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Thursday, 14 April 2011

अम्बेडकर जयंती पर शुभकामनायें - Wishes for Ambedkar Jayanti

अम्बेडकर जयंती पर शुभकामनायें !
आज भारत के महान सपूत , समानता ,स्वतंत्रता और बंधुता के पोषक, भारतीय संविधान के निर्माता, समाजसुधारक, बौद्ध धर्म के पुनर्संस्थापक,  स्त्री-समता के पैरोकार, दलितों-पिछड़ों के अधिकारों के लिए आजीवन संघर्षरत रहे  और मानवता के पक्षधर भारतरत्न डॉ बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर की जयंती है | 
सभी भारतीयों को बाबासाहेब की जयंती पर हार्दिक शुभकामनायें !
आइये , हम आज पुनः बाबासाहेब द्वारा प्रशस्त मार्ग पर चलने के संकल्प को दुहरायें और उनके बताये आदर्शों और सिद्धांतों के प्रति संकल्पबद्ध होकर उनके कारवां को आगे बढ़ाएं !
जय भीम !  जय भारत !  जय बुद्ध !















Wednesday, 13 April 2011

आदिवासी साहित्य की उपस्थिति - नवल शुक्ल


आदिवासी साहित्य की उपस्थिति 
नवल शुक्ल

शुरू शुरू में हमारे बीच साहित्य के लिए मात्रा साहित्य का सम्बोधन पर्याप्त था। साहित्य और साहित्यकार, इससे अधिक हुआ तो लेखक, कवि, गद्यकार, उपन्यासकार, कथाकार, निबंधकार, ललित निबंधकार आदि। साहित्य के विभाजन- नामकरणᄉ के लिए भाषा, समय और प्रवृत्तियों की केन्द्रीय महत्ता थी। प्राचीन साहित्य, अर्वाचीन साहित्य, शास्त्राीय लोक साहित्य या प्राकृत अपभ्रंश, अवहट्ट आदिकाल, मध्यकाल से होते हुए आठवें, नवें, दशक के साहित्य का भी विभाजन सर्वज्ञात था। इन सभी प्रकार के साहित्यों में समय, इतिहास, प्रवृत्तियां महत्वपूर्ण हैं। इसी तरह से इनका विभाजन और नामकरण भी है।
नवें दशक के अंत में अचानक हिन्दी साहित्य में साहित्य वर्णगत विशेषण के रूप में वर्ग विशेषण के विभ्रम के साथ आया। उदाहरण के लिए दलित साहित्य। दलित शब्द में पीड़ित, वंचित, शोषित, मजदूर आदि के अतिरिक्त जातिगत अस्मिता अधिक है। दलित जाति के लोग सबसे अधिक पीड़ित, वंचित, शोषित और मजबूर रहे हैं और हैं, इस बारे में अलग से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। यह अलग बात है कि आजकल दलित जाति स्वयं के लिए दलित विशेषण का प्रयोग उचित नहीं मानती। हिन्दी में दलित साहित्य के नामकरण, पहचान और प्रतिष्ठा के लगभग पंद्रह बीस वर्षों में ही दलित विशेषण के प्रति दलितों के बीच विरक्ति आयी है।
हिन्दी में दलित साहित्य का सीधा सम्बंध मंडल आयोग के समय और राजनीति से है। दलित लेखन और दलित साहित्य पर हिन्दी साहित्य में चर्चा की शुरुआत श्री राजेन्द्र यादव ने की। बाद में शिवपुरी में दलित कलम नाम से गोष्ठी हुई। दिल्ली से शिवपुरी तक की दोनों गोष्ठियों में डॉ. नामवर सिंह की उपस्थिति थी। पहली गोष्ठी से दूसरी गोष्ठी के बीच दलित लेखन, दलित साहित्य आदि के बारे में सहमति असहमति या स्वीकारोक्ति अस्वीकारोक्ति की अनेक चर्चाएं होती रही हैं। इन पंद्रह बीस वषोर्ं के बीच दलित साहित्य की रचनाओं के प्रकाशन और दलित साहित्य पर केन्द्रित पत्रिाकाओं के अनेक उपक्रम हुए। हिन्दी साहित्य में दलित साहित्य बाकायदा स्थापित हुआ।
आज उपेक्षित का साहित्य या आदिवासी साहित्य के संदर्भ में लिखने बैठता हूं तो मेरी स्थिति विकट हैं। अभी तक मैं आदिवासी अंचलों या लोकांचलों में काम करते हुए यह देखता रहा कि कौन गायक है, कौन नर्तक, कौन चित्राकार है, कौन शिल्पकार। सृजन के विविध माध्यमों में आदिवासी समुदाय को परम्परागत ज्ञान के साथ काम करते हुए और अपने स्थानीय ज्ञान को शिद्दत के साथ बचाये रखने एवं उसका उपयोग करते रहने के कारण समुदाय के प्रति श्रद्धा, सम्मान और जिज्ञासा का भाव सदैव बना रहा। हमेशा ऐसा लगता रहा जैसे अपने पुरखों के बीच हूं और उनसे जान, सीख समझ रहा हूं। इनमें जीवन संघर्ष, जीवानुभव और सहज अभिव्यक्ति इस तरह संचित और सतत्‌ विद्यमान हैं जैसे पानी में हाइड्रोजन और आक्सीजन। सृजनात्मक उपलब्धि के रूप में मुझे पानी अच्छा लगता है।
आदिवासी साहित्य, मतलब वह नहीं जो वाचिक परम्परा में विद्यमान है, जो लुप्त हो गया है या जिसे लिपिबद्ध किया गया है या किया जा रहा है। यहां पर आदिवासी साहित्य, आदिवासी लेखन और अदिवासी लेखक के साथ जुड़ा है। यह व्यक्तिगत स्वभाव हो अथवा साहित्य के प्रति मेरी दृष्टि कि मैं लेखक को जाति के रूप में चिन्हित करते रहने से वंचित रहा। बल्कि इस तरह से देखना जानना उचित भी नहीं लगता रहा। शायद यह भी एक कारण है कि दलित साहित्य के रूप में साहित्य को पढ़ने देखने और लेखक को जानने में व्यथित भी होता हूं। साथ ही एक दूरी का बोध भी होता है। ठीक इसी प्रकार साहित्य में आदिवासी के विशेषण के साथ आदिवासी साहित्य के लिए महसूस कर रहा हूं।
आदिवासी साहित्य (पारम्परिक), कला, संगीत आदि पर काम करने, नृतत्वशास्त्रा का परिचय पाने और आये दिन होने वाले विमर्श के करीब होने से यह लगता रहा है कि नृतत्वशास्त्राीय अध्ययन में और उसके शास्त्रा में कोई खोट है। विशेषकर इस शास्त्रा और उसके अध्ययन की मंशा उचित नहीं प्रतीत हुई। यह लगता तो एक समुदाय को पहचानने और उसके समग्र अस्मिता का शास्त्रा और अध्ययन है, परंतु अनेक तरह के ज्ञान प्राप्ति के बावजूद मुझे हमेशा लगता रहा जैसे यह मनुष्य को अंततः एक इकाई बना देने का शास्त्रा और अध्ययन भी है।
आदिवासी साहित्य और आदिवासी लेखक के बारे में जब हिन्दी की रचनाओं और रचनाकारों को देखने का जतन करता हूं तो पाता हूं कि आदिवासी लेखक नहीं हैं। या उन्हें जानता नहीं हूं। साथ ही क्या वे यह चाहते होंगे कि आदिवासी लेखक के रूप में उनकी पहचान हो। या कि यह चाहते होंगे कि हिन्दी के रचनाकार के रूप में उनकी पहचान हो। मेरी समझ से तो हिन्दी के रचनाकार की पहचान और जातिगत वर्गीय रचनाकार की पहचान में से पहली पहचान अधिक अच्छी है। यूं भी हिन्दी किसी जाति की बोली भाषा नहीं है। यह मात्रा हिन्दी भाषी प्रदेश की भी नहीं है। हिन्दी भाषी प्रदेश की तमाम बोलियां उप बोलियां हिन्दी से अंतर्क्रिया करती हुई, हिन्दी को लगातार समृद्ध भी करती रही हैं और विस्तारित भी।
