सही अथोर्ं में भारत में लागू कर दिया जाय तो साम्प्रदायिकता के उन्मूलन में बहुत कुछ सहयोग मिल सकता है।
भारत में जब भी साम्प्रदायिकता की बात चलती है तो उसका आशय हिन्दू मुस्लिम सम्बंधों से ही लिया जाता है। यदि साम्प्रदायिक समस्या के समाधान की बात कही जाती है तो हिन्दू मुस्लिम विरोध को समाप्त करने का ही अर्थ माना जाता है। भारत में सम्प्रदाय का संदर्भ हिन्दू मुस्लिम ही है। यदि हिन्दू मुस्लिम किसी सहयोगात्मक प्रयास से भेद मिटाने में सफल हो जाते हैं तो भारत साम्प्रदायिकता से मुक्त देश कहलाया जा सकता है। जातिगत भेद रहेगा सवर्ण और अवर्ण का भेद रहेगा। पर साम्प्रदायिकता का उन्मूलन माना जा सकता है। क्योंकि अब तक की साम्प्रदायिकता का भारतीय परिवेश में धर्म ही आधार माना जाता रहा है।
हिन्दू मुस्लिम समस्या का समाधान अब तक नहीं हुआ यद्यपि अंग्रेजों से स्वतंत्रा हुए भारत ने 44 साल बिता दिये। इसके कुछ राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक कारण रहे हैं किन्तु धर्म ही साम्प्रदायिकता के मूल में आता है।
साम्प्रदायिकता के हल के लिए हम हिन्दू मुस्लिम दोनों धर्मों के दृष्टिकोण को समझ कर ही यदि इसके उन्मूलन का कोई निदान खोजें तो सफलता के निकट शीघ्र पहुंच सकते हैं।
यदि इस्लाम के धार्मिक दृष्टिकोण को समझा जाय तो हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि स्वार्थ और सत्ता के लालच के कारण ही इस्लाम और मुसलमान समुदाय की हिन्दुओं द्वारा आलोचना की गयी है। इस्लाम को असहिष्णु तथा मुसलमानों को आक्रामक बताया है किन्तु यह हिन्दू कथन नितांत गलत एवं भ्रामक है। हिन्दू और हिन्दू धर्म की तुलना में इस्लाम और मुसलमान अधिक सहिष्णु है। यहां दोनों धमोर्ं और समुदायों की तुलना का विषय नहीं है अन्यथा यह सिद्ध करने में एक अलग से पूरा ग्रंथ ही बन जायगा। इस तुलना को छोड़ कर हम यह सिद्ध कर रहे हैं कि यह मात्रा हिन्दुओं का पूर्वाग्रह है और पूर्ण राजनैतिक सत्तासीन होने का फरेब है। हम इस्लाम के कुछ सिद्धांतों का जिक्र करते हैं। इससे यह समझने में समर्थ हो सकेंगे कि यह धर्म सहिष्णु है या असहिष्णु है। इस्लाम के बारे में कहा जाता है कि यह धर्म यह कहता है कि जो इस्लाम का बंदा नहीं वह काफिर है अर्थात् वह एकत्ववाद का हामी है और अनेकत्व को नकारता है। परंतु ऐसा नहीं है। सबके लिए कुरान कहता है, देखियेᄉ ''यदि अल्लाह की मर्जी होती तो तुम सबको एक ही जन समुदाय बनाता परंतु वह उसी में तुम्हारी परीक्षा ले सकता है जो तुम्हें उसने दिया है।'' (कुरान- 5:48) इससे स्पष्ट होता है कि वह दूसरों को भी समान मान्यता देता है।
आगे कुरान कहता हैᄉ ''हमने हर जाति समूह के लिए धर्माचरण के नियम निश्चित कर दिये हैं जिसका वे पालन करते हैं इसमें ऐसा कुछ नहीं किया जिस बात को लेकर वे तुझसे झगडं+े।'' (कुरान-22-67) आगे कुरान और स्पष्ट करते हुए हर धर्म के प्रति आदर भाव रखने की स्पष्ट घोषणा करता हैᄉ ''हर समुदाय के लिए हमने कुछ धार्मिक किया कर्म तय कर दिये हैं जिनका पालन करते हुए वे परवर दिगार का नाम पढ़ सकते हैं।'' (कुरान 22:34)। कुरान इस्लाम को स्पष्ट करते हुए कहता है कि यह धर्म बाध्यता का समर्थन नहीं करता है अर्थात् किसी को बाध्य नहीं करता कि वह इस्लाम का बंदा बन जाये (कुरान-2:256)। इस्लाम के बारे में प्रचार किया जाता है कि वह दूसरे धर्मस्थलों को खसाने की सलाह देता है। कुरान कहता हैᄉ ''यदि अल्लाह ने कुछ लोगों को दूसरों के द्वारा नहीं रोका होता तो मंदिर और गिरजाघर जिनमें अल्लाह का ही नाम लिया जाता है नष्ट कर दिये गये होते।'' (कुरान-22:40)। यह उदाहरण स्पष्ट करता है कि कुरान मंदिर और गिरजाघर सबको आदर देता है। इसलिए मंदिरों को मुसलमानों द्वारा ढहाने की इजाजत नहीं देता है। इस्लाम के बारे में प्रचार किया जाता है कि वह यह शिक्षा देता है कि जो इस्लाम का बंदा नहीं उसको कत्ल कर दो, किन्तु यह भी झूठ है। कुरान कहता है किसी पर ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है जो चाहे वैसा धर्म अपनाये। कुरान कहता हैᄉ ''हर कौम के लिए एक मसीहा है न्याय उसी के द्वारा निपटाया जाता है।'' (कुरान-10-47)। कुरान हर धर्म पैगम्बर अवतार को बराबर मानता है।
इस प्रकार कुरान की शिक्षाएं किसी धर्म या किसी धर्म के अवतार के विरुद्ध नहीं हैं।
हिन्दू कहते हैं कि मुसलमान उन्हें काफिर कहते हैं। एक किस्सा आता है कि हजरत मौहम्मद ने बहरीन और ओमान के लोगों से संधि की थी और उन्हें स्वीकार किया था। इस प्रकार हजरत मौहम्मद साहब जब दूसरों से मिलने की बात करते हैं तो हिन्दुओं के साथ क्यों नहीं मिल सकते थे।
यह तो रही कुरान और हजरत साहब की बातें अब यहां कुछ इस्लाम के विद्वानों के विचार भी देखिएᄉ इतिहासकार अलजहीज कहता है कि ÷भारत एक बहुत तरक्की वाला देश है' अब्दुल करीम शहरस्तानी कहता है कि भारतवासी एक महान समुदाय है। अलम सूदी ने तो ब्राह्मणों तक की तारीफ की है। इस प्रकार मुसलमान विद्वानों ने भारत के हिन्दुओं की आलोचना नहीं तारीफ की है। तीसरे खलीफा उथमान ने तो असभ्य और क्रूर अफ्रीकन तक को अच्छा बताया है फिर हिन्दुओं को कैसे बुरा बताया होगा। मौहम्मद इब्न कासिम को उलेमाओं ने सलाह दी थी कि हिन्दुओं को काफिर न कहा जाय। संत निजामुद्दीन औलिया ने कहा थाᄉ ÷हर कौम का (हिन्दू का भी) अपना एक धर्म है'ᄉ महाराष्ट्र के सूफी संत ने मराठी और संस्कृत में अपना ÷योग संग्रह' लिखा। गुजरात के कुछ सूफियों ने तो हजरत को ही कृष्ण का अवतार लिख दिया।
इस प्रकार इस्लाम धर्म का कुरान, हजरत पैगम्बर मौहम्मद साहब और उलेमा के हिन्दू धर्म और हिन्दुओं से नफरत न करने की ही सलाह देते हैं फिर उन पर हिन्दुओं के विरोधी होने का आरोप सही नही हैं।
दूसरी ओर हिन्दू धर्म की पुस्तकें रामायण, वेद, शास्त्राों में मुसलमानों को यवन म्लेच्छ कह कर गालियां दी गयी हैं। वेदों में कहा गयाᄉ ''हम जिनसे घृणा करते हैं या जो हमसे घृणा करते हैं उन्हें ऐ दसों दिशाओं के देवताओं उन्हें तुम अपने जबड़ों में रख कर खा जाओ।'' तुलसी की रामायण कहती हैᄉ ÷आमीर यवन किरात खस स्वंपचादि अतिअघ उ+पजे' अर्थात यवन अत्यंत नीच पैदाइश है।
इस प्रकार हम यदि यथार्थ कहना चाहें तो तथ्य यही है कि इस्लाम, उसके पैगम्बर उलेमा और महान फकीर और लेखक अधिक सहिष्णु हैं तुलना में हिन्दू धर्मशास्त्रा और हिन्दुओं के नेताओं और धर्माचायोर्ं के। अतः मुसलमानों को असहिष्णु कह कर उनकी आलोचना करना हिन्दुओं में एक फैशन बन गया है जो वैमनस्य बढ़ाने के लिए बहुत अंश तक जिम्मेदार है।
जो दृष्टिकोण हिन्दू धर्मग्रंथ, हिन्दू देवता, संत, मुनी इस्लाम के प्रति विद्वेष भरा रखते हैं वही झगड़े की जड़ हैं। हिन्दू राजनीतिज्ञ तो और भी इस साम्प्रदायिकता को बढ़ाने के लिए जिम्मेदार है। इंदिरा गांधी का ही उदाहरण हमारे सामने है। हिन्दू कट्टरवादिता का बढ़ता जोर देख कर कि कहीं इसका लाभ भाजपा न उठाने पाये उन्होंने अपने को कट्टर हिन्दू दिखाने और उसका राजनैतिक लाभ उठाने के लिए आपरेशन ब्लू स्टार जैसी योजना बना दी। उन्होंने भाजपा के हिन्दू राष्ट्रवाद से घबरा कर राजनैतिक लाभ उठाने के लिए सिक्खों पर हमला करवा कर साम्प्रदायिकता का नंगा नाच किया और 5 हजार सिक्ख को गुरुद्वारे के अंदर ही मारे गये। जो इंदिरा गांधी ने किया राजीव गांधी ने उसी साम्प्रदायिकता की भावना से सारे भारत में हिन्दू सिक्ख दंगे करा दिये और 10 हजार सिक्ख सारे भारत में मारे गये। जो समस्या सिक्खों की है वही समस्या भारत में मुसलमानों की है। इस प्रकार यदि हम निष्पक्ष विश्लेषण करें तो हिन्दू से मुसलमान कहीं अधिक सहिष्णु है और कम साम्प्रदायिक है। ये तो हिन्दू ही हैं जो धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर देश में दंगा भड़का कर आग लगाने की साजिश करते रहते हैं।
