इस देश में धर्म की ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि पर यदि नजर डाली जाये तो हम पायेंगे तथागत गौतम बुद्ध ने धर्म की जो व्यापक एवं सार्वभौमिक व्यवस्था दी थी उसके अनुसार धर्म के दो प्रधान तत्व हैं -प्रज्ञा तथा करुणा | प्रज्ञा का अर्थ है निर्मल बुद्धि | करुणा का अर्थ दया अथवा प्रेम (मैत्री) | प्रज्ञा को भगवान बुद्ध ने धर्म के दो सतम्भो में से एक माना चूँकि वेह नहीं चाहते थे कि 'मिथ्या विश्वाशों' के लिए कहीं कोई गुन्जायिश बची रहे | तथा करुणा को धर्म का दूसरा सतम्भ इस लिए मन चूँकि इस के विना न तो समाज जीवित रह सकता है और नही समाज कि उन्नति ही हो सकती है |
धर्म की व्यापकता एवं सार्वभौमिकता को विस्तृत ढंग से समझाने हेतु धर्म के साथ अधर्म को भी परिभाषित किया है | 'दीर्घ निकाय', 'अन्गुतर निकाय',' मझिम निकाय', 'धम्म पद' आदि 'त्रिपिटिक दर्शन' में समाहित होने वाले इन महँ ग्रंथों में यह व्यवस्था दी गयी है कि 'पराप्राकृत में विशवास करना अधर्म है' | 'ईश्वर में विश्वास करना अधर्म है' | 'आत्मा में विश्वास करना अधर्म है' | 'यज्ञ-वली कर्म आदि विश्वास करना अधर्म है' | 'कल्पनाश्रित विशवास अधर्म है' | 'धर्म के पुस्तकों का वाचन मात्र अधर्म है'| 'धर्म की पुस्तकों को गलती से परे मानना अधर्म है'|
धर्म को समझाया कि धर्म से अभिप्राय जीवन को शारीरक, वाणी एवं मन (मानसिक) तीन तरह पवित्र बनाये रखना है | शारीरक पवित्रता से अभिप्राय जीव हिंसा से विरत रहना, चोरी से विरत रहना तथा काम -मिथ्याचार से विरत रहना होता है | वाणी से पवित्रता का अर्थ है कि झूठ बोलने से विरत रहना तथा मन कि पवित्रता से अभिप्राय: चित के मलों से निवृत होना होता है | साथ ही किसी के प्रति इर्ष्य का भाव न जगे | राग द्वेष से मुक्त हो कर सम्यक दृष्टि को प्राप्त होना धर्म है | स्वयं में पूर्णता को प्राप्त होना धर्म है | तृष्णा का नाश करना धर्म है | निर्वाण को प्राप्त करना धर्म है | सभी संस्कारों को अनित्य मानना धर्म है | कर्म को मानव जीवन के नेतिक संस्थान का आधार मानना धर्म है |
अत: भगवान बुद्ध द्वारा दी गयी धर्म की यह परिभाषा व् व्याख्या प्राचीन हो कर भी कितनी आधुनिक है जोकि मजहब या रिलिजन आदि की परिभाषा से कितनी भिन्न है | धर्म के व्यापक अर्थ को समझने लिए इस शब्द के निकटतम शब्दों या इस के प्रयायेवाची शब्दों यथा मजहब या रिलिजन, धम्म या सद्धर्म को अच्छी तरह जान लेना अत्यंत आवश्यक है |
(साभार : मुशाफिर सुभाष चन्द्र के फेसबुक नोट से )
धर्म की व्यापकता एवं सार्वभौमिकता को विस्तृत ढंग से समझाने हेतु धर्म के साथ अधर्म को भी परिभाषित किया है | 'दीर्घ निकाय', 'अन्गुतर निकाय',' मझिम निकाय', 'धम्म पद' आदि 'त्रिपिटिक दर्शन' में समाहित होने वाले इन महँ ग्रंथों में यह व्यवस्था दी गयी है कि 'पराप्राकृत में विशवास करना अधर्म है' | 'ईश्वर में विश्वास करना अधर्म है' | 'आत्मा में विश्वास करना अधर्म है' | 'यज्ञ-वली कर्म आदि विश्वास करना अधर्म है' | 'कल्पनाश्रित विशवास अधर्म है' | 'धर्म के पुस्तकों का वाचन मात्र अधर्म है'| 'धर्म की पुस्तकों को गलती से परे मानना अधर्म है'|
धर्म को समझाया कि धर्म से अभिप्राय जीवन को शारीरक, वाणी एवं मन (मानसिक) तीन तरह पवित्र बनाये रखना है | शारीरक पवित्रता से अभिप्राय जीव हिंसा से विरत रहना, चोरी से विरत रहना तथा काम -मिथ्याचार से विरत रहना होता है | वाणी से पवित्रता का अर्थ है कि झूठ बोलने से विरत रहना तथा मन कि पवित्रता से अभिप्राय: चित के मलों से निवृत होना होता है | साथ ही किसी के प्रति इर्ष्य का भाव न जगे | राग द्वेष से मुक्त हो कर सम्यक दृष्टि को प्राप्त होना धर्म है | स्वयं में पूर्णता को प्राप्त होना धर्म है | तृष्णा का नाश करना धर्म है | निर्वाण को प्राप्त करना धर्म है | सभी संस्कारों को अनित्य मानना धर्म है | कर्म को मानव जीवन के नेतिक संस्थान का आधार मानना धर्म है |
अत: भगवान बुद्ध द्वारा दी गयी धर्म की यह परिभाषा व् व्याख्या प्राचीन हो कर भी कितनी आधुनिक है जोकि मजहब या रिलिजन आदि की परिभाषा से कितनी भिन्न है | धर्म के व्यापक अर्थ को समझने लिए इस शब्द के निकटतम शब्दों या इस के प्रयायेवाची शब्दों यथा मजहब या रिलिजन, धम्म या सद्धर्म को अच्छी तरह जान लेना अत्यंत आवश्यक है |
(साभार : मुशाफिर सुभाष चन्द्र के फेसबुक नोट से )
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