यदि आदिवासी साहित्य पर चर्चा प्रारम्भ हो ही रही है तो दलित साहित्य के गुण दोष संदर्भ के लिए कारगर होंगे। आदिवासी साहित्य के संदर्भ में कम से कम आदिवासी लेखकों की खोज और उनकी रचनात्मक भागीदारी के प्रति देरसबेर लोगों का ध्यान जाना लाजिमी है। साहित्य में आदिवासी लेखकों की कमी या लगभग अनुपस्थिति चिन्ता का विषय है। इस चिन्ता के पीछे मुख्य कारण है कि एक वृहत्तर समुदाय के रचनात्मक और सामाजिक सरोकार से वर्तमान साहित्य आधा अधूरा सा है। आदिवासी चेतना, रागात्मकता, प्रकृति, पर्यावरण, पारम्परिक और स्थानीय ज्ञान तथा अभिव्यक्ति की सहजता जब लेखन के माध्यम से सामने आयेगी तो जाहिर है साहित्य का जीवद्रव्य सघन होगा और जिजीविषा से भरापूरा भी। साहित्य में अभिव्यक्ति और कहन के नये आयाम आयेंगे। साहित्य की सृजनात्मकता में जो एकरूपता, जड़ता हो सकती है, वह ढीली होगी। कथ्य, कहन और भंगिमा से सृजनात्मक भूमि और क्षितिज का विस्तार होगा। अनजाने मिथ, कथानक, विभ्रम और यथार्थ से हिन्दी साहित्य समृद्ध होगा। हिन्दी की जनतांत्रिाकता और उसके मूल्यों का विकास और विस्तार होगा। न जाने कितने शब्द, अर्थ और छवियां धीरे धीरे रचनात्मक रूप से आयेंगी। सम्भव है अनेक जीवनानुभवों से साबका पहली बार होगा। कुल मिला कर साहित्य या काव्य संवेदना और काव्य भाषा का विकास होगा।
आदिवासी कला, साहित्य और संस्कृति पर काम करते हुए अनुभव के आधार पर यह कह सकता हूं कि आदिवासी साहित्य के माध्यम से स्वयं की पहचान, स्वयं की आवाज और स्वयं की सृजनात्मक अभिव्यक्ति से जो सामाजिक और राजनीतिक चेतना सामने आयेगी; उसमें अंततः पूरे भारतीय समाज की मुक्ति, अभिव्यक्ति और संघर्ष ही सामने होंगे। भारतीय समाज का सच और उसके मर्म सामने आयेंगे। परंतु यदि सिर्फ स्वयं की पहचान, पालिटिकल आइडेण्टिटी या अपनी पहचान की राजनीति के रूप में साहित्य का निर्माण होगा, तो वह मात्रा गुस्सा, नफरत, विभेद को सामने लायेगा। फिर आदिवासी साहित्य की सृजनात्मकता से साहित्य कम सम्पृक्त होगा। साहित्य की वर्तमान अभिव्यक्ति की चालढाल पर प्रतिक्रियात्मक लेखन अधिक होगा। इसमें इस राजनैतिक चेतना का अभाव होगा कि हमारे प्राथमिक दुश्मन कौन हैं। सामाजिक, आर्थिक कारणों की समग्र दृष्टि और परिप्रेक्ष्य का अभाव होगा। सामाजिक सरोकार बेहद तात्कालिक होंगे। अनुभव की तीव्रता, अभिव्यक्ति की विविधता और सहजता कम होगी।
वर्तमान में हिन्दी साहित्य में स्थापित और चर्चित आदिवासी रचनाकार नहीं हैं, यह स्थिति सचमुच भयावह है। एक भी आदिवासी लेखक की याद नहीं आती है, जो हमारी हिन्दी के पाठ्यक्रमों में हो। क्या कारण हैं कि आदिवासी रचनाकार साहित्यिक विधाओं में उच्चतर स्थिति में नहीं हैं? क्या लेखन नहीं हैं? क्या प्रकाशन की स्थितियां नहीं हैं या सही समय पर समुचित प्रोत्साहन का अभाव है? मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्य के आदिवासी हिन्दी लेखकों के संदर्भ में उपर्युक्त स्थितियों को परखने पर जो दृश्य सामने आता है, वह बेहद उलझा हुआ है। पहली कृति के प्रकाशन के लिए अनुदान की व्यवस्था मध्य प्रदेश में लगभग तीन दशकों से है। साहित्यिक पत्रा पत्रिाकाओं में रचनाओं का प्रकाशन भी सहज सम्भव है, बशर्ते रचना का एक सामान्य स्तर हो, परंतु प्रोत्साहन और समुचित संवाद की स्थिति का थोड़ा बहुत अभाव है। यह अभाव साहित्य में डेढ़ दो दशक पूर्व अधिक रहा होगा। परंतु पिछले एक दशक में यह अभाव भी देखने को नहीं मिलता है। दरअसल साहित्य में रचना के मार्फत सतत्‌ संघर्ष और सम्वाद से ही रचनाकार अपनी जगह बनाता है। किसी वर्ग या जाति के नजरिये से रचनाकार का साहित्यिक प्रोत्साहन, महत्व और मूूल्यांकन किया भी नहीं जाता है। सम्भव है इस जगह पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता हो। यह ध्यान जातिगत या वर्गगत न होकर संवेदनपरक अवश्य होना चाहिए। अग्रज लेखकों, सम्पादकों, विमर्शकर्ताओं द्वारा साहित्य के निर्मम और निर्विवाद नजरिये से हट कर यदि आदिवासी लेखकों की रचनाओं को बिना जातिगत वर्गगत सम्बोधन के रेखांकित किया जाये तो सम्भव है परिदृश्य थोड़ा बदले। अनुभव की तीव्रता, सामाजिक राजनैतिक चेतना, वर्गगत चेतना, कहन की सहजता आदि के रूप में आदिवासी लेखकों की रचनाओं पर विमर्श किया जाना चाहिए। इन रचनाओं में जो अनजाने और नये मिथक या परम्पराएं आ रही हों, उसे चिद्दित किया जाना चाहिए। यहां तक कि रचना में आये स्थानीय ज्ञान और सहज विवेक को भी विमर्श का हिस्सा बनाया जा सकता है।
होता क्या है कि रचना का कोई भी माध्यम हो, वह माध्यम इतना बड़ा और जटिल हो जाता है कि नये रचनाकारों को थोड़ी झिझक बनी रहती है। यह झिझक उस माध्यम के बरतने के साथ जो रचा गया है, वह सही है या नहीं, के कारण अधिक होती है। संवाद, संगोष्ठी और प्रकाशनों की उपलब्धता से इसे कम किया जा सकता है। बस एक बार कुछ समय तक यह किया जाये तो आदिवासी क्षेत्राों से आदिवासी और गैर आदिवासी लेखकों और रचनात्मकता के अबाध स्रोत सामने आयेंगे। आदिवासी क्षेत्राों के गैर आदिवासी लेखकों को भी मैं जानबूझ कर इसलिए कह रहा हूं कि एक ही अंचल में लोगों का एक जैसा वातावरण है। कुल मिला कर इस वातावरण में हस्तक्षेप करने की जरूरत है। यह कहने बताने दिखाने और सुनाने की आवश्यकता है कि जो आप लिख रहे हैं, वह प्रथमतः अभिव्यक्ति है। वह सचमुच रचना है। वह किस माध्यम में, किस रूप में रचा जा रहा है, उसे बहुत अधिक जानने और सचेत होकर ठीक उसी तरह प्रतिरूप का निर्माण करना ही रचना नहीं है। अपना अनुभव, अपने लोगों का अनुभव, अपने समाज, देश और व्यवस्था के अनुभव को कहना भी रचना है। जाहिर है आदिवासी लेखक जो गाता है, वादन करता है, चित्रा बनाता है, कहानियां कहता है और ऐसे अनेक रचनात्मक विधाओं से वह सजह ही वाकिफ है तो वह ऐसे अनुभवों को रचनात्मकता के साथ ही लिखेगा।