हिन्दू एक अनर्गल आरोप मुसलमानों पर यह भी लगाते हैं कि वे राष्ट्र की मुख्य धारा के अंग नहीं बने हैं। हिन्दू चाहते हैं कि मुसलमान हिन्दू की हर धारा को मान लें और अपनी शरियत कुरान सब छोड़ कर हिन्दू के नागरिक कानून को स्वीकार लें तभी वे राष्ट्र धारा से जुड़े माने जायेंगे। हिन्दू मुसलमानों को केवल इसलिए साम्प्रदायिक, राष्ट्रविरोधी और अनेक घृणाजनक अपमानों से सम्बोधित करता है क्योंकि वह यह चाहता है कि मुसलमान अपना ईमान बदल कर हिन्दू पंथ स्वीकार कर लें। आज वहीं ज्यादा साम्प्रदायिकता दिखाई देती है जहां हिन्दू बहुसंख्यक हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात जो हिन्दू बाहुल्य प्रांत हैं वही हिन्दू मुस्लिम दंगे अधिक होते हैं। तामिलनाडु, केरल, असम जैसे इलाकों में हिन्दू मुस्लिम तनाव नहीं के बराबर हैं क्योंकि यहां मुसलमान अधिक और हिन्दू बहुत कम हैं। इन इलाकों में मुसलमान और ईसाई द्रविड़ आदिवासी अधिक रहते हैं।
यदि हिन्दू सहिष्णुता से काम लेना प्रारम्भ कर दें तो हिन्दू मुसलमान साम्प्रदायिकता की समस्या हल हो सकती है। हमारे नेताओं ने इसीलिए धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्रा का मार्ग चुना था ताकि साम्प्रदायिक शक्तियों का जोर कम रहे पर दुर्भाग्य से हिन्दू कट्टरपन ने धर्मनिरपेक्षता को सदैव कमजोर किया है और जो हिन्दू शासक रहे हैं वे हिन्दू मुस्लिम भावना से ग्रसित हैं।
साम्प्रदायिक तत्व अफवाहों के सहारे इसका प्रसार करते हैं। इसके प्रसार के कारणों को रोका जाना चाहिए। साम्प्रदायिकता के विरुद्ध धर्म निरपेक्षता एक कारगर प्रयास है इस लिए धर्म निरपेक्षता का प्रचार प्रसार होना चाहिए।
साम्प्रदायिकतावाद परम्परावाद की जड़ से निकलता है। परम्पराओं के प्रति मोह साम्प्रदायिकता को जन्म देता है। यह सही है कि परम्परा में कुछ ऐसे जीवन तत्व होते हैं जो सामाजिक चेतना के अंग होते हैं पर इन परम्पराओं को इतना स्वार्थपरक बना दिया गया है कि इनसे अहित अधिक होता है और हित कम। इसलिए परम्परा का पीछा करना अब औचित्यहीन रह गया है।
साम्प्रदायिकता से देश विभाजन का खतरा है। साम्प्रदायिकता के जहर ने सम्पूर्ण देश को विषाक्त बना डाला है। हमें यह जानना बहुत आवश्यक है कि वे कौन सी परिस्थितियां हैं जिससे साम्प्रदायिकता का विषवृक्ष पल्लवित हुआ। हमें इन परिस्थितियों के अध्ययन के बाद उन्हीं संदर्भों में इसका निदान खोजना चाहिए।
यह सच है कि यहां में मुगलों से पूर्व शक, हूण, कुशान, मंगोल और गजनी के आक्रांता आये थे जिन्होंने देश के धन को भरपूर लूटा, सामूहिक कत्लेआम किये और स्त्राी पुरुषों को दास दासियां बना कर अरबस्तान को ले गये जहां उनमें से पुरुष का मूल्य 5 रुपया और स्त्राी का मूल्य 10 रुपया लगा कर चौराहों पर नीलाम कर दिया गया। ये आक्रांता आये और चले गये थे। जब मुगल भारत में आये तो वे वापस नहीं गये। यह घोर निकृष्ट सोच है कि भारत का हिन्दू शक और हूणों को विदेशी और आक्रांता नहीं कहता है और न आयोर्ं को ही जिन्होंने 60 हजार अनायोर्ंे का कत्लेआम किया था। शक, हूण, कुषान तीनों ही बाहरी हत्यारे आक्रांता थे पर वे भारत में बस गये। इन आक्रांताओं और मुगलों में क्या अंतर है फिर मुगलों को आक्रांता कहना कितनी बेइमानी की बात है। सच बात तो यह है कि मुगलों ने तो कोई कत्लेआम भी नहीं किया। अकबर ने तो सर्वधर्म समभाव की भावना से प्रेरित होकर दीन ए इलाही चलाया था। औरंगजेब जिस प्रकार बदनाम किया जाता है वह घृणा भाव के कारण बदनाम किया जाता है वरना अनेक हिन्दू उसके दरबार में उच्च पदों पर थे। अनेक मंदिरों के लिए उसने शाही खजाने से धन दिया था। उसे ÷जजिया कर' के लिए बदनाम किया जाता है पर जजिया तो उसने मुसलमानों पर भी लगाया था। औरंगजेब ने कोई मंदिर नहीं तुड़वाया बल्कि अनेक उदाहरण ऐसे भी मिल जायेंगे जहां स्वयं हिन्दू राजाओं द्वारा मंदिरों को ध्वस्त कराया गया था। कश्मीर के राजा हर्ष ने तो अनेक मूर्तियों को तुड़वाया था। मौर्य शासकों ने तो तमाम हिन्दू मूर्तियों को पिघला कर सिक्कों के लिए धातु इकट्ठी करायी थी।
खोजने पर नये तथ्य प्रकट हुए हैं कि भारत का इतिहास अंग्रेजों ने कम और हिन्दू लेखकों ने अधिक झूठे तथ्य घुसेड़ कर साम्प्रदायिक बनाया है और मुसलमानों के प्रति विषवमन किया है। विशम्भर नाथ पांडे पूर्व राज्यपाल उड़ीसा ने लिखा कि वे जब टीपू सुल्तान पर शोध कर रहे थे तो एक छात्रा के पास पुस्तक देखी, जिसमें लिखा था कि टीपू सुल्तान ने तीन हजार ब्राह्मणों को बलात इस्लाम धर्म कुबूल करने को विवश किया था और तीन हजार ब्राह्मणों ने आत्महत्या कर ली थी। यह लेख एक हिन्दू लेखक पंडित हरप्रसाद शास्त्राी का लिखा हुआ था। विशम्भर दयाल पांडे ने पं. हर प्रसाद से लिख कर पूछा कि यह कहां पर लिखा है तो हर प्रसाद ने कहा कि यह मैसूर के गजट में लिखा है पर गजट देखा गया, तो गजट में यह तथ्य कहीं नहीं पाया गया। इस प्रकार हिन्दू लेखकों ने मुसलमान बादशाहों के बारे में वैमनश्यतावश बहुत कुछ झूठ लिखा है। यही औरंगजेब के बारे में भी है। टीपू के बारे में तो यह प्रसिद्ध है कि उसका सेनापति ब्राह्मण था, वह 150 मंदिरों को प्रतिवर्ष अनुदान देता था, और श्रृंगेरी के जगतगुरु को बहुत मान्यता देता था। इससे साबित होता है कि इतिहास जानबूझ कर अंग्रेज लेखकों ने नहीं हिन्दू लेखकों ने ही झूठ लिखा है।
देश का विभाजन हुआ इसके लिए मुसलमान दोषी नहीं है। यदि गहराई से खोज की जाय तो तथ्य यही सामने आते हैं कि इसकी योजना तो सावरकर जैसे हिन्दू नेताओं के घरों में बनायी गयी थी। इस प्रकार मुसलमानों को दोषी ठहराना नितांत गलत है।
स्वतंत्राता के बाद यह सोचा गया था कि अब इस प्रकार का वातावरण तैयार किया जायगा जिससे देश में साम्प्रदायिकता की आग को ठंडा किया जायगा, किन्तु दुर्भाग्य है कि भारत की सरकार ने पिछले 44 साल में साम्प्रदायिक सौहार्द को बनाने के बजाय इसकी खाइर्ं को अधिक चौड़ा ही किया है। संविधान में भी स्पष्ट लिखा गया है कि किसी भी धार्मिक संगठन को सांस्कृतिक और शैक्षणिक कायोर्ं के अतिरिक्त किसी भी प्रकार साम्प्रदायिकता उभारने की अनुमति नहीं दी जायगी। पर हम बराबर देख रहे हैं कि साम्प्रदायिकता बराबर उभारी गयी है और संविधान को भी ताक में रख दिया गया है। कांग्रेस ने सत्ता में रहते हुए भी केरल और पंजाब में खूब धार्मिक नाटक खेले। आज तो धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर राजनैतिक पार्टियां बन रही हैं। आज तो धर्म के नाम पर ही नेतागीरी चमक रही है। धर्म के नाम पर राजनैतिक नेता यात्रााएं निकाल रहे हैं। आज विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों में कटुता पैदा करके राजनीति चलायी जा रही है। आज इस देश में धर्मयुद्ध लड़े जा रहे हैं। अतः आज आवश्यकता इस बात की है कि राजनीति के हर नापाक गठबंधन को रोका जाय। साम्प्रदायिकता राष्ट्र प्रजातंत्रा और समाज की दुश्मन है इससे बचा जाय। धर्म की राजनीति करने वाले चाहे वे व्यक्ति हों, चाहे संगठन इन पर रोक लगायी जाय और इनका दमन किया जाय।
आज साम्प्रदायिकता के विरुद्ध प्रभावी आंदोलन की आवश्यकता है। साम्प्रदायिकता का प्रश्न आज काफी जटिल हो चुका है। हमने इसे रोकने के लिए न तो कोई वैकल्पिक उपाय खोजा, न कोई संवैधानिक निदान ढूंढा। हमारे राजनैतिक दलों ने तो साम्प्रदायिकता का ही सहारा लिया। हिन्दू की मानसिकता यह बन चुकी है कि मुसलमान पाकिस्तान लेकर अपने हिस्से का भाग ले चुके हैं अब उन्हें भारत में रहने का कोई अधिकार नहीं है और यदि रहना है जो उनके अधीन होकर रहें।
हमारे इस साम्प्रदायिक जुनून के लिए बहुत कुछ कानूनी व्यवस्था का अभाव और संवैधानिक निष्क्रियता भी दोषी है हमारा संविधान तो निष्क्रिय इसलिए हो रहा है क्योंकि वह 44 साल से ऐसे हाथों में ही रहा है जो साम्प्रदायिकता उत्प्रेरक और प्रयोग करने वाले ही थे। हमारे यहां कानून ऐसा कोई नहीं बना है जो किसी घटना से पहले उसे रोकता हो या दंडित करता हो। यहां घटना हो जाने पर कानून काम करना प्रारम्भ करता है। हमारे यहां की न्याय व्यवस्था दूषित है क्योंकि किसी को दंडित करने के लिए इसमें साक्ष्य चाहिए। हत्या हुई, जज ने भी देखा, सरकारी वकील ने भी देखा पर अपराधी को दंड तभी मिलेगा जब कोई गवाह, चाहे फर्जी ही क्यों न हो, अदालत में जाकर अपना बयान दर्ज कराये। हमारा कानून तो ऐसा भी है कि घटना हुई ही न हो और गवाह अदालत में झूठी गवाही दे दे तो आरोपी को सजा कर देगा, जहां कानून इस प्रकार अंधा हो उससे विवेक की आशा नहीं करनी चाहिए।