यदि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में अनेक आदिवासी कलाकार पिछले दो तीन दशकों में पारम्परिक रचना कर्म से आकर समकालीन कला माध्यमों में रचनाएं कर रहे हैं तो आदिवासी लेखक समकालीन हिन्दी साहित्य में अपनी जगह क्यों नहीं बना सकता? उदाहरण के लिए भीली चित्राकार पेमा फात्या पारम्परिक चित्राकला पिथौरा का सृजन दीवारों पर पूरे अनुष्ठान के साथ करते हैं तो कैनवस पर पारम्परिक को ही बिना अनुष्ठान के करते हैं। जबकि भीली चित्राकार स्व. टेरू टाहेड़ ने पारम्परिक भीली चित्राकला पिथौरा के शैलीगत तत्वों और रूपाकारों को समकालीन चित्राकला में जगह दी। उन्होंने परम्परागत चित्रा नहीं बनाये। ठीक इसी तरह भीली चित्राकार भूरीबाई और लाड़ोबाई ने भी परम्परा से मात्रा सृजनात्मक तत्वों को ग्रहण किया। बस्तर के मुरिया चित्राकार बेलगूर मंडावी, शंकर जयलाल आदि ने पहली बार कागज, कैनवस, रंग, ब्रश को लिया और जो चित्रा सृजित किये उसने समकालीन चित्राकला को विस्तारित किया। डिंडोरी, मंडला के मुख्यतः परधान जनजाति के चित्राकारों ने पिछले दो ढाई दशक में जो चित्रा बनाये वह समकालीन गोंड चित्राकला या जणगण कलम के नाम से जाना जाता है। आज पचास से अधिक परधान एवम्‌ गोंड चित्राकार जो रचनाएं कर रहे हैं, वे समकालीन हैं। उसके संदर्भ उनकी प्रकृति, वातावरण, गीतों, कथाओं और मिथ कथाओं में हैं। यह हमारा समकाल है। जगदीश स्वामीनाथन ने जब पहली बार सरगुजा रायगढ़ के प्राथमिक जनजाति पहाड़ी कोरवा को रंग ब्रश प्रदान किया और परिणामस्वरूप जो चित्रा सामने आये उसे देख कर स्वामीनाथन ने ÷जादुई लिपि' नामक मोनोग्राफ लिखा और पहाड़ी कोरवा द्वारा बनाये गये चित्राों को समकालीन आधुनिक चित्राकारों के चित्राों के साथ एवं समानांतर विश्लेषित किया। मूर्तिशिल्प, गायन आदि रचना माध्यमों में भी ऐसे अनेक उदाहरण हैं। तो फिर समकालीन आदिवासी साहित्य में आदिवासी लेखकों की स्थिति यदि विरल है तो जाहिर है वातावरण, परिस्थिति, अवसर, प्रोत्साहन आदि की कमी अवश्य है।
इसी संदर्भ में उल्लेख करना चाहूंगा कि पेमा फात्या, बेलगूर मंडावी आदि कलाकारों ने बातचीत (प्रकाशित) के माध्यम से चित्राकला के संदर्भ में अपने अनुभव और दृष्टि आदि की भी बातें की हैं। जबकि ये कलाकार साक्षर नहीं हैं। आज श्याम, वेंकटेश जैसे नयी थी पीढ़ी के आदिवासी चित्राकार हैं जो चित्रा रचना के साथ अपनी बातें लिख कर भी कहते हैं। वेंकटेश द्वारा इंग्लैंड में बनाये गये चित्राों या कथात्मक चित्राों पर अंग्रेजी एवं अन्य कई भाषाओं में पुस्तकें भी प्रकाशित हो रही हैं।
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के आदिवासी लेखकों के संदर्भ में दो लेखक मेरे सामने हैंᄉ एक श्री महिपाल भूरिया और दूसरे श्री भानुप्रकाश। महिपाल भूरिया जी हिन्दी और अंग्रेजी में जनजातीय साहित्य, संस्कृति पर लिखते हैं। भूरिया जी की लेखनी समाजशास्त्राीय भी है। महिपाल भूरिया ने पिछले तीन दशकों में भीली साहित्य, संस्कृति पर अनेक लेख लिखे हैं, जो देश विदेश की प्रतिष्ठित पत्रा पत्रिाकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। भूरिया मूलतः स्कालर हैं। वे अध्यवसाय और लेखन के अलावा सामाजिक सांस्कृतिक मोर्चे पर भी वर्षों से सक्रिय हैं।
श्री भानुप्रकाश मूलतः कवि हैं। ÷यहां इस शहर में' नामक एक कविता संग्रह सन्‌ 1994 में मध्य प्रदेश साहित्य परिषद के सहयोग से प्रकाशित है। श्री भानुप्रकाश के पहले कविता संग्रह के आवरण पर राजेश जोशी लिखते हैं किᄉ ''भानुप्रकाश सदी के इस अंतिम दशक की कविता के एक सम्वेदनशील, प्रतिभावान कवि हैं। उनकी कविता में हमारे समय के सबसे भयावह सवालों से आमना सामना करने में किसी तरह की हिचहिचाहट नहीं है। उनके पास एक जाग्रत नागरिकता है और साथ ही अपने आसपास घटित हो रही चीजों और प्रकृति को देखने समझने की एक अद्भुत सूझ भी'' इस अद्भुत सूझ के अलावा भाषा की सादगी, स्थितियों के अंतर्विरोधी स्वरूप को पकड़ने की कोशिश, एक अलग भाषा तलाशने की छटपटाहट आदि अनेक तथ्यों की ओर राजेश जोशी संकेत करते हैं। दरअसल, ये सभी तथ्य और संकेत यह पुष्ट करते हैं कि यदि आदिवासी लेखकों का आगमन अधिक मात्राा में होगा तो हमारा साहित्य, समय और समाज अधिक अनुभव सम्पृक्त होगा।
श्री भानुप्रकाश ने कविता के अलावा अनेक कहानियां भी लिखी हैं। अधिकांश कहानियां प्रकाशित हैं और चंद्रभान ÷राही' के सम्पादन में ÷समकालीन कहानियां, पुस्तक में उपलब्ध भी हैं, परंतु अनेक ऐसे अल्पज्ञात आदिवासी रचनाकार भी हैं जिनका साहित्य में बाकायदा आगमन नहीं हो पाया है। वे अल्पज्ञात या लगभग अज्ञात हैं। अनेक रचनाकार स्वांतःसुखाय की मानसिकता में लिख रहे हैं। इनमें समय और सवाल की कमी भी है। उदाहरण के लिए पंकज लाल बैगा, रूप सिंह कुशराम, विश्वासी तिग्गा, फतेह बहादुर सिंह, छबिल कुमार मेहर, ओमकार ठाकुर, सोहन सिंह डाबर, तरुण दागोड़े, राधेश्याम, डॉ.अंजना मुवैल सोलंकी, डॉ. रामकुमारी धुर्वे, वृजलाल टेकाम, सुक्कल सिंह, प्रेम सिंह डोरिया, दीपक जामनिया, चंदन मोहरे, गोपाल धुरिया, कन्हैया कुमरे, कु. अन्ना माधुरी तिर्की, श्रीराम विलास मीना, शंकरलाल, बालाप्रसाद तेकाम, दादा राम सिंह बड़करे, सुखलाल अंगारे, मीना रावत, डॉ. सुनीता मसराम, भाउ+लाल पारधी, विष्णु सिंह, मंगल सिंह मरकाम, हुकुम सिंह मंडलोई, एस.बी. धारणे आदि अनेक आदिवासी लेखक हैं जो मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में रहते हुए रचनाएं कर रहे हैं।
साहित्य में इन रचनाकारों की सम्यक पहचान होने के लिए, ऐसे रचनाकार जो मात्रा अभ्यास रचनाएं कर रहे हैं, उन्हें जानने के लिए तथा अनेक अज्ञात रचनाकारों की साहित्य के परिदृश्य में उपस्थिति के लिए कई प्रकार के उपक्रम और प्रयास लगातार करने होंगे। मंच, अवसर, वातावरण, साहित्य सान्निध्य, संवाद और गोष्ठी आदि के कायोर्ं तथा रचना शिविरों के माध्यम से आदिवासी लेखकों को समकालीन साहित्य और समय में इस तरह से सक्रिय किया जा सकता है कि साहित्य में आदिवासी लेखकों की उपस्थिति का भरपूर अहसास हो। ।
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साभार: तद्भव दलित विशेषांक http://www.tadbhav.com/dalit_issue/aadibasi_sahitya.html#adibasi

Tuesday, 12 April 2011

दलित सैद्धांतिकी के अंतर्विरोध - राजाराम भादू


दलित सैद्धांतिकी के अंतर्विरोध 
राजाराम भादू

इस लेख के शीर्षक में जो पद ÷दलित सैद्धांतिकी' प्रयुक्त किया जा रहा है, इसी से कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है। पहली आपत्ति में तो शायद यही कहा जाऐगा कि ÷दलित सैद्धांतिकी' जैसी कोई चीज नहीं है। इसके प्रत्युत्तर में यदि कहा जाय कि दलित विषयक गम्भीर विचार विमर्श के वैचारिक आधार को ही हम दलित सैद्धांतिकी पद से अभिहित कर रहे हैं तो प्रतिप्रश्न होगा कि ऐसी कोई सैद्धांतिकी अभी विकसित ही नहीं हुई है। समकालीन दलित विमर्श की ओर संकेत करने पर भी कहा जाएगा कि यह किसी सर्वमान्य अथवा ऐसे किसी ठोस वैचारिक आधार पर नहीं टिका है जिसे दलित सैद्धांतिकी पद नाम दिया जा सके। इन्हीं प्रारम्भिक आपत्तियों से इस लेख के शीर्षक का अगला पद समस्याग्रस्त हो जाता है यानी जब ऐसी किसी सैद्धांतिकी का ही वजूद नहीं है तो अंतर्विरोध की बात करने का भला क्या औचित्य है? इन प्रश्न प्रतिप्रश्नों को हम शुरुआत में स्वाभाविक मानते हैं।
यहीं हम इस लेख की कुछ सीमाएं स्पष्ट कर देना चाहते हैं। एक तो यही कि समकालीन दलित विमर्श की वैचारिक पीठिका में कई ऐसे आधार हैं जो इसे एक सैद्धांतिकी प्रदान करने का काम करते हैं। इस विमर्श में हिस्सेदारी करते समय वक्ता/लेखकगण प्रायः यही प्रतीति कराते हैं कि वे एक खास तरह के संवाद में शामिल हैं। एक भिन्न परिप्रेक्ष्य को भी ऐसे संवादों में अनुभव किया जा सकता है। जो लोग इस विमर्श में उत्साह और प्रतिबद्धिता से लगे हैं वे इसकी एक भिन्न सैद्धांतिकी प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं। इसके मुकम्मिल हो जाने का दावा उन्होंने भले ही न किया हो। यह अभियान तभी से शुरू माना जा सकता है जब ÷दलित' पद सामने आया, निश्ष्चय ही इस संदर्भ में प्रयुक्त ÷डिप्रेस्ड' ÷अछूत' ÷शूद्र' और ÷हरिजन' जैसे पद पूर्व पीठिका में सम्मिलित रहेंगे। इस हिसाब से यह अभियान कई दशक की यात्राा पूरी कर चुका है और सैद्धांतिकी के नाम से भले ही इसे प्रस्तुत नहीं किया जाता हो लेकिन सोच की एक धारा तो सामने आ ही रही है। इस मुकाम पर अंतर्विरोध पर चर्चा करना अप्रासांगिक नहीं लगता। लेख की मुख्य सीमा यह है कि इसमें अंतर्विरोधों की ओर इंगित भर किया जा रहा है। निश्चय ही इन संकेतों के पीछे ठोस आधार हैं और आगे चर्चा होने पर इन्हें व्याख्यायित किया जा सकता है। दलित विमर्श के प्रति यहां कोई दुराग्रह नहीं है, आग्रह जरूर है कि इसे आलोचनात्मक विश्लेषण के दायरे में लाया जाय। इसकी मजबूती के लिए हम इसे आवश्यक समझते हैं।
दलित सैद्धांतिकी का एक अंतर्विरोध तो श्रेणीबद्धता को लेकर है। अकादमिक हल्के में इसे वर्ग न मान कर श्रेणी माना जाता है। वर्ग को अकादमिक हल्के में वर्गीकरण की आर्थिक इकाई मानते हैं। दलित को समाजशास्त्राी एक सामाजिक श्रेणी मानते हैं जबकि नृतत्वशास्त्राी इसे सामाजिक सांस्कृतिक श्रेणी स्वीकारते हैं। इसे लेकर भी ज्यादा मतभेद नहीं है कि बहुसंख्य दलित आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग का हिस्सा हैं। जैसा कि पूर्व में कहा गया कि इस श्रेणी को पूर्व में ÷डिप्रेस्ड' (वंचित), अछूत और ÷हरिजन' जैसे नाम दिये गये थे, लेकिन उनके लिए भिन्न भिन्न कारणों से स्वीकृति नहीं बनी। ÷वंचित' में श्रेणी के बहुत व्यापक हो जाने का खतरा था तो ÷अछूत' में सीमित। ÷हरिजन' शब्द से इस श्रेणी से सम्बद्ध लोगों की वैयक्तिक गरिमा प्रभावित होती थी। संविधान में ÷दलित' शब्द भी प्रयुक्त नहीं किया गया। समाज के निचले पायदान पर रहने वाली जातियों की कुछ तयशुदा मापदंडों पर पहचान करके उन्हें सूचीबद्ध किया गया। तदनंतर सामाजिक उत्थान के लिए किये गये संवैधानिक प्रावधानों के लिए अनुसूचित जाति पद प्रयुक्त किया गया है। जबकि सामाजिक रूपांतरण के लिए चले आंदोलन ऐसे समुदायों के लिए दलित पद इस्तेमाल करते रहे हैं।
इस प्रकार हम पाते हैं कि दलित श्रेणी हिन्दू धर्म समाज के पदानुक्रम में निचले पायदान पर मानी जाने वाली कुछ जातियों का समुच्चय है। जिस अंतर्विरोध की हम बात कर रहे हैं, वह इस समुच्चय की प्रकृति और स्वरूप को लेकर है। इन जातियों में ऐसी कोई समरूपताएं नहीं हैं जिन्हें आसानी से सामान्यीकृत किया जा सके। पारम्परिक रूप से हिन्दू धर्म समाज में अछूत माना जाना एक समरूपता हो सकती थी लेकिन जैसा कि पहले उल्लेख किया गया, इससे घेरा छोटा हो जाता है। इसके चलते कई और अछूत जातियां भी इस समुच्चय में शामिल हैं। इधर यह देखा गया है कि कई जाति समुदायों के प्रति दलित नेतृत्व समावेशी नहीं है जबकि ये जातियां संविधान में वर्णित अनुसूचित जाति में आती हैं। दलित नेतृत्व पर प्रायः ये आरोप भी लगता रहता है कि वह किसी जाति विशेष के प्रति पूर्वाग्रह ग्रस्त है। क्षेत्राीय आधार पर भी दलित आंदोलन में जाति विशेष के वर्चस्व की शिकायतें की जाती हैं। दलित श्रेणी समुच्चय में शामिल जाति समुदायों की आर्थिक ही नहीं सामाजिक सांस्कृतिक स्थितियों में भी अंतर्भेद और अंतद्वर्ंद्व हैं जो इस श्रेणी समुच्चय को समस्याग्रस्त कर देते हैं। जबकि विमर्श की प्रक्रिया में यह देखने में नहीं आता कि कहीं इस समस्या को सम्बोधित करने का प्रयत्न किया जा रहा हो।
दलित विमर्श का हिन्दू वर्णव्यवस्था से गहरा सम्बंध है। यह विमर्श इस व्यवस्था के प्रति आक्रामक और आलोचनात्मक है जो कि सर्वथा उचित है। इस आलोचना के प्रस्थानबिन्दु के तौर पर हिन्दू वर्ण व्यवस्था के उद्गम तथा शूद्रों की उत्पत्ति के लिए पौराणिक आख्यानों और तथाकथित ऐतिहासिक वृत्तांतों की व्याख्याएं प्रस्तुत की जाती हैं। इस मामले में एक अंतर्विरोध तो अप्रोच को लेकर है। दलित विमर्शकार पौराणिक आख्यानों को ऐतिहासिक मान कर चलते हैं। इसी तरह वे किसी भी प्राचीन मध्यकालीन वृत्तांतों की ऐतिहासिकता जांचने का कोई वैज्ञानिक उपक्रम नहीं करते। यह वैसी ही गड़बड़ी है जैसा साम्प्रदायिक तत्व करते रहते हैं। ऐसे में इस उद्यम के भिन्न नतीजों की उम्मीद कैसे की जा सकती है।