हिन्दू समाज के उच्च तबकों (जातियों) में श्रेष्ठता का एक महारोग व्याप्त है। धर्म, जाति और लिंग सम्बंधी श्रेष्ठता की मानसिकता भी बहुत कुछ हमारी साम्प्रदायिक भावना को उभारने के लिए उत्तरदायी है। श्रेष्ठता की मानसिकता दूसरे के महत्व को स्वीकार करने की गुंजाइश समाप्त कर देता है और जब तथाकथित श्रेष्ठ तबके के अंह को कहीं ठेस पहुंचती है तो वह साम्प्रदायिकता पर उतर आता है। यह एक सामंती मनोवृत्ति है जो समानता की भावना के विपरीत है। यह सामंतवादी दर्शन हिन्दू समाज की आधारशिला है। इसमें सहनशीलता की कोई गुंजाइश नहीं है। आज अनेक हत्याकांड केवल श्रेष्ठता की सामंती भावना के परिणामस्वरूप ही उ+ंचे हिन्दुओं द्वारा दलितों के किये जाते हैं। ये अपने धर्म को श्रेष्ठ मानते हैं इसलिए मुसलमानों की हत्याएं करते हैं। इस प्रकार सामंतवादिता और श्रेष्ठता की भावना ने सहनशीलता समाप्त कर हिन्दू समाज में जड़ता पैदा कर दी है। इस जड़ता को जब कोई कुरेदता है तो हिंसक साम्प्रदायिकता खड़ी हो जाती है। सन् 1955 से लेकर 1989 तक अस्पृश्यता अपराध अधिनियम और अनुसूचित जाति अत्याचार अपराध अधिनियम इसी कारण असफल हो गये। इस प्रकार इस श्रेष्ठता और सामंतवादी भावना का उन्मूलन हुए बिना साम्प्रदायिकता को रोक पाना सम्भव नहीं है।
कुछ विचारकों की यह धारणा है कि साम्प्रदायिकता के विरुद्ध समाज को शिक्षित किया जाय और शिक्षा का स्तर बचपन से ही सुधारा जाय परंतु जहां शिक्षा के कोर्स में साम्प्रदायिकता उभाड़ने वाले पाठ होंगे, अंधविश्वास और धर्मांधता वाले पाठ बच्चों को पढ़ाएं जायेंगे वहां साम्प्रदायिकता बढ़ने के अतिरिक्त घटने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता है। इसीलिए यह आवश्यक है कि बच्चों के लिए शिक्षा का पाठ्यक्रम राष्ट्रीय सहमति के आधार पर निर्धारित किया जाय।
साम्प्रदायिकता के विरुद्ध एक आंदोलन की आवश्यकता है जो भाषणों तक सीमित न रह कर व्यवहार में उतारा जाना चाहिए। सामूहिक विवाह, सामूहिक भोज और सामूहिक गोष्ठियां होनी चाहिए। आक्रोश हिंसा को बढा+ता है। आंदोलनों से साम्प्रदायिक आक्रोश घटेगा और हिंसा पर रोक लगायी जा सकेगी।
श्रेष्ठता पर आधारित साम्प्रदायिकता का भाव मनुष्यता के अस्तित्व को नकारता है और यह मनुष्य के जीने की स्वायत्तता को स्वीकार नहीं करता है। जनतंत्रा इसके लिए एक अतिउत्तम माध्यम है। हमारे यहां सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि किताबी रूप में हमने जनतंत्रा को वरण कर लिया है पर व्यवहार में इसे जातिवाद और धर्मवाद से घिनौना बना दिया है। एक धर्म और जाति के लोग अपने प्रत्याशी को विधानसभा और लोकसभा में पहुंचाने के लिए बूथ कैप्चर कर लेते हैं। हां बूथ कैप्चरिंग यदि निचली जातियों द्वारा की जाती होती तो कोई कारगर उपाय सत्ता द्वारा अवश्य कर दिया गया होता चूंकि सत्ता पर उच्चवर्ण हावी है और बूथ कैप्चर उन्हीं के लोग करते हैं तो वे इस पर क्यों रोक लगायें। यह भी साम्प्रदायिकता है। इसने तो प्रजातंत्रा को इतना दूषित बना दिया है कि दुर्गंध आने लगी है। प्रजातंत्रा का आशय यही था कि हर आदमी को सत्ता में समान हिस्सेदारी मिले और कमजोर को भी सबल के समान सबल बनाया जाय। पर ऐसा हुआ नहीं। यदि प्रजातंत्रा को ही सही अथोर्ं में भारत में लागू कर दिया जाय तो साम्प्रदायिकता के उन्मूलन में बहुत कुछ सहयोग मिल सकता है।
भारत में जब भी साम्प्रदायिकता की बात चलती है तो उसका आशय हिन्दू मुस्लिम सम्बंधों से ही लिया जाता है। यदि साम्प्रदायिक समस्या के समाधान की बात कही जाती है तो हिन्दू मुस्लिम विरोध को समाप्त करने का ही अर्थ माना जाता है। भारत में सम्प्रदाय का संदर्भ हिन्दू मुस्लिम ही है। यदि हिन्दू मुस्लिम किसी सहयोगात्मक प्रयास से भेद मिटाने में सफल हो जाते हैं तो भारत साम्प्रदायिकता से मुक्त देश कहलाया जा सकता है। जातिगत भेद रहेगा सवर्ण और अवर्ण का भेद रहेगा। पर साम्प्रदायिकता का उन्मूलन माना जा सकता है। क्योंकि अब तक की साम्प्रदायिकता का भारतीय परिवेश में धर्म ही आधार माना जाता रहा है।
हिन्दू मुस्लिम समस्या का समाधान अब तक नहीं हुआ यद्यपि अंग्रेजों से स्वतंत्रा हुए भारत ने 44 साल बिता दिये। इसके कुछ राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक कारण रहे हैं किन्तु धर्म ही साम्प्रदायिकता के मूल में आता है।
साम्प्रदायिकता के हल के लिए हम हिन्दू मुस्लिम दोनों धर्मों के दृष्टिकोण को समझ कर ही यदि इसके उन्मूलन का कोई निदान खोजें तो सफलता के निकट शीघ्र पहुंच सकते हैं।
यदि इस्लाम के धार्मिक दृष्टिकोण को समझा जाय तो हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि स्वार्थ और सत्ता के लालच के कारण ही इस्लाम और मुसलमान समुदाय की हिन्दुओं द्वारा आलोचना की गयी है। इस्लाम को असहिष्णु तथा मुसलमानों को आक्रामक बताया है किन्तु यह हिन्दू कथन नितांत गलत एवं भ्रामक है। हिन्दू और हिन्दू धर्म की तुलना में इस्लाम और मुसलमान अधिक सहिष्णु है। यहां दोनों धमोर्ं और समुदायों की तुलना का विषय नहीं है अन्यथा यह सिद्ध करने में एक अलग से पूरा ग्रंथ ही बन जायगा। इस तुलना को छोड़ कर हम यह सिद्ध कर रहे हैं कि यह मात्रा हिन्दुओं का पूर्वाग्रह है और पूर्ण राजनैतिक सत्तासीन होने का फरेब है। हम इस्लाम के कुछ सिद्धांतों का जिक्र करते हैं। इससे यह समझने में समर्थ हो सकेंगे कि यह धर्म सहिष्णु है या असहिष्णु है। इस्लाम के बारे में कहा जाता है कि यह धर्म यह कहता है कि जो इस्लाम का बंदा नहीं वह काफिर है अर्थात् वह एकत्ववाद का हामी है और अनेकत्व को नकारता है। परंतु ऐसा नहीं है। सबके लिए कुरान कहता है, देखियेᄉ ''यदि अल्लाह की मर्जी होती तो तुम सबको एक ही जन समुदाय बनाता परंतु वह उसी में तुम्हारी परीक्षा ले सकता है जो तुम्हें उसने दिया है।'' (कुरान- 5:48) इससे स्पष्ट होता है कि वह दूसरों को भी समान मान्यता देता है।
आगे कुरान कहता हैᄉ ''हमने हर जाति समूह के लिए धर्माचरण के नियम निश्चित कर दिये हैं जिसका वे पालन करते हैं इसमें ऐसा कुछ नहीं किया जिस बात को लेकर वे तुझसे झगडं+े।'' (कुरान-22-67) आगे कुरान और स्पष्ट करते हुए हर धर्म के प्रति आदर भाव रखने की स्पष्ट घोषणा करता हैᄉ ''हर समुदाय के लिए हमने कुछ धार्मिक किया कर्म तय कर दिये हैं जिनका पालन करते हुए वे परवर दिगार का नाम पढ़ सकते हैं।'' (कुरान 22:34)। कुरान इस्लाम को स्पष्ट करते हुए कहता है कि यह धर्म बाध्यता का समर्थन नहीं करता है अर्थात् किसी को बाध्य नहीं करता कि वह इस्लाम का बंदा बन जाये (कुरान-2:256)। इस्लाम के बारे में प्रचार किया जाता है कि वह दूसरे धर्मस्थलों को खसाने की सलाह देता है। कुरान कहता हैᄉ ''यदि अल्लाह ने कुछ लोगों को दूसरों के द्वारा नहीं रोका होता तो मंदिर और गिरजाघर जिनमें अल्लाह का ही नाम लिया जाता है नष्ट कर दिये गये होते।'' (कुरान-22:40)। यह उदाहरण स्पष्ट करता है कि कुरान मंदिर और गिरजाघर सबको आदर देता है। इसलिए मंदिरों को मुसलमानों द्वारा ढहाने की इजाजत नहीं देता है। इस्लाम के बारे में प्रचार किया जाता है कि वह यह शिक्षा देता है कि जो इस्लाम का बंदा नहीं उसको कत्ल कर दो, किन्तु यह भी झूठ है। कुरान कहता है किसी पर ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है जो चाहे वैसा धर्म अपनाये। कुरान कहता हैᄉ ''हर कौम के लिए एक मसीहा है न्याय उसी के द्वारा निपटाया जाता है।'' (कुरान-10-47)। कुरान हर धर्म पैगम्बर अवतार को बराबर मानता है।
इस प्रकार कुरान की शिक्षाएं किसी धर्म या किसी धर्म के अवतार के विरुद्ध नहीं हैं।
हिन्दू कहते हैं कि मुसलमान उन्हें काफिर कहते हैं। एक किस्सा आता है कि हजरत मौहम्मद ने बहरीन और ओमान के लोगों से संधि की थी और उन्हें स्वीकार किया था। इस प्रकार हजरत मौहम्मद साहब जब दूसरों से मिलने की बात करते हैं तो हिन्दुओं के साथ क्यों नहीं मिल सकते थे।
यह तो रही कुरान और हजरत साहब की बातें अब यहां कुछ इस्लाम के विद्वानों के विचार भी देखिएᄉ इतिहासकार अलजहीज कहता है कि ÷भारत एक बहुत तरक्की वाला देश है' अब्दुल करीम शहरस्तानी कहता है कि भारतवासी एक महान समुदाय है। अलम सूदी ने तो ब्राह्मणों तक की तारीफ की है। इस प्रकार मुसलमान विद्वानों ने भारत के हिन्दुओं की आलोचना नहीं तारीफ की है। तीसरे खलीफा उथमान ने तो असभ्य और क्रूर अफ्रीकन तक को अच्छा बताया है फिर हिन्दुओं को कैसे बुरा बताया होगा। मौहम्मद इब्न कासिम को उलेमाओं ने सलाह दी थी कि हिन्दुओं को काफिर न कहा जाय। संत निजामुद्दीन औलिया ने कहा थाᄉ ÷हर कौम का (हिन्दू का भी) अपना एक धर्म है'ᄉ महाराष्ट्र के सूफी संत ने मराठी और संस्कृत में अपना ÷योग संग्रह' लिखा। गुजरात के कुछ सूफियों ने तो हजरत को ही कृष्ण का अवतार लिख दिया।
इस प्रकार इस्लाम धर्म का कुरान, हजरत पैगम्बर मौहम्मद साहब और उलेमा के हिन्दू धर्म और हिन्दुओं से नफरत न करने की ही सलाह देते हैं फिर उन पर हिन्दुओं के विरोधी होने का आरोप सही नही हैं।
दूसरी ओर हिन्दू धर्म की पुस्तकें रामायण, वेद, शास्त्राों में मुसलमानों को यवन म्लेच्छ कह कर गालियां दी गयी हैं। वेदों में कहा गयाᄉ ''हम जिनसे घृणा करते हैं या जो हमसे घृणा करते हैं उन्हें ऐ दसों दिशाओं के देवताओं उन्हें तुम अपने जबड़ों में रख कर खा जाओ।'' तुलसी की रामायण कहती हैᄉ ÷आमीर यवन किरात खस स्वंपचादि अतिअघ उ+पजे' अर्थात यवन अत्यंत नीच पैदाइश है।
इस प्रकार हम यदि यथार्थ कहना चाहें तो तथ्य यही है कि इस्लाम, उसके पैगम्बर उलेमा और महान फकीर और लेखक अधिक सहिष्णु हैं तुलना में हिन्दू धर्मशास्त्रा और हिन्दुओं के नेताओं और धर्माचायोर्ं के। अतः मुसलमानों को असहिष्णु कह कर उनकी आलोचना करना हिन्दुओं में एक फैशन बन गया है जो वैमनस्य बढ़ाने के लिए बहुत अंश तक जिम्मेदार है।
जो दृष्टिकोण हिन्दू धर्मग्रंथ, हिन्दू देवता, संत, मुनी इस्लाम के प्रति विद्वेष भरा रखते हैं वही झगड़े की जड़ हैं। हिन्दू राजनीतिज्ञ तो और भी इस साम्प्रदायिकता को बढ़ाने के लिए जिम्मेदार है। इंदिरा गांधी का ही उदाहरण हमारे सामने है। हिन्दू कट्टरवादिता का बढ़ता जोर देख कर कि कहीं इसका लाभ भाजपा न उठाने पाये उन्होंने अपने को कट्टर हिन्दू दिखाने और उसका राजनैतिक लाभ उठाने के लिए आपरेशन ब्लू स्टार जैसी योजना बना दी। उन्होंने भाजपा के हिन्दू राष्ट्रवाद से घबरा कर राजनैतिक लाभ उठाने के लिए सिक्खों पर हमला करवा कर साम्प्रदायिकता का नंगा नाच किया और 5 हजार सिक्ख को गुरुद्वारे के अंदर ही मारे गये। जो इंदिरा गांधी ने किया राजीव गांधी ने उसी साम्प्रदायिकता की भावना से सारे भारत में हिन्दू सिक्ख दंगे करा दिये और 10 हजार सिक्ख सारे भारत में मारे गये। जो समस्या सिक्खों की है वही समस्या भारत में मुसलमानों की है। इस प्रकार यदि हम निष्पक्ष विश्लेषण करें तो हिन्दू से मुसलमान कहीं अधिक सहिष्णु है और कम साम्प्रदायिक है। ये तो हिन्दू ही हैं जो धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर देश में दंगा भड़का कर आग लगाने की साजिश करते रहते हैं।
हिन्दू एक अनर्गल आरोप मुसलमानों पर यह भी लगाते हैं कि वे राष्ट्र की मुख्य धारा के अंग नहीं बने हैं। हिन्दू चाहते हैं कि मुसलमान हिन्दू की हर धारा को मान लें और अपनी शरियत कुरान सब छोड़ कर हिन्दू के नागरिक कानून को स्वीकार लें तभी वे राष्ट्र धारा से जुड़े माने जायेंगे। हिन्दू मुसलमानों को केवल इसलिए साम्प्रदायिक, राष्ट्रविरोधी और अनेक घृणाजनक अपमानों से सम्बोधित करता है क्योंकि वह यह चाहता है कि मुसलमान अपना ईमान बदल कर हिन्दू पंथ स्वीकार कर लें। आज वहीं ज्यादा साम्प्रदायिकता दिखाई देती है जहां हिन्दू बहुसंख्यक हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात जो हिन्दू बाहुल्य प्रांत हैं वही हिन्दू मुस्लिम दंगे अधिक होते हैं। तामिलनाडु, केरल, असम जैसे इलाकों में हिन्दू मुस्लिम तनाव नहीं के बराबर हैं क्योंकि यहां मुसलमान अधिक और हिन्दू बहुत कम हैं। इन इलाकों में मुसलमान और ईसाई द्रविड़ आदिवासी अधिक रहते हैं।
यदि हिन्दू सहिष्णुता से काम लेना प्रारम्भ कर दें तो हिन्दू मुसलमान साम्प्रदायिकता की समस्या हल हो सकती है। हमारे नेताओं ने इसीलिए धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्रा का मार्ग चुना था ताकि साम्प्रदायिक शक्तियों का जोर कम रहे पर दुर्भाग्य से हिन्दू कट्टरपन ने धर्मनिरपेक्षता को सदैव कमजोर किया है और जो हिन्दू शासक रहे हैं वे हिन्दू मुस्लिम भावना से ग्रसित हैं।
अयोध्या समस्या
अयोध्या विवाद के तीन पक्ष हैं। हिन्दू पक्ष की मान्यता है कि (1) अयोध्या में राम का जन्म हुआ (2) जहां राम का जन्म हुआ था मस्जिद बना दी गयी (3) यह मस्जिद बाबर ने मंदिर तोड़ कर बनवायी थी। मुसलमान पक्ष का कहना है कि (1) जहां मस्जिद है वहां कोई मंदिर नहीं था। (2) बाबर ने मंदिर तोड़ कर मस्जिद नहीं बनवायी है। एक तीसरा पक्ष हैᄉ बौद्ध। बौद्धों का कहना है कि वहां पर वैष्णव मंदिर नहीं था बल्कि बौद्ध मठ था और खुदाई से यह बौद्ध मठ ही प्रमाणित होता है। राम के नाम का कोई व्यक्ति पैदा ही नहीं हुआ। आज यह साम्प्रदायिक समस्या विकराल रूप धारण कर गयी है। इस पर हम यहां संक्षेप में विचार करते हैं।
विश्व हिन्दू परिषद का कहना है कि हिन्दुओं का यह विश्वास है कि अयोध्या राम जन्मभूमि है किन्तु यह बात संदेह उत्पन्न करती है क्योंकि हिन्दू धर्म के किसी प्राचीन ग्रंथ में इसका कोई ऐसा वर्णन नहीं मिलता है जिसे साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सके। हिन्दुओं के किसी भी धर्मग्रंथ में ऐसा नहीं लिखा गया है कि अयोध्या में अमुक स्थान पर राम का जन्म हुआ था, वहां जाकर आराधना करनी चाहिए। कामिल बुल्के ने अपनी राम कथा में वाल्मीकि रामायण, गोविन्द रामायण, बलराम रामायण, भुषुंडी रामायण, भवभूति का रामचरित, बौद्ध रामायण (दशरथ जातक), रामचरित् मानस, जैन रामायण, भावार्थ रामायण, तिब्बती रामायण, कश्मीरी रामायण, आनंद रामायण, कम्ब रामायण, अग्निवेश रामायण, अध्यात्म रामायण 16-17 किस्म की रामायणों में राम कथाओं का वर्णन किया है किन्तु किसी में भी राम के जन्मस्थल का वर्णन नहीं है। विश्व हिन्दू परिषद अयोध्या में राम जन्मभूमि का साक्ष्य प्रस्तुत करती है, उसका उल्लेख हम पहले करते हैंᄉ
पहला साक्ष्य- विश्व हिन्दू परिषद केवल एक ग्रंथ ऐसा पेश कर पायी है और वह भी है एक पुराण। स्कंद पुराण में राम के जन्मस्थान का वर्णन है जिसमें अयोध्या का महात्म्य दर्शाया गया है और उसके दर्शन का महत्व समझाया गया है। पुराणों के बारे में यह कौन नहीं जानता है कि ये आल्हा खंड से भी अधिक गपोड़ों के संग्रह हैं और इन पुराणों की रचना का समय सबसे बाद का है। इनकी रचना में उ+लजलूल आख्यानों की भरमार है और इनका इसीलिए कोई लेखक भी नहीं दिखाया गया है। यदि हम स्कंद पुराण को ही लें तो यह पुराण 16वीं सदी के बाद का ही लिखा गया प्रमाणित होता है। इस पुराण में विद्यापति का उल्लेख है जिसकी मृत्यु 16वीं सदी में हुई थी। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि स्कंद पुराण का यह ÷अयोध्या महात्म्य' अनुभाग मात्रा क्षेपक है और बाद को जोड़ा गया है। यदि इस पुराण के कथन को मान भी लिया जाय तब भी तो जहां बाबरी मस्जिद बनी हुई है उस स्थान पर राम का जन्म होना प्रमाणित नहीं होता है। महात्म्य के वृंदावन वाले और वोडलेमन पुस्तकालय वाले संस्करण के अनुसार राम के जन्मस्थान की दिक्सूचक दिशा और दूरियां उल्लिखित हैं। छंद 21 से 24 तक के वर्णन में जन्म स्थल लौमश के पच्छिम की ओर 1009 धनुष (1835 मीटर) की दूरी पर स्थित है। हिन्दू मान्यता के अनुसार लोमस की जगह ऋणमोचन घाटवाली जगह है। इस मान्यता के आधार पर राम जन्मभूमि सरयू नदी की तलहटी में ब्रह्मकुंड के पास बैठती है। दूसरा कथन है कि जन्मस्थान विनेश के उत्तर पूर्व में स्थित है। यह विनेश का स्थल ऋणमोचन से दक्षिण पश्चिम को है। यह स्थान भी वह नहीं बैठता जहां बाबरी मस्जिद बनी है।
अयोध्या महात्म्य में जन्मस्थान से कहीं अधिक स्वर्ग द्वार का विशेष महत्व है। स्कंद पुराण में स्वर्ग नर्क का वर्णन है और उल्लेख है कि यहां से राम स्वर्ग गये थे। इस स्थल पर वासुदेव की पूजा का वर्णन है। किसी मंदिर के चिह्न होने का वर्णन यहां भी नहीं है। सारे विवरण से स्पष्ट होता है कि 11वीं सदी से 18वीं सदी तक ऐसा कोई प्रमाणित ग्रंथ का साक्ष्य नहीं है जो राम के जन्म को अयोध्या में अमुक स्थान पर प्रमाणित करता हो। राम जन्म का स्थान 18वीं सदी के बाद जोड़ा गया। इस आधार पर यह कहना भी झूठ प्रमाणित हो जाता है कि अयोध्या में राम जन्मभूमि से हिन्दू आस्था जुड़ी हुई है।
दूसरा साक्ष्यᄉ विश्व हिन्दू परिषद अपना पक्ष प्रस्तुत करते समय दूसरा साक्ष्य यह प्रस्तुत करती है कि बाबरी मस्जिद में 14 काले पत्थरों के जो स्तम्भ लगे हैं वे गैर इस्लामी हैं। यह साक्ष्य (पॉजिटिव न होकर निगेटिव हैं) सकारात्मक न होकर नकारात्मक है अर्थात मस्जिद नहीं हो सकती है इसलिए मंदिर है। मंदिर है यह सीधा साक्ष्य नहीं है। इस नकारात्मक साक्ष्य का अर्थ यह भी हो सकता है कि यदि मस्जिद न हो तो मंदिर भी न हो और बौद्ध मठ हो।
जहां तक काले पत्थरों का प्रश्न है यह प्रमाणित करना होगा कि काले पत्थर मस्जिद में नहीं लगते ? दूसरे यह कि क्या ये मस्जिद निर्माण के समय के ही हैं या बाद को सजावट के लिए बाहर से लाकर लगवाये गये हैं। इसका निर्णय करने में एक महत्वपूर्ण तथ्य बहुुत सहायक होगा कि इस मस्जिद के करीब डेढ़ मील दूरी पर एक कब्रगाह है। अब कब्रगाह में भी दो काले पत्थर वाले खम्भे लगे हैं। एक दूसरा तथ्य कि बिहार में अनेक ऐसी मस्जिदें हैं जिनमें चौखटे काले वैसाल्ट पत्थर के बने हैं। ये पत्थर पाल राजाओं के काल में बनी मस्जिदों में लगाये गये हैं। पटना के गूजरी मौहल्ले में बनी 17वीं सदी की मस्जिद इसका उदाहरण है। इसमें काले पत्थर के खम्भे लगे हैं। इससे दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। 1. पहला यह कि मस्जिद में काले पत्थर का लगाना कोई इस्लाम के विरुद्ध नहीं है। 2. दूसरे यह कि ये काले पत्थर जिस लम्बाई में लगे हैं वह छत तक न होकर 5 फिट के बराबर ही हैं जो मस्जिद के अलंकरण के लिए लगाये गये हों। चूंकि काले पत्थर अयोध्या के पास नहीं मिलते तो पटना के पास भी तो नहीं मिलते हैं। जब बाहर से लाकर ये पटना की मस्जिदों में लगाये जा सकते हैं तो अयोध्या में बाहर से लाकर क्यों नहीं लगाये जा सकते हैं। हो सकता है कि मंदिर के अलंकरण हेतु ये काले पत्थर बाहर से लाकर बाद को मस्जिद में स्तम्भ के रूप में प्रयुक्त किये गये हों।
इन खम्भों के साक्ष्य में एक बात और ध्यान देने की है। विश्व हिन्दू परिषद का कहना है कि इन खम्भों पर जो वनमाला का चित्रा अंकित है वह वैष्णव चिह्न है इसलिए ये खम्भे मंदिर के हैं किन्तु इसमें सच्चाई नहीं है। वैष्णव पंथ के विष्णु के शंख, चक्र, गदा और पदम चार प्रतीक हैं किन्तु इन चार में एक भी चिह्न इन खम्भों पर अंकित नहीं है। वनमाला तो हर हिन्दू पंथ प्रयोग करता है और हिन्दू के अतिरिक्त दूसरे सम्प्रदाय भी। इस प्रकार काले खम्भों से हिन्दू मंदिर होना प्रमाणित होता हो ऐसा कुछ नहीं है। खम्भों की जो लम्बाई है कि तल से 5 फुट के करीब उ+ंचे हैं ये छत तक नहीं हैं तो ये दीवार के साथ के नहीं हो सकते हैं। बाद को अलंकरण हेतु बाहर से लाकर लगाये गये प्रमाणित होते हैं।
एक प्रोफेसर वी. वी. लाल को बाबरी मस्जिद के दक्षिण में कुछ ईंट वाले आधार मिले हैं जिनसे मंदिर होने की कल्पना की जा सकती है किन्तु यह शोधपत्रा 11 वर्ष बाद 1990 में प्रकाशित किया गया। इसमें इन ईटों के आधार वाले निर्माण का काल उत्तर मध्य काल बताया गया है जिसका अर्थ होता है 17वीं, 18वीं शताब्दी। यदि मान लिया जाय कि 17वीं, 18वीं शताब्दी में मस्जिद के दक्षिण में कोई मंदिर भी था तो 16वीं सदी में बनी मस्जिद को मंदिर तोड़ कर बनाया गया था कैसे सिद्ध होता है।
इस प्रकार स्तम्भ और ईंट वाले आधार के सहारे यह सिद्ध नहीं होता कि बाबरी मस्जिद के निर्माण से पूर्व यहां किसी प्रकार के मंदिर का अस्तित्व था।
खुदाई से मस्जिद की उ+पर की खाइयां और मस्जिद के तल के ठीक नीचे कलईदार बर्तन मिले हैं। इससे भी यह निष्कर्ष निकलता है कि मस्जिद स्वतंत्रा जगह पर बनी थी। हिन्दू मंदिर में कलई के बर्तन मिलने का प्रश्न ही नहीं उठता। कलई मुसलमानों की निजी देन है। इससे एक बात सिद्ध होती है कि ये बर्तन जो 13-14वीं सदी के मिले हैं यहां 13-14वीं सदी में मुसलमान बस्ती का होना पाया जाता है और बाबर ने भी वहीं मस्जिद बनवायी थी जहां मुसलमान रहते होंगे, हिन्दू नहीं। खुदाई में कोई हिन्दू पात्रा नहीं निकला है। ये कलई के बर्तन मुसलमानों की बस्ती होने का संकेत देते हैं और मुसलमानों के लिए मस्जिद भी नमाज पढ़ने के लिए बनायी गयी होगी।
इस प्रकार खम्भों, ईंटों, बर्तनों के आधार पर यह सिद्ध होता कि मस्जिद मंदिर तोड़ कर बनायी गयी है। अतः यहां विश्व हिन्दू परिषद ने जो बातें कही हैं उनमें एक भी यह सिद्ध नहीं करती कि आज जहां बाबरी मस्जिद बनी हुई है वहीं कभी कोई मंदिर था।
मस्जिद के स्थान पर मंदिर होने की कल्पना विदेशी लोगों ने फैलायी है। सबसे पहले 1788 में एक बर्लिन के पादरी ने अपनी पुस्तक में जिक्र किया था। उसने लिखा किᄉ ''औरंगजेब ने रामकोट किला ध्वस्त किया था और उसकी जगह मस्जिद बनवायी थी। कुछ का कहना है कि यह बाबर ने बनवाया था उसने पांच पांच बालिस्त उं+चे 14 काले पत्थरों के खम्भे खड़े किये थे। इन काले पत्थरों का मलवा हनुमान जी द्वारा लंका से लाया गया था। यहां एक चौकी का भी उल्लेख है जिसे राम की जन्मस्थली बताते हैं। यह 525ग्4 क्षेत्राफल में है।''
जब तक उक्त पुस्तक नहीं लिखी गयी थी किसी को मस्जिद मंदिर तोड़ कर बनायी गयी होने की कल्पना भी नहीं थी। 1810 में फ्रेंसिस बुकनान ने अयोध्या की यात्राा की, उसने लिखा कि राजा विक्रम पवित्रा नगर की खोज में यहां आया था उसने ÷रामगढ'+ नामक किला बनवाया और 360 मंदिर बनावाये। बुकनान ने लिखा कि यहां यह विश्वास है कि बनारस, मथुरा की भांति अयोध्या के मंदिर भी औरंगजेब ने तुड़वाये किन्तु ऐसा लगता है कि औरंगजेब की पांच पीढ़ी पहले बाबर ने इस मस्जिद को बनवाया था इससे विक्रम का मंदिरों को बनवाने की कहानी झूठ हो जाती है।
इन विदेशी लेखकों के एक दूसरे के विरोधी और स्वयं के द्वंद्वात्मक कथन सिवाय भ्रांति पैदा करने के कोई निष्कर्ष निकाल कर नहीं देते हैं। कभी कहना हनुमान जी पत्थर लाये थे, कभी कहना कि विक्रम ने मंदिर बनाये थ,े कभी औरंगजेब ने मंदिर तुड़वाया, तो कभी बाबर ने तुड़वाया, ऐसे कथन हैं जिनका स्वयं में कोई अर्थ नहीं निकलता है और सब संदेह पैदा करते हैं। बुकनान ने तो इन पत्थरों के खम्भों से निष्कर्ष निकाला था कि ये किसी मंदिर के न होकर किसी इमारत से लिए गये हैं। इस कथन से तो विश्व हिन्दू परिषद की खम्भों की सारी कहानी चौपट हो जाती है।
विश्व हिन्दू परिषद अपने साहित्य और किसी धर्मग्रंथ से यह सिद्ध नहीं कर सकी है अयोध्या में बाबरी मस्जिद, मंदिर तोड़ कर बनायी गयी हो। परिषद यह कह सकती है कि हमारे धर्मग्रंथ पहले के लिखे गये हैं और बाबर से पहले लिखे गये हैं उनमें बाबरी मस्जिद का वर्णन हो ही नहीं सकता है। यदि यहां कोई राम का मंदिर होता तो उसका वर्णन तो होता जिससे यह सिद्ध किया जा सके कि अयोध्या में राम जन्मस्थल पर कोई मंदिर था। जब शास्त्रा, पुराण, धर्म सूत्रा और स्मृति ग्रंथ में ऐसा कोई वर्णन नहीं है जिससे यह सिद्ध होता है कि राम की जन्मस्थली पर कोई मंदिर बनाया गया था और मंदिर होने का भी कोई वर्णन नहीं है तो किसने बनवाया, कब बनवाया, कैसे बनवाया और क्यों बनवाया, सोचना ही व्यर्थ है।
बाबर की तीसरी पीढ़ी में अकबर आता है। अकबर के जमाने में तुलसी पैदा होते हैं। वे राम के अनन्य भक्त बनते हैं और रामचरित मानस की रचना अवधी भाषा में करते हैं। यदि तुलसी के आराध्य राम की जन्मस्थली ध्वस्त करके मस्जिद बनायी गयी होती तो क्या तुलसी चुुप रहते। तुलसीदास ने अयोध्या को पूज्य स्थली ही नहीं माना है। उन्होंने प्रयाग को पूज्य माना है अयोध्या को नहीं। तुलसी 17वीं सदी में पैदा हुए थे तब ऐसी कहीं कोई चर्चा नहीं थी जहां बाबरी मस्जिद है वहां पहले कभी कोई राम मंदिर था। आइने अकबरी में अयोध्या का वर्णन है किन्तु अबुल फजल ने भी राम जन्मभूमि पर बने मंदिर को खसा कर मस्जिद बनवायी, का कोई वर्णन नहीं किया है। बाबर के डेढ़ सौ दो सौ साल बाद ही अकबर का काल आ जाता है और अकबर के काल में ही तुलसी और अबुल फजल काव्य रचना करते हैं तो हिन्दू और मुसलमान एक भी रचनाकार द्वारा राम के मंदिर को ढहा कर बाबरी मस्जिद बनवायी गयी का वर्णन नहीं है। इससे यही सिद्ध होता है कि बाबर ने मंदिर तुड़वा कर मस्जिद नहीं बनवायी थी।
17वीं सदी के प्रथम दशक में एक विलियम फ्लिंच ने अयोध्या में रह कर एक शोध लिखा था। उसने लिखा है कि यहां लोग राम का राज्य बताते हैं, उसे देवता मानते हैं। हिन्दू राम को अवतार मानते हैं। चार पांच लाख वर्ष पुरानी नहीं है। इसके किनारे ब्राह्मण रहते हैं जो रोज इसमें प्रातः नहाते हैं। यहां एक गहरी गुफा है। यह माना जाता है कि इस गुफा में राम की अस्थियां गड़ी हैं। बाहर से लोग यहां आते हैं और काले चावल यहां से ले जाते हैं। यहां से काफी सोना निकाला गया है। इस पुस्तक के वर्णन से राम के मरने का वर्णन मिलता है। जैसे स्कंद पुराण में स्वर्ग द्वार का वर्णन, जहां से राम स्वर्ग सिधारे परंतु इस ग्रंथ से भी राम यहां जन्मे थे उल्लेख नहीं मिलता है। इस ग्रंथ में भी तुलसी के मानस की भांति मंदिर का ध्वंस्त कर मस्जिद बनाने का कोई उल्लेख नहीं है। एक हिन्दू सुजान राय भंडारी नामक व्यक्ति के ग्रंथ ÷खुलासात ए तवारीख' में मथुरा और अयोध्या का जिक्र है। यह पुस्तक 1695-96 की मानी जाती है पर इसमें भी ऐसा कहीं वर्णन नहीं मिलता कि राम जन्मभूमि पर बने मंदिर को खसा कर बाबर ने कोई मस्जिद बनवायी। यह लेखक यहां एडम के बेटे शीश और पैगम्बर अयूब के मकबरों का वर्णन करता है पर राम के मंदिर का कोई जिक्र नहीं करता है।
एक और हिन्दू लेखक राय चर्तुन ने अपनी पुस्तक में राम का वर्णन तो किया है पर राम के मंदिर का वर्णन नहीं किया है। यह पुस्तक 1759-60 में लिखी गयी है।
इस प्रकार बाबर के समय बनी मस्जिद के निर्माण के दो सौ वर्ष बाद तक भारत के तुलसी, अवुल फजल तथा विदेशी फ्लिंच जैसे कलमकारों ने अयोध्या में राम के मंदिर का उल्लेख तक नहीं किया है। इससे यह स्पष्ट होता है विश्व हिन्दू परिषद के पास ऐसा कोई लिखित साक्ष्य नहीं है जो बाबरी मस्जिद के स्थान पर पहले मंदिर प्रमाणित कर सके। इसने जो पुरातात्विक साक्ष्य प्रस्तुत किये हैं वे बहुत लचर और संदिग्ध हैं।
अभिलिखित साक्ष्य एक और उपलब्ध है। मस्जिद निर्माण के बाद मस्जिद पर फारसी में खोदे गये अभिलेख हैं जिनका वर्णन बाबरनामा में मिलता है। ए. एस. वेविरिज द्वारा बाबर नामा का जो अनुवाद किया गया है उस बाबरनामा में शासक मीर बाकी का उल्लेख है। बाबरनामा में बाबरी मस्जिद और उस पर खुदे अभिलेखों का वर्णन है पर कहीं पर ऐसा नहीं प्रतीत होता कि कहीं भी मंदिर खसाकर मस्जिद बनवायी गयी हो। इस प्रकार खुदाई से प्राप्त साक्ष्य में मस्जिद में बने खम्भों के पुरातत्वीय साक्ष्य और अभिलेखों के साक्ष्य किसी से यह प्रमाणित नहीं होता है कि मंदिर खसा कर मस्जिद बनायी गयी थी। जो भी साक्ष्य अब तक प्राप्त हुआ है उससे निम्न निष्कर्ष निकलते हैं।
1. ग्रंथों के आधार पर ऐसा प्रमाणित होता है कि 18वीं सदी से पूर्व अयोध्या में राम जन्मभूमि के रूप में कोई स्थल पूज्यनीय नहीं था।
2. पुरातत्व और मस्जिद पर खुदे अभिलेखों के आधार पर यह कहीं सिद्ध नहीं होता कि बाबरी मस्जिद के स्थान पर मंदिर था और मंदिर ध्वस्त कर मस्जिद बनायी गयी।
3. सम्पूर्ण साहित्य के आधार पर यह सिद्ध होता है कि 19वीं सदी के आरम्भ तक राम मंदिर का कोई दावा नहीं था। यह चर्चा 1850 के दशक में प्रारम्भ हुई जब सीता रसोई को ध्वस्त करने की मात्रा बात उठी थी।
उ+पर के सारे विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद राम मंदिर को ध्वस्त कर बनायी गयी है, का बवेला व्यर्थ का ढकोसला है और मुसलमानों के विरुद्ध एक सोची समझी साजिश है। सोलहवीं सदी से लेकर उन्नीसवीं सदी तक तीन सौ चार सौ वर्षों तक जिसका मस्जिद बनने के बाद में कोई प्रमाण न मिलता हो ऐसा कोई बिन्दु खडा+ कर देना सोची समझी साजिश ही है और कुछ नहीं। आज मुसलमानों के विरुद्ध उनको नष्ट करने, उनका ईमान भ्रष्ट करने की साजिशें चली जा रही हैं वरना यह कौन बर्दाश्त कर लेगा कि जो मस्जिद सोलहवीं सदी में बनी हो उसे ध्वस्त करने का खिलवाड़ किया जाय। इस खिलवाड़ का परिणाम अत्यंत भयंकर होगा। भारतवासियों ने महाभारत की मात्रा कल्पना ही की है यदि मस्जिद खसायी गयी तो हो सकता है कि महाभारत एक बार पुनः भारत भूमि में देखने को मिल जाय।
इसलिए मेरा मानना है कि जिन्हें देश से प्यार है, जिन्हें इंसानियत से प्यार है उन्हें मंदिर मस्जिद के झगडे+ को समाप्त करना चाहिए और जो कुछ पाखंडी, स्वार्थी और धूर्त यह बवंडर फैला रहे हैं स्वयं हिन्दू समाज के प्रबुद्ध लोगों को ऐसी साम्प्रदायिकता फैलाने के कारण गला दबा देना चाहिए और मंदिर मस्जिद के प्रकरण को समाप्त कर देना चाहिए।
जहां तक नयी खोजें आ रहीं हैं उनके आधार पर यह सिद्ध होने लगा है कि राम नाम का कोई व्यक्ति अयोध्या में पैदा ही नहीं हुआ है। बौद्ध शासक वृहद्रथ को मार कर जब ब्राह्मण पुष्यमित्रा शासक बन बैठा तो इस शुंग विजय की कहानी को राम के विजय की कहानी बना कर मढ़ दिया गया है और पुष्यमित्रा शुंग ने जब बौद्धों का 100-100 दीनार में एक एक बौद्ध का सिर कटवाया था तभी जो बौद्ध मठ अयोध्या में बना था उसे ध्वस्त किया गया था और जब बाबर आया तो उसी स्थान पर उसने मस्जिद बनवा दी। इस प्रकार अयोध्या राम की नगरी न होकर गौतम की नगरी है और हिन्दू तीर्थस्थल न होकर बौद्ध स्थल है।
अब जो भी हो वर्तमान स्थिति में बदलाव असम्भव है। इसलिए जहां मस्जिद है उसे हटाया जाना न तो सम्भव है न उचित है। अगर हिन्दू मंदिर बनवाना ही चाहते हैं तो वे अपनी निजी भूमि में बनवायें सरकारी भूमि में नहीं। यदि दस लाख पहले से ही बने मंदिरों में एक की और बढ़ोत्तरी हो जाएगी तो उससे कौन सा पहाड़ टूट जायेगा। अब राम लला हम आयेंगे मंदिर वहीं बनायेंगे, सम्भव नहीं है।
विश्व हिन्दू परिषद का कहना है कि हिन्दुओं का यह विश्वास है कि अयोध्या राम जन्मभूमि है किन्तु यह बात संदेह उत्पन्न करती है क्योंकि हिन्दू धर्म के किसी प्राचीन ग्रंथ में इसका कोई ऐसा वर्णन नहीं मिलता है जिसे साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सके। हिन्दुओं के किसी भी धर्मग्रंथ में ऐसा नहीं लिखा गया है कि अयोध्या में अमुक स्थान पर राम का जन्म हुआ था, वहां जाकर आराधना करनी चाहिए। कामिल बुल्के ने अपनी राम कथा में वाल्मीकि रामायण, गोविन्द रामायण, बलराम रामायण, भुषुंडी रामायण, भवभूति का रामचरित, बौद्ध रामायण (दशरथ जातक), रामचरित् मानस, जैन रामायण, भावार्थ रामायण, तिब्बती रामायण, कश्मीरी रामायण, आनंद रामायण, कम्ब रामायण, अग्निवेश रामायण, अध्यात्म रामायण 16-17 किस्म की रामायणों में राम कथाओं का वर्णन किया है किन्तु किसी में भी राम के जन्मस्थल का वर्णन नहीं है। विश्व हिन्दू परिषद अयोध्या में राम जन्मभूमि का साक्ष्य प्रस्तुत करती है, उसका उल्लेख हम पहले करते हैंᄉ