इस प्रसंग में दूसरा अंतर्विरोध विषयवस्तु को लेकर है। डॉ. आम्बेडकर अपनी पुस्तक ÷शूद्रों की खोज' (हिन्दी संस्करण, प्रोग्रेसिव पब्लिशर, नागपुर) के सातवें अध्याय के आरम्भ में ही यह स्थापना देते हैं, ÷यह सिद्ध हो चुका कि शूद्र अनार्य नहीं हैं। तो वे क्या हैं?' इसका उत्तर निम्नलिखित हैᄉ
1. शूद्र आर्य हैं।
2. शूद्र क्षत्रिाय हैं।
3. शूद्रों का स्थान क्षत्रिायों में उच्च था क्योंकि प्राचीन काल में कई तेजस्वी और बलशाली राजा शूद्र थे।
इस स्थापना के बाद वे आगे लिखते हैं यह मत इतना अनोखा है कि इसे बिना प्रमाण लोग मानने को तैयार न होंगे। अतएव अब प्रमाण की जांच की जाये। डॉ. आम्बेडकर अपनी स्थापना के पक्ष में प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। इसी पुस्तक के पिछले अध्यायों में भी वे कई संदर्भित प्रमाण देते हैं। इनके विस्तार में जाने की यहां आवश्यकता नहीं है।
दूसरी ओर ऐसे दर्जनों दलित चिन्तक लेखक हैं जो शूद्रों को अनार्य, दस्यु, द्रविड़, शक या हूणों से जोड़ते हैं और आयोर्ं का प्रतिद्वंद्वी ठहराते हैं (उदाहरण के लिए ÷आर्य अनार्य वंश कथा'ᄉ के. नाथ, धर्म निरपेक्षता बनाम साम्प्रदायिकता' एस.एल. सागर और ÷जाति तोड़ो' चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु)। विडम्बना यह है कि ऐसे सभी लेखक चिन्तक डॉ. आम्बेडकर के कृतित्व के प्रति न केवल सम्मान भाव रखते हैं बल्कि उससे प्रेरणा पाने का उल्लेख करते हैं। फिर इन परस्पर विरोधी अवधारणाओं को कैसे लिया जाय और इसकी तार्किक निष्पत्ति क्या हो सकती है? सृष्टि, वर्णव्यवस्था या जाति विशेष की उत्पत्ति को लेकर भारत के लगभग हर जाति समुदाय में कुछ किवदंतियां या दंत कथाएं प्रचलित हैं। डॉ. आम्बेडकर देश में चार हजार जातियां होने का उल्लेख करते हैं। इनमें से अधिसंख्य वंचित जातियां हैं। इनमें परस्पर सूक्ष्म सांस्कृतिक भिन्नताएं हैं। इनके रीति रिवाज, अनुष्ठान, मूल्य मान्यताओं और लोक आख्यानों के कुछ विश्लेषण सामने आये हैं। वे दलित अंतर्भेद के कई स्तरों को उद्घटित करते हैं।
इसी से सम्बद्ध एक सवाल और है। यदि शूद्र भी आर्य हैं अथवा शूद्र द्रविड़, शक या हूण हैं तो आदिवासी कौन है? आदिवासी विमर्श का दौर भी आरम्भ हो चुका है। वे भी अपनी उत्पत्ति के उत्सों को खोज रहे हैं। इस सिलसिले में एक मान्यता यह उभर रही है कि आयोर्ं के आक्रमण के बाद जो दास बना लिए गये वे शूद्र हैं और जो जंगलों में भाग गये वे आदिवासी हैं। इस क्रम में आदिवासी समुदाय को भी समरूप मानने की गलती की जा रही है जबकि कई आदिवासी समुदायों के रिश्ते विद्वेषपूर्ण हैं और उनमें गहरे सांस्कृतिक विभेद हैं।
पौराणिक आख्यान और अनैतिहासिक वृत्तांतों को सांस्कृतिक पाठ ;ज्मगजद्ध के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है। इनमें से कुछ इतिहास की स्रोत सामग्री के रूप में प्रयुक्त हो सकते हैं। ऐसा करने पर जो निष्कर्ष आये हैं, उनसे हिन्दू वर्णव्यवस्था का महिमा मंडन नहीं होता बल्कि उसकी अमानवीयता और क्रूरता ही सामने आती है। रोमिला थापर, रामशरण शर्मा और डी.डी. कोशम्बी जैसे आधुनिक इतिहासकारों के विश्लेषण इसका प्रमाण हैं किन्तु दलित विमर्शकार प्रायः अपने लेखन में इनके कामों से संदर्भ नहीं देते। वर्णव्यवस्था को लेकर गांधी जी के साथ डॉ. आम्बेडकर की जो बहस है और इसमें वे वणोर्ं के बीच जिस ÷अशुद्ध सम्बंध' को रेखांकित करते हैं, वह इधर भी कई विद्वानों द्वारा रेखांकित किया जाता रहा है। यह भी सही है कि सांस्कृतिक प्रतिरोध के लिए पूर्ववर्ती सांस्कृतिक विषयवस्तु ;ज्मगजद्ध का नया पाठ और विश्लेषण करने की आवश्यकता है। लेकिन हम ऐसी विषयवस्तु रच नहीं सकते और व्याख्या में अतिरंजित नहीं हो सकते।
धर्म एक पूर्व सामंती संरचना है और सामंतवाद के दौर में संस्थागत धर्म ने उसकी भेदमूलक शक्ति संरचना को वैधता प्रदान करने की भूमिका अदा की है। हिन्दू धर्म की वर्णव्यवस्था के बारे में भूमिका का भी यही परिप्रेक्ष्य है। बेशक, बौद्ध धर्म अपने आरम्भिक दौर में क्रांतिकारी तेवर लिए था किन्तु इस ऐतिहासिक सच्चाई को भी नकारा नहीं जा सकता कि इसने संस्थागत रूढ़ स्वरूप अख्तियार किया और सामंती सत्ताओं से अपने रिश्ते कायम किये। डॉ. आम्बेडकर जब यह घोषणा करते हैं कि वे हिन्दू धर्म में पैदा भले ही हुए हों लेकिन वे इसमें मरेंगे नहीं तो इसमें धर्म के प्रति उनका आलोचनात्मक रुख नहीं व्यक्त होता बल्कि हिन्दू धर्म से बैर भाव जाहिर होता है। इसकी अनुगूंजें पूना पैक्ट से पहले के उनके लेखों व बहस में सुनी जा सकती हैं। धर्म के प्रति रुख दलित सैद्धांतिकी का एक प्रमुख अंतर्विरोध है। भले ही डॉ. आम्बेडकर ने कितने ही समर्थकों के साथ धर्म परिवर्तन किया हो, उसके बाद भी दलित समूह धर्मान्तरण करते रहे हों, उनका धार्मिक नजरिया बहुत स्पष्टता से सामने नहीं आता। एक चीज साफ है कि वे हिन्दू धर्म में अपने दर्जे के प्रति अंसतोष के कारण ऐसा करते हैं। लेकिन ईसाई, इस्लाम अथवा बौद्ध हो जाने के बाद भी वे अलगाये जाते हैं। सबसे क्रांतिकारी मान कर अपनाये गये बौद्ध धर्म में भी वे ÷नव बौद्ध' की भेदपरक पहचान रखते हैं। मौजूदा दलित बौद्ध इस धर्म के सम्प्रदायों हीनयान व महायान, इसकी चिन्तन धाराओं और एक हद तक इसके साहित्य से प्रायः अनभिज्ञ हैं। बल्कि उन्होंने बौद्ध धर्म के नाम पर कुछ खास अनुष्ठान और कर्मकांडों को भी अपना लिया है।
दलित सैद्धांतिकी में धर्म की बात यहीं खत्म नहीं होती। डॉ. धर्मवीर और कंवल भारती अलग दलित धर्म की बात करते हैं और उसकी कुछ विशिष्ट अभिलक्षणाओं तथा तत्वों को वर्गीकृत करते हैं (देखेंᄉ दलित धर्म की अवधारणा और बौद्ध धर्म, कंवल भारती, कदम, दिल्ली)। कंवल भारती तो दलितों को वर्ण व्यवस्था से बाहर अर्थात ÷पंचम' या अति शूद्र मानते हुए कहते हैं कि वे हिन्दू ही नहीं हैं। कतिपय ईसाई मिशनरी आदिवासियों के बारे में भी यही कहते हैं। अंतर्विरोध यह है कि अभी भी बहुसंख्य दलित हिन्दू धर्म में शामिल हैं। वे हिन्दू धर्म की मुख्यधारा में शामिल होना चाहते हैं। हिन्दूवादी संघ उनकी इस आकांक्षा का दोहन करके उन्हें बावरी मस्जिद ध्वंस और गुजरात 2002 जैसी कार्यवाहियों में इस्तेमाल करते हैंं। इस परिघटना के व्याख्याकार समाजशास्त्राी एम.एन. श्रीनिवासन से अपने को सहमत पाते हैं और इसे संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के रूप में मानते हैं।
पूना पैक्ट से पहले डॉ. आम्बेडकर ने दलितों को हिन्दुओं से अलगाने और उनके लिए पृथक निर्वाचन प्रणाली विकसित करने की जोरदार पैरवी की थी। कुछ साल पहले डरबन में हुए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में दलितों के प्रति भेदभाव को वैश्विक स्तर पर नस्लभेद की श्रेणी में रखने के लिए भी पैरवी की गयी। लेकिन ऐसे पैरोकार अल्पमत में ही रहे। बहुसंख्य दलितों ने इन मार्गों का कोई खास समर्थन नहीं किया। इस पर भी दलित सैद्धांतिकी धर्म विषयक मामलों को किसी नयी दृष्टि से देखने के प्रति उत्सुक नहीं दिखाई देती। इस मामले में धर्म के प्रति नारीवादी ;ळमदकमतद्ध नजरिये से काफी सीख की गुंजाइश हो सकती है, ऐसा हमें लगता है।
दलित राजनीति और दलित सैद्धांतिकी के बीच बड़ा अंतर्विरोध है। इनके द्वंद्व को समझना भी मुश्किल है। दलित राजनीति मौजूदा दलित विमर्श का अनुकरण कर रही है अथवा इसके उलट हो रहा है, कहना मुश्किल है। इसके ठोस ही नहीं मूर्त उदाहरण हैं। दलित सैद्धांतिकी अभी भी ब्राह्मणवाद विरोध के आधार पर खड़ी है जबकि उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी, जो उत्तर भारत में दलित राजनीति की नुमाइंदगी करती है, ब्राह्मण जाति के सहमेल से सत्ता में पहुंची है। बहुजन के नारे से दलित राजनीति सत्ता तक नहीं पहुुंची, उसने सर्वजन का नारा दिया। फिर हाथी नहीं गणेश हो गये। स्व. कांशीराम अवसरवाद को दलित राजनीति की मुख्य राजनीति मानते थे। ऐसे में बुद्ध को भी हिन्दू अवतार माना जा सकता है।
दलित विमर्श स्वातंत्रय आंदोलन और नवजागरण के दौर में जाति भेद के विरुद्ध उभरे आंदोलन को लगभग नजरअंदाज करता है। इस दौर में ब्राह्मणवाद के आलोचक आर्य समाज को सुधारवादी कह कर खारिज करता है। मार्क्सवादी और आधुनिक चिन्तक व इतिहासकारों ने भारत में सांस्कृतिक प्रतिरोध की जो लोकायत, बुद्ध और जैन धर्म से प्रणीत प्रति संस्कृति, संत परम्परा को रेखांकित किया, उसे दोहराते हुए भी उन्हें श्रेय देने से बचता है। दूसरी ओर इस तथ्य से आंखें चुराता है कि दलित जाति समुदायों में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो हिन्दू आख्यानों, मूल्य मान्यताओं और विश्वासों को गहरे आत्मसात किये हुए हैं। उनके लिए हिन्दुओं को ÷अन्य' के रूप में प्रस्तुत करना सहज नहीं है।
दलितों में सक्रिय सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं द्वारा रची गयी लोकप्रिय पुस्तिकाओं, गीतों व आख्यानों में वैज्ञानिक इतिहास दृष्टि, वस्तुपरकता और प्रमाणिकता का अक्सर अभाव पाया जाता है। ये दलित सैद्धांतिकी के सह उत्पाद भी नहीं लगते। इनका मुख्य स्वर ÷अन्य' (सवर्ण हिन्दू) के प्रति घृणा है। प्रायः संघर्ष में घृणा को जायज ठहराया जाता है लेकिन यदि हम जाति व्यवस्था का उन्मूलन करना चाहते हैं तो घृणा से क्या अर्जित कर सकते हैं।
सवाल अंततः दलित सैद्धांतिकी के दर्शन से जुड़ा है। इसका ध्येय दलितों को एक पृथक श्रेणी के रूप में स्थापित करना है जिसके कारण इस श्रेणी के सशक्त होने की आवश्यकता सामने आयी है। भारत के संविधान की रोशनी में देखें तो लोकतांत्रिाक समाज व्यवस्था के लिए जाति का उन्मूलन एक अनिवार्यता है। इसके लिए समाज को समावेशी और बहुलतावादी बनाना होगा। यदि हम दलित श्रेणी की स्वतंत्रा अस्मिता की बात करेंगे तो इसकी जगह जाति केन्द्रित अस्मिताएं विकसित होंगी। और फिर आदिवासी अस्मिता का क्या करेंगे जो संख्या में दलितों से भले ही थोड़ी कम हो, देशव्यापी उपस्थिति रखती है। उसकी वंचना का इतिहास भले ही कम कष्टकर रहा हो लेकिन सदियों पुराना है और उनके लिए भी सामाजिक न्याय उतना ही है।
यह देखना दिलचस्प है कि कांग्रेस के एजेण्डा में दलितों का मुद्दा 1917 में शामिल हुआ। स्व. कांशीराम अपनी पुस्तक ÷चमचा युग' में उन तथ्यों का बयान करते हैं जिनके चलते कांग्रेस इस एजेण्डा को अपनाने के लिए मजबूर हुई। इन तथ्यों में उस समय के दलित उभार की घटनाएं भी शामिल हैं। 1917 में ही बम्बई में दो अलग अलग सभापतियों की अध्यक्षता में दलित वगोर्ं की दो सभाएं हुईं। इनमें से पहली सभा 11 नवम्बर, 1917 को सर नारायण चंद्रापरकर और दूसरी इसके एक सप्ताह बाद बापू जी नामदेव वागडे की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई। इन सभाओं में दलित समुदाय की अनेक मांगों को लेकर प्रस्ताव पारित किये गये। इनमें एक प्रस्ताव अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा को लेकर था जो दोनों सभाओं में पारित किया गया था। आगे हम देखते हैं कि दलित आंदोलन ने ऐसे मुद्दों पर जोर देना कम कर दिया जो सामाजिक परिवर्तन के बुनियादी आधारों को प्रभावित करते।
दलित सैद्धांतिकी के अंतर्विरोधों की चूंकि अनदेखी की जाती रही है, इसलिए इस ओर इंगित करना हमने प्रासंगिक माना है। दलित विमर्श के प्रति निष्क्रिय किस्म की पक्षधरता का रुख इधर समझदारी माना जाता है और इसे पालिटिकली करेक्ट होने का तकाजा समझा जाता है। ऐसे में हमें अनुमान है कि कुछ लोगों को ये टिप्पणियां अच्छी नहीं लगेंगी। इन्हें लेकर असहमतियां हो सकती हैं, एतराज हो सकते हैं, बेशक कुछ बातें गलत सिद्ध हो सकती हैं किन्तु दलित सैद्धांतिकी के प्रति आलोचनात्मक रवैया और खुलापन इसके लिए किसी भी प्रकार से अहितकर नहीं है, यह हमारी विनम्र धारणा है। 