पहला साक्ष्य- विश्व हिन्दू परिषद केवल एक ग्रंथ ऐसा पेश कर पायी है और वह भी है एक पुराण। स्कंद पुराण में राम के जन्मस्थान का वर्णन है जिसमें अयोध्या का महात्म्य दर्शाया गया है और उसके दर्शन का महत्व समझाया गया है। पुराणों के बारे में यह कौन नहीं जानता है कि ये आल्हा खंड से भी अधिक गपोड़ों के संग्रह हैं और इन पुराणों की रचना का समय सबसे बाद का है। इनकी रचना में उ+लजलूल आख्यानों की भरमार है और इनका इसीलिए कोई लेखक भी नहीं दिखाया गया है। यदि हम स्कंद पुराण को ही लें तो यह पुराण 16वीं सदी के बाद का ही लिखा गया प्रमाणित होता है। इस पुराण में विद्यापति का उल्लेख है जिसकी मृत्यु 16वीं सदी में हुई थी। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि स्कंद पुराण का यह ÷अयोध्या महात्म्य' अनुभाग मात्रा क्षेपक है और बाद को जोड़ा गया है। यदि इस पुराण के कथन को मान भी लिया जाय तब भी तो जहां बाबरी मस्जिद बनी हुई है उस स्थान पर राम का जन्म होना प्रमाणित नहीं होता है। महात्म्य के वृंदावन वाले और वोडलेमन पुस्तकालय वाले संस्करण के अनुसार राम के जन्मस्थान की दिक्सूचक दिशा और दूरियां उल्लिखित हैं। छंद 21 से 24 तक के वर्णन में जन्म स्थल लौमश के पच्छिम की ओर 1009 धनुष (1835 मीटर) की दूरी पर स्थित है। हिन्दू मान्यता के अनुसार लोमस की जगह ऋणमोचन घाटवाली जगह है। इस मान्यता के आधार पर राम जन्मभूमि सरयू नदी की तलहटी में ब्रह्मकुंड के पास बैठती है। दूसरा कथन है कि जन्मस्थान विनेश के उत्तर पूर्व में स्थित है। यह विनेश का स्थल ऋणमोचन से दक्षिण पश्चिम को है। यह स्थान भी वह नहीं बैठता जहां बाबरी मस्जिद बनी है।
अयोध्या महात्म्य में जन्मस्थान से कहीं अधिक स्वर्ग द्वार का विशेष महत्व है। स्कंद पुराण में स्वर्ग नर्क का वर्णन है और उल्लेख है कि यहां से राम स्वर्ग गये थे। इस स्थल पर वासुदेव की पूजा का वर्णन है। किसी मंदिर के चिह्न होने का वर्णन यहां भी नहीं है। सारे विवरण से स्पष्ट होता है कि 11वीं सदी से 18वीं सदी तक ऐसा कोई प्रमाणित ग्रंथ का साक्ष्य नहीं है जो राम के जन्म को अयोध्या में अमुक स्थान पर प्रमाणित करता हो। राम जन्म का स्थान 18वीं सदी के बाद जोड़ा गया। इस आधार पर यह कहना भी झूठ प्रमाणित हो जाता है कि अयोध्या में राम जन्मभूमि से हिन्दू आस्था जुड़ी हुई है।
दूसरा साक्ष्यᄉ विश्व हिन्दू परिषद अपना पक्ष प्रस्तुत करते समय दूसरा साक्ष्य यह प्रस्तुत करती है कि बाबरी मस्जिद में 14 काले पत्थरों के जो स्तम्भ लगे हैं वे गैर इस्लामी हैं। यह साक्ष्य (पॉजिटिव न होकर निगेटिव हैं) सकारात्मक न होकर नकारात्मक है अर्थात मस्जिद नहीं हो सकती है इसलिए मंदिर है। मंदिर है यह सीधा साक्ष्य नहीं है। इस नकारात्मक साक्ष्य का अर्थ यह भी हो सकता है कि यदि मस्जिद न हो तो मंदिर भी न हो और बौद्ध मठ हो।
जहां तक काले पत्थरों का प्रश्न है यह प्रमाणित करना होगा कि काले पत्थर मस्जिद में नहीं लगते ? दूसरे यह कि क्या ये मस्जिद निर्माण के समय के ही हैं या बाद को सजावट के लिए बाहर से लाकर लगवाये गये हैं। इसका निर्णय करने में एक महत्वपूर्ण तथ्य बहुुत सहायक होगा कि इस मस्जिद के करीब डेढ़ मील दूरी पर एक कब्रगाह है। अब कब्रगाह में भी दो काले पत्थर वाले खम्भे लगे हैं। एक दूसरा तथ्य कि बिहार में अनेक ऐसी मस्जिदें हैं जिनमें चौखटे काले वैसाल्ट पत्थर के बने हैं। ये पत्थर पाल राजाओं के काल में बनी मस्जिदों में लगाये गये हैं। पटना के गूजरी मौहल्ले में बनी 17वीं सदी की मस्जिद इसका उदाहरण है। इसमें काले पत्थर के खम्भे लगे हैं। इससे दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। 1. पहला यह कि मस्जिद में काले पत्थर का लगाना कोई इस्लाम के विरुद्ध नहीं है। 2. दूसरे यह कि ये काले पत्थर जिस लम्बाई में लगे हैं वह छत तक न होकर 5 फिट के बराबर ही हैं जो मस्जिद के अलंकरण के लिए लगाये गये हों। चूंकि काले पत्थर अयोध्या के पास नहीं मिलते तो पटना के पास भी तो नहीं मिलते हैं। जब बाहर से लाकर ये पटना की मस्जिदों में लगाये जा सकते हैं तो अयोध्या में बाहर से लाकर क्यों नहीं लगाये जा सकते हैं। हो सकता है कि मंदिर के अलंकरण हेतु ये काले पत्थर बाहर से लाकर बाद को मस्जिद में स्तम्भ के रूप में प्रयुक्त किये गये हों।
इन खम्भों के साक्ष्य में एक बात और ध्यान देने की है। विश्व हिन्दू परिषद का कहना है कि इन खम्भों पर जो वनमाला का चित्रा अंकित है वह वैष्णव चिह्न है इसलिए ये खम्भे मंदिर के हैं किन्तु इसमें सच्चाई नहीं है। वैष्णव पंथ के विष्णु के शंख, चक्र, गदा और पदम चार प्रतीक हैं किन्तु इन चार में एक भी चिह्न इन खम्भों पर अंकित नहीं है। वनमाला तो हर हिन्दू पंथ प्रयोग करता है और हिन्दू के अतिरिक्त दूसरे सम्प्रदाय भी। इस प्रकार काले खम्भों से हिन्दू मंदिर होना प्रमाणित होता हो ऐसा कुछ नहीं है। खम्भों की जो लम्बाई है कि तल से 5 फुट के करीब उ+ंचे हैं ये छत तक नहीं हैं तो ये दीवार के साथ के नहीं हो सकते हैं। बाद को अलंकरण हेतु बाहर से लाकर लगाये गये प्रमाणित होते हैं।
एक प्रोफेसर वी. वी. लाल को बाबरी मस्जिद के दक्षिण में कुछ ईंट वाले आधार मिले हैं जिनसे मंदिर होने की कल्पना की जा सकती है किन्तु यह शोधपत्रा 11 वर्ष बाद 1990 में प्रकाशित किया गया। इसमें इन ईटों के आधार वाले निर्माण का काल उत्तर मध्य काल बताया गया है जिसका अर्थ होता है 17वीं, 18वीं शताब्दी। यदि मान लिया जाय कि 17वीं, 18वीं शताब्दी में मस्जिद के दक्षिण में कोई मंदिर भी था तो 16वीं सदी में बनी मस्जिद को मंदिर तोड़ कर बनाया गया था कैसे सिद्ध होता है।
इस प्रकार स्तम्भ और ईंट वाले आधार के सहारे यह सिद्ध नहीं होता कि बाबरी मस्जिद के निर्माण से पूर्व यहां किसी प्रकार के मंदिर का अस्तित्व था।
खुदाई से मस्जिद की उ+पर की खाइयां और मस्जिद के तल के ठीक नीचे कलईदार बर्तन मिले हैं। इससे भी यह निष्कर्ष निकलता है कि मस्जिद स्वतंत्रा जगह पर बनी थी। हिन्दू मंदिर में कलई के बर्तन मिलने का प्रश्न ही नहीं उठता। कलई मुसलमानों की निजी देन है। इससे एक बात सिद्ध होती है कि ये बर्तन जो 13-14वीं सदी के मिले हैं यहां 13-14वीं सदी में मुसलमान बस्ती का होना पाया जाता है और बाबर ने भी वहीं मस्जिद बनवायी थी जहां मुसलमान रहते होंगे, हिन्दू नहीं। खुदाई में कोई हिन्दू पात्रा नहीं निकला है। ये कलई के बर्तन मुसलमानों की बस्ती होने का संकेत देते हैं और मुसलमानों के लिए मस्जिद भी नमाज पढ़ने के लिए बनायी गयी होगी।
इस प्रकार खम्भों, ईंटों, बर्तनों के आधार पर यह सिद्ध होता कि मस्जिद मंदिर तोड़ कर बनायी गयी है। अतः यहां विश्व हिन्दू परिषद ने जो बातें कही हैं उनमें एक भी यह सिद्ध नहीं करती कि आज जहां बाबरी मस्जिद बनी हुई है वहीं कभी कोई मंदिर था।
मस्जिद के स्थान पर मंदिर होने की कल्पना विदेशी लोगों ने फैलायी है। सबसे पहले 1788 में एक बर्लिन के पादरी ने अपनी पुस्तक में जिक्र किया था। उसने लिखा किᄉ ''औरंगजेब ने रामकोट किला ध्वस्त किया था और उसकी जगह मस्जिद बनवायी थी। कुछ का कहना है कि यह बाबर ने बनवाया था उसने पांच पांच बालिस्त उं+चे 14 काले पत्थरों के खम्भे खड़े किये थे। इन काले पत्थरों का मलवा हनुमान जी द्वारा लंका से लाया गया था। यहां एक चौकी का भी उल्लेख है जिसे राम की जन्मस्थली बताते हैं। यह 525ग्4 क्षेत्राफल में है।''
जब तक उक्त पुस्तक नहीं लिखी गयी थी किसी को मस्जिद मंदिर तोड़ कर बनायी गयी होने की कल्पना भी नहीं थी। 1810 में फ्रेंसिस बुकनान ने अयोध्या की यात्राा की, उसने लिखा कि राजा विक्रम पवित्रा नगर की खोज में यहां आया था उसने ÷रामगढ'+ नामक किला बनवाया और 360 मंदिर बनावाये। बुकनान ने लिखा कि यहां यह विश्वास है कि बनारस, मथुरा की भांति अयोध्या के मंदिर भी औरंगजेब ने तुड़वाये किन्तु ऐसा लगता है कि औरंगजेब की पांच पीढ़ी पहले बाबर ने इस मस्जिद को बनवाया था इससे विक्रम का मंदिरों को बनवाने की कहानी झूठ हो जाती है।
इन विदेशी लेखकों के एक दूसरे के विरोधी और स्वयं के द्वंद्वात्मक कथन सिवाय भ्रांति पैदा करने के कोई निष्कर्ष निकाल कर नहीं देते हैं। कभी कहना हनुमान जी पत्थर लाये थे, कभी कहना कि विक्रम ने मंदिर बनाये थ,े कभी औरंगजेब ने मंदिर तुड़वाया, तो कभी बाबर ने तुड़वाया, ऐसे कथन हैं जिनका स्वयं में कोई अर्थ नहीं निकलता है और सब संदेह पैदा करते हैं। बुकनान ने तो इन पत्थरों के खम्भों से निष्कर्ष निकाला था कि ये किसी मंदिर के न होकर किसी इमारत से लिए गये हैं। इस कथन से तो विश्व हिन्दू परिषद की खम्भों की सारी कहानी चौपट हो जाती है।
विश्व हिन्दू परिषद अपने साहित्य और किसी धर्मग्रंथ से यह सिद्ध नहीं कर सकी है अयोध्या में बाबरी मस्जिद, मंदिर तोड़ कर बनायी गयी हो। परिषद यह कह सकती है कि हमारे धर्मग्रंथ पहले के लिखे गये हैं और बाबर से पहले लिखे गये हैं उनमें बाबरी मस्जिद का वर्णन हो ही नहीं सकता है। यदि यहां कोई राम का मंदिर होता तो उसका वर्णन तो होता जिससे यह सिद्ध किया जा सके कि अयोध्या में राम जन्मस्थल पर कोई मंदिर था। जब शास्त्रा, पुराण, धर्म सूत्रा और स्मृति ग्रंथ में ऐसा कोई वर्णन नहीं है जिससे यह सिद्ध होता है कि राम की जन्मस्थली पर कोई मंदिर बनाया गया था और मंदिर होने का भी कोई वर्णन नहीं है तो किसने बनवाया, कब बनवाया, कैसे बनवाया और क्यों बनवाया, सोचना ही व्यर्थ है।
बाबर की तीसरी पीढ़ी में अकबर आता है। अकबर के जमाने में तुलसी पैदा होते हैं। वे राम के अनन्य भक्त बनते हैं और रामचरित मानस की रचना अवधी भाषा में करते हैं। यदि तुलसी के आराध्य राम की जन्मस्थली ध्वस्त करके मस्जिद बनायी गयी होती तो क्या तुलसी चुुप रहते। तुलसीदास ने अयोध्या को पूज्य स्थली ही नहीं माना है। उन्होंने प्रयाग को पूज्य माना है अयोध्या को नहीं। तुलसी 17वीं सदी में पैदा हुए थे तब ऐसी कहीं कोई चर्चा नहीं थी जहां बाबरी मस्जिद है वहां पहले कभी कोई राम मंदिर था। आइने अकबरी में अयोध्या का वर्णन है किन्तु अबुल फजल ने भी राम जन्मभूमि पर बने मंदिर को खसा कर मस्जिद बनवायी, का कोई वर्णन नहीं किया है। बाबर के डेढ़ सौ दो सौ साल बाद ही अकबर का काल आ जाता है और अकबर के काल में ही तुलसी और अबुल फजल काव्य रचना करते हैं तो हिन्दू और मुसलमान एक भी रचनाकार द्वारा राम के मंदिर को ढहा कर बाबरी मस्जिद बनवायी गयी का वर्णन नहीं है। इससे यही सिद्ध होता है कि बाबर ने मंदिर तुड़वा कर मस्जिद नहीं बनवायी थी।
17वीं सदी के प्रथम दशक में एक विलियम फ्लिंच ने अयोध्या में रह कर एक शोध लिखा था। उसने लिखा है कि यहां लोग राम का राज्य बताते हैं, उसे देवता मानते हैं। हिन्दू राम को अवतार मानते हैं। चार पांच लाख वर्ष पुरानी नहीं है। इसके किनारे ब्राह्मण रहते हैं जो रोज इसमें प्रातः नहाते हैं। यहां एक गहरी गुफा है। यह माना जाता है कि इस गुफा में राम की अस्थियां गड़ी हैं। बाहर से लोग यहां आते हैं और काले चावल यहां से ले जाते हैं। यहां से काफी सोना निकाला गया है। इस पुस्तक के वर्णन से राम के मरने का वर्णन मिलता है। जैसे स्कंद पुराण में स्वर्ग द्वार का वर्णन, जहां से राम स्वर्ग सिधारे परंतु इस ग्रंथ से भी राम यहां जन्मे थे उल्लेख नहीं मिलता है। इस ग्रंथ में भी तुलसी के मानस की भांति मंदिर का ध्वंस्त कर मस्जिद बनाने का कोई उल्लेख नहीं है। एक हिन्दू सुजान राय भंडारी नामक व्यक्ति के ग्रंथ ÷खुलासात ए तवारीख' में मथुरा और अयोध्या का जिक्र है। यह पुस्तक 1695-96 की मानी जाती है पर इसमें भी ऐसा कहीं वर्णन नहीं मिलता कि राम जन्मभूमि पर बने मंदिर को खसा कर बाबर ने कोई मस्जिद बनवायी। यह लेखक यहां एडम के बेटे शीश और पैगम्बर अयूब के मकबरों का वर्णन करता है पर राम के मंदिर का कोई जिक्र नहीं करता है।
एक और हिन्दू लेखक राय चर्तुन ने अपनी पुस्तक में राम का वर्णन तो किया है पर राम के मंदिर का वर्णन नहीं किया है। यह पुस्तक 1759-60 में लिखी गयी है।
इस प्रकार बाबर के समय बनी मस्जिद के निर्माण के दो सौ वर्ष बाद तक भारत के तुलसी, अवुल फजल तथा विदेशी फ्लिंच जैसे कलमकारों ने अयोध्या में राम के मंदिर का उल्लेख तक नहीं किया है। इससे यह स्पष्ट होता है विश्व हिन्दू परिषद के पास ऐसा कोई लिखित साक्ष्य नहीं है जो बाबरी मस्जिद के स्थान पर पहले मंदिर प्रमाणित कर सके। इसने जो पुरातात्विक साक्ष्य प्रस्तुत किये हैं वे बहुत लचर और संदिग्ध हैं।
अभिलिखित साक्ष्य एक और उपलब्ध है। मस्जिद निर्माण के बाद मस्जिद पर फारसी में खोदे गये अभिलेख हैं जिनका वर्णन बाबरनामा में मिलता है। ए. एस. वेविरिज द्वारा बाबर नामा का जो अनुवाद किया गया है उस बाबरनामा में शासक मीर बाकी का उल्लेख है। बाबरनामा में बाबरी मस्जिद और उस पर खुदे अभिलेखों का वर्णन है पर कहीं पर ऐसा नहीं प्रतीत होता कि कहीं भी मंदिर खसाकर मस्जिद बनवायी गयी हो। इस प्रकार खुदाई से प्राप्त साक्ष्य में मस्जिद में बने खम्भों के पुरातत्वीय साक्ष्य और अभिलेखों के साक्ष्य किसी से यह प्रमाणित नहीं होता है कि मंदिर खसा कर मस्जिद बनायी गयी थी। जो भी साक्ष्य अब तक प्राप्त हुआ है उससे निम्न निष्कर्ष निकलते हैं।
1. ग्रंथों के आधार पर ऐसा प्रमाणित होता है कि 18वीं सदी से पूर्व अयोध्या में राम जन्मभूमि के रूप में कोई स्थल पूज्यनीय नहीं था।
2. पुरातत्व और मस्जिद पर खुदे अभिलेखों के आधार पर यह कहीं सिद्ध नहीं होता कि बाबरी मस्जिद के स्थान पर मंदिर था और मंदिर ध्वस्त कर मस्जिद बनायी गयी।
3. सम्पूर्ण साहित्य के आधार पर यह सिद्ध होता है कि 19वीं सदी के आरम्भ तक राम मंदिर का कोई दावा नहीं था। यह चर्चा 1850 के दशक में प्रारम्भ हुई जब सीता रसोई को ध्वस्त करने की मात्रा बात उठी थी।
उ+पर के सारे विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद राम मंदिर को ध्वस्त कर बनायी गयी है, का बवेला व्यर्थ का ढकोसला है और मुसलमानों के विरुद्ध एक सोची समझी साजिश है। सोलहवीं सदी से लेकर उन्नीसवीं सदी तक तीन सौ चार सौ वर्षों तक जिसका मस्जिद बनने के बाद में कोई प्रमाण न मिलता हो ऐसा कोई बिन्दु खडा+ कर देना सोची समझी साजिश ही है और कुछ नहीं। आज मुसलमानों के विरुद्ध उनको नष्ट करने, उनका ईमान भ्रष्ट करने की साजिशें चली जा रही हैं वरना यह कौन बर्दाश्त कर लेगा कि जो मस्जिद सोलहवीं सदी में बनी हो उसे ध्वस्त करने का खिलवाड़ किया जाय। इस खिलवाड़ का परिणाम अत्यंत भयंकर होगा। भारतवासियों ने महाभारत की मात्रा कल्पना ही की है यदि मस्जिद खसायी गयी तो हो सकता है कि महाभारत एक बार पुनः भारत भूमि में देखने को मिल जाय।
इसलिए मेरा मानना है कि जिन्हें देश से प्यार है, जिन्हें इंसानियत से प्यार है उन्हें मंदिर मस्जिद के झगडे+ को समाप्त करना चाहिए और जो कुछ पाखंडी, स्वार्थी और धूर्त यह बवंडर फैला रहे हैं स्वयं हिन्दू समाज के प्रबुद्ध लोगों को ऐसी साम्प्रदायिकता फैलाने के कारण गला दबा देना चाहिए और मंदिर मस्जिद के प्रकरण को समाप्त कर देना चाहिए।
जहां तक नयी खोजें आ रहीं हैं उनके आधार पर यह सिद्ध होने लगा है कि राम नाम का कोई व्यक्ति अयोध्या में पैदा ही नहीं हुआ है। बौद्ध शासक वृहद्रथ को मार कर जब ब्राह्मण पुष्यमित्रा शासक बन बैठा तो इस शुंग विजय की कहानी को राम के विजय की कहानी बना कर मढ़ दिया गया है और पुष्यमित्रा शुंग ने जब बौद्धों का 100-100 दीनार में एक एक बौद्ध का सिर कटवाया था तभी जो बौद्ध मठ अयोध्या में बना था उसे ध्वस्त किया गया था और जब बाबर आया तो उसी स्थान पर उसने मस्जिद बनवा दी। इस प्रकार अयोध्या राम की नगरी न होकर गौतम की नगरी है और हिन्दू तीर्थस्थल न होकर बौद्ध स्थल है।
अब जो भी हो वर्तमान स्थिति में बदलाव असम्भव है। इसलिए जहां मस्जिद है उसे हटाया जाना न तो सम्भव है न उचित है। अगर हिन्दू मंदिर बनवाना ही चाहते हैं तो वे अपनी निजी भूमि में बनवायें सरकारी भूमि में नहीं। यदि दस लाख पहले से ही बने मंदिरों में एक की और बढ़ोत्तरी हो जाएगी तो उससे कौन सा पहाड़ टूट जायेगा। अब राम लला हम आयेंगे मंदिर वहीं बनायेंगे, सम्भव नहीं है।
-------------------------------------
साभार: तद्भव दलित विशेषांक http://www.tadbhav.com/dalit_issue/sampradayikata.html#sampra
आप ने इल ब्लाग में कई बातें बहुत ही अतिशयोक्ति लिखी है, जैसा की RSS वाले करते हैं। ये ब्लाग सांप्रदायिकता पर होते हुये भी सांप्रदायिकता को बढा़वा देता हुआ प्रतित होता है।
ReplyDeleteआप ने इल ब्लाग में कई बातें बहुत ही अतिशयोक्ति लिखी है, जैसा की RSS वाले करते हैं। ये ब्लाग सांप्रदायिकता पर होते हुये भी सांप्रदायिकता को बढा़वा देता हुआ प्रतित होता है।
ReplyDelete