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साभार: तद्भव दलित विशेषांक http://www.tadbhav.com/dalit_issue/dalit_saidhantik.html#dalit

Monday, 11 April 2011

तस्वीर का दूसरा पहलू दलित उपेक्षितों का वैचारिक लेखन - अजय तिवारी


तस्वीर का दूसरा पहलू
दलित 'उपेक्षितों' का वैचारिक लेखन 

अजय तिवारी

सामाजिक व्यवस्था में हिन्दू अपनी पवित्राता रखता है। जाति का आधार ईश्वरीय है। इसलिए आपको जाति की उस पवित्राता और ईश्वरीय आधार को समाप्त करना होगा जिसके कारण जाति प्रतिष्ठित हुई है। अंतिम विश्लेषण में आपको शास्त्राों और वेदों के प्रभुत्व को समाप्त करना होगा।
यह नहीं भूलना चाहिए कि तीनों उच्च जातियों को अधिकार प्राप्त है जबकि शूद्र और अतिशूद्र को बेगार करनी पड़ती है। आर. संगीता राव;
मार्क्स और आम्बेडकर, ब्लूमून बुक्स, नयी दिल्ली, 1996 पृ.18
जाति व्यवस्था से लेकर ईश्वरीय विधान तक जो भी सामाजिक, मनोवैज्ञानिक पहलू श्रेष्ठता निम्नता पर आधारित हिन्दू पदक्रम का निर्धारण करते हैं, उन्हें अस्वीकार करने की चेतना आधुनिक दलित चिन्तन का आधार है। इस दृष्टि से उ+पर लिखी पंक्तियां दलित लेखन की मूल अवधारणा प्रस्तावित करती हैं। पूर्वनिश्चित संरचनाओं को तोड़े बिना नयी संरचनाएं निर्मित नहीं हो सकतीं। उन संरचनाओं के साथ अभ्यास, संस्कार और विश्वास की ताकत भी लगी रहती है। इसलिए संघर्ष का रास्ता सीधा, सरल और इकहरा नहीं हो सकता। आज हम जिन जटिल परिस्थितियों में रहते हैं, उनमें ÷दलित' कहलाने वाले सभी लोग उन संरचनाओं को ध्वस्त करके एक समतामूलक और न्यायपूर्ण सामाजिक विधान कायम करने में रुचि लेते हुए नहीं देखे जाते। संघर्ष इसलिए भी सीधा सरल नहीं रह जाता। हालांकि दलित विमर्श के सभी संस्तरों में एक सीधी सरल अवधारणा काम करती दिखती है कि ÷अधिकार प्राप्त' उच्च जातियों और ÷बेगार' के लिए अभिशप्त ÷शूद्र और अतिशूद्रों के बीच पूरा हिन्दू समाज बंटा हुआ है।
काश, यही बंटवारा हो चुका होता !
फिर भी, समकालीन दलित चिन्तन में यह ÷बंटवारा' आधार की तरह काम करता है।
इस तथ्य को देखते हुए दलित ÷उपेक्षितों' की अलग चर्चा करना थोड़ा अटपटा लग सकता है। इसका एक कारण और है। पारम्परिक वर्णव्यवस्था में जिन्हें ÷शूद्र' और ÷अतिशूद्र' (या अंत्यज) कहा जाता था, उन्हीं को आधुनिक अर्थ में ÷दलित' कहा जाता है। इसलिए ÷दलित' और ÷उपेक्षित' पर्यायवाची हैं। इस समानार्थकता को भूल कर यहां ÷उपेक्षित' दलितों के वैचारिक लेखन की चर्चा इस तरह की जा रही है मानो ÷प्र्रतिष्ठित' दलित भी होते हैं और इनका वैचारिक लेखन अलग होता है! या कम से कम उनके वैचारिक प्रश्न ÷उपेक्षित' दलितों से कुछ अलग होते हैं!
सबार्ल्टन इतिहासकार जिन्हें ÷मुख्यधारा' और ÷हाशिया' कहते हैं, उन्हीं को यहां ÷प्रतिष्ठित' और ÷उपेक्षित' कहा जा रहा है। पिछले कुछ वषोर्ं में दलितों के बीच भी यह विभाजन बढ़ा है और उसकी अभिव्यक्ति वैचारिक स्तर पर ही नहीं, व्यावहारिक स्तर पर भी होने लगी है। उसका कारण सामाजिक वर्गीकरण और स्तरीकरण की दिनोंदिन तेज होती प्रक्रिया है। उसने दलितों को भी ÷अधिकार' और ÷बेगार' की श्रेणियों में बांटा है। जन्मना दलित होने के नाते उन सभी की सामाजिक यातना का एक पहलू समान है। लेकिन शिक्षा, नौकरशाही और मीडिया में अधिकार सम्पन्न दलितों का एक छोटा सा संगठित दल उभर आया है जिसका शेष दलित समाज से खास लेना देना नहीं है। इसे दलितों का ÷क्रीमी लेयर' कहा जाय तो अनुचित न होगा। उसकी जीवन स्थितियां ही नहीं, वैचारिक सरोकार और सांस्कृतिक स्वप्न भी बहुत अलग हो गये हैं। यह अलगाव उन्हें अपने बंधु बांधवों और घर परिवार से भी विच्छिन्न कर देता है। सौभाग्य का वरदान पाने वाला व्यक्ति उच्च आत्माओं से निर्मित अपने नये सांस्कृतिक परिवेश और दुर्भाग्य के अंधेरे से घिरी अपनी पिछली पृष्ठभूमि के बीच संगति नहीं बिठा पाता। विकास की तेज होती दौड़ इतनी फुर्सत नहीें देती कि इन दो विपरीत दुनियाओं में सामंजस्य हो सके और सौभाग्य का वरदान पाने वाले बहुत से व्यक्तियों में इतना धैर्य नहीं रहता कि एक पूरा जीवन अतीत की पृष्ठभूमि को सुधारने में खर्च कर दें। अतीत से, पृष्ठभूमि से नाता तोड़ कर आगे बढ़ जाना वर्गीकरण का परिणाम भी है और उसे दृढ़ करने वाला व्यवहार भी।
स्वभावतः दलित समुदाय में भी ÷प्रतिष्ठित' और ÷उपेक्षित' का विभाजन तेजी से उभरा है। सामाजशास्त्राीय विश्लेषण में न भी जाएं तो ÷सम्भ्रांत' दलित लेखन और ÷लोकप्रिय' दलित लेखन का फर्क इस बात का अच्छा उदाहरण पेश करता है। इस ÷सम्भ्रांत या ÷प्रतिष्ठित' दलित चिन्तन से दलित स्त्राीत्ववाद का अंतर्विरोध भी तेजी से उभरा है जो यह स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है कि प्रभुत्वशाली विचारधारा को चुनौती देने में ÷लोकप्रिय' चिन्तन अकेला नहीं है। एक तरफ वर्चस्वशाली दलित चिन्तकों के प्रश्न हैं जो दलित धर्म की संस्थापना, दलित पूंजीपति वर्ग के निर्माण, अमरीकी प्रभुत्व के स्वागत और दलित स्त्रिायों पर सजातीय पुरुषों के आधिपत्य से जुड़े हैं। दूसरी तरफ लोकप्रिय और स्त्राीत्ववादी दलित चिन्तन में उत्पीड़न और प्रभुत्व के सभी रूपों और स्रोतों को चुनौती देने तथा मनुष्यमात्रा को मुक्त करने के ध्येय क्रमशः स्पष्ट होते जा रहे हैं। बेशक, इस प्रक्रिया में सामुदायिक अस्मिता के भीतर वर्ग और जेंडर की संरचनाएं भी निर्मित हो रही हैं। इस ऐतिहासिक परिघटना को नजरंदाज करना हमारा दुराग्रह हो सकता है, हमारी संवेदनशीलता नहीं।
अपने विश्लेषण में इन तीनों धाराओं की तुलना करना हमारा ध्येय नहीं है। किन्तु उन्हें पहचाने बिना लोकप्रिय दलित लेखन की स्पष्ट अवधारणा सम्भव नहीं थी।
पौराणिक स्रोत और वर्तमान बोध
सारे दलित लेखन की प्रमुख चुनौती है दलितों के लिए सम्मानजनक स्थिति प्राप्त करना। जो सम्बंध और विश्वास इस कार्य में बाधक हैं, उन्हें ÷पवित्रा' न मान कर समूल नष्ट करना उनके लिए अनिवार्य है। आधुनिक और जनतांत्रिाक समाज में यही इतिहास की मांग भी है। लेकिन इसी से यह भी स्पष्ट होता है कि आधुनिक और जनतांत्रिाक मूल्यों के बदले पारम्परिक और सामंतवादी मूल्यों के आधार पर उत्पीड़न, अपमान और भेदभाव की प्रणाली कायम रखी जाती है। इन पारम्परिक और सामंती मूल्यों का दलितवादी नामकरण ÷ब्राह्मणवाद' है। पुराणों, स्मृतियों और ब्राह्मणों (श्रीमद्भागवत पुराण, मनुस्मृति, शतपथब्राह्मण इत्यादि) में आने वाले आख्यान उस ÷ब्राह्मणवादी' व्यवस्था को दृढ़ करते हैं और उचित ठहराते हैं जिसके अंतर्गत श्रमिक जातियों को अपमान और तिरस्कार का दर्जा दिया गया है। वे सर्वत्रा ऐसा नहीं करते। लेकिन कहीं सचेत रूप में, कहीं संस्कार रूप में, वे प्रचलित सामाजिक प्रणाली को आदर्शीकृत करते हैं। इन आख्यानों और पुराकथाओं से यह अच्छी तरह स्पष्ट होता है किᄉ
1. सामाजिक वर्चस्व के संघर्ष में सत्ताधारी समुदायों के हित आपस में टकराते हैं।
2. श्रमजीवी समुदायों को नियंत्राण में रखने के लिए सत्ताधारी वर्ग के सदस्य आपस का विरोध स्थगित कर देते हैं।
3. सत्ताधारी वर्ग केवल आर्थिक, राजनीतिक शक्ति पर नहीं, ज्ञान पर भी नियंत्राण रखता है तथा शक्ति के इन रूपों से (यानी सत्ता के इन माध्यमों से) वंचित रहने के कारण अधीनस्थ समुदाय के सामने अपनी नियति स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं होता।
4. अधीनस्थ समुदाय अपनी स्थिति से सामंजस्य बनाये रखें, इसके लिए बराबर मनोवैज्ञानिक अनुकूलन करना पड़ता है।
5. पौराणिक कथाएं और आख्यान इस काम में बहुत सहायक होते हैं, वे अधीनता को विश्वास में बदल कर स्वीकार्य बना देते हैं।
6. उन कथाओं की यह भूमिका आज भी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है इसलिए उनका प्रतिवाद जारी और जरूरी है।
आज उन कथाओं, आख्यानों की तर्कसंगत व्याख्या करते समय यह ध्यान रखना आवश्यक है कि उनमें छिपा ऐतिहासिक सत्य निश्चित उद्देश्य लिए रहता है। इस अर्थ में वह अपने समय का विमर्श निर्मित करना है। उसमें वस्तुगत प्रक्रिया और आत्मगत आशय शक्ति और वर्चस्व के उद्देश्य की पूर्ति करते हैं। उनका ढांचा अगर चमत्कारिक, विश्वासमूलक और पराभौतिक ढंग का होता है तो यह उनके युग की चेतना और उद्देश्य का सम्मिलित परिणाम होता है। जिन समुदायों की अधीनस्थ स्थिति कायम रखने में इन पुराणकथाओं की भूमिका थी, वे सजग और समर्थ होने पर उनकी तर्कहीनता का प्रतिवाद करते रहे हैं। यह बात कही जाती है कि वर्णव्यवस्था जबसे पैदा हुई है, तबसे उसका विरोध भी जारी है।
सम्भ्रांत दलित बुद्धिजीवी यह विश्वास करके चलते हैं कि पांच हजार साल के भारतीय इतिहास में (शायद बौद्ध धर्म के अलावा) दलितों के लिए कभी कोई जगह नहीं थी। उन्हें पहली बार शिक्षा और रोजगार का हक अंग्रेजी राज ने दिया। इसलिए अंग्रेजी राज के प्रति कृतज्ञता दलितों का कर्तव्य है। अमरीकी बाजारवादी व्यवस्था जातिगत संरचना को तोड़ेगी इसलिए भारत में उसका स्वागत करना दलितों का और बड़ा कर्तव्य है। इस प्रकार, इतिहास को नकारने की उत्तेजना (या रणनीति) साम्राज्यवाद के समर्थन की राजनीति बन जाती है।
सौभाग्य से, यह चिन्तन न दलित मुक्ति के सबसे बड़े मसीहा डॉ. आम्बेडकर का था, न बहुसंख्यक दलित समाज का है। इसकी झलक ÷लोकप्रिय' या ÷उपेक्षित' दलित लेखन में मिलती है। उदाहरण के लिए, अधिसंख्य ÷लोकप्रिय' दलित लेखकों की यह प्रायः सर्वस्वीकृत मान्यता है कि दलित भारत के मूल निवासी हैं, वे आर्य आक्रमण से पहले, द्रविड़, नाग, दास वगैरह विभिन्न नामों से ज्ञात समुदायों के रूप में इस भूभाग में रहते थे। आर्यों ने उन्हें शूद्र और अंत्यज के रूप में समाज से बहिष्कृत कर दिया।
प्रश्न इस प्रकल्पना की सत्यता असत्यता का नहीं है। खुद डॉ. आम्बेडकर आर्य नस्ल और आर्य आक्रमण की धारणा को पश्चिमी साम्राज्यवाद की देन मानते थे। इस दृष्टि से ÷लोकप्रिय' अवधारणा उतनी ही संदिग्ध और अप्रामाणिक है जितनी ÷सम्भ्रांत' अवधारणा है। महत्व इस बात का है कि अभिजात दलित बुद्धिजीवियों से अलग, खुद प्रो. रामशरण शर्मा के ÷शूद्रों का प्राचीन इतिहास' से भी अलग, ÷उपेक्षित' दलितों ने ÷मूल नागरिकता' के माध्यम से इतिहास और राष्ट्र में अपनी दावेदारी पेश की है। ऐसा एक प्रयास के. नाथ ने ÷आर्य अनार्य वंश कथा' में किया है। (आर्य अनार्य वंश कथा, बौद्ध उपासक संघ साहित्य प्रकाशन, कानपुर, प्रकाशन वर्ष का उल्लेख नहीं।) उन्होंने पुराणों के अप्रमाणिक इतिहास से उठने वाले प्रश्नों के माध्यम से दलितों के इतिहास की ही खोज नहीं की है, उनके प्रागैतिहासिक पूर्वजों के उज्ज्वल चरित्रा का वर्णन भी किया है। अतीत की खोज और अतीत पर गर्व हमेशा संघर्षशील समुदाय में दिखता है।
सम्भ्रांत दलितों के विचार प्रकटतः ब्राह्मणवादी परियोजना की प्रतिक्रिया होकर भी वस्तुतः उसे पुष्ट करते हैं। वे सारे इतिहास और समाज से श्रमजीवियों को बहिष्कृत करके कुलीन वगोर्ं के लिए जमीन तैयार करते हैं। इस तरह, अभिजात दलित और अभिजात सवर्ण एक प्रकार से भाईचारे का परिचय देते हैं। ÷उपेक्षित' दलितों का नजरिया इससे भिन्न है। वे मेहनतकशों की तरह ÷अपना हिस्सा' मांगते हैं और हिस्से में अनुकम्पा नहीं चाहते, ÷सारी दुनिया' मांगते हैं। इसी दृष्टिकोण से के. नाथ वैदिक संस्कृति को भी दलितों की रचना मानते हैं। अपनी पुस्तिका के आरम्भ में ही वे कहते हैंᄉ ''व्यास नाम के ऋषि, शूद्र, पराशर के पुत्रा थे। उनकी मां का नाम सत्यवती था।'' उन्हें वेदव्यास कहा गया क्योंकि ''व्यास ने वेदों की रचना की और उसे पढ़ कर अपने शिष्यों का सुनाया।'' (आर्य अनार्य वंश कथा, पृ. 1) सुनने वाले शिष्य अगर शूद्र थे तो कोई जमाना ऐसा भी था जब वेदमंत्रा सुनना शूद्रों के लिए वर्जित न था। वे अगर ब्राह्मण थे तो शूद्र ऋषि के रचे और बोले गये मंत्रा उसके ब्राह्मण शिष्य सुनते थे इसलिए एक जमाना ऐसा भी था जब वर्णों के बंधन बहुत कठोर न थे।
जिन वेदों को वर्णव्यवस्था और शूद्रों की हीनदशा का स्रोत माना जाता है, उन्हें शूद्र ऋषि की रचना बता कर के. नाथ ने बिल्कुल अप्रत्याशित काम किया है। सवाल उनके विचारों की तार्किक संगति का नहीं, प्रचीन संस्कृति में हिस्सेदारी का है और उसका सीधा परिणाम वर्तमान संदर्भ पर पड़ता है। तार्किक दृष्टि से तो उनकी ही बातों में मेल नहीं है। वैदिक साहित्य आयोर्ं की रचना है। शूद्र अनार्य हैं। व्यास अगर शूद्र थे तो अनार्य हुए। उन्होंने वेदों की रचना कैसे की? क्या आर्य अनार्य की कल्पना निराधार नहीं हैं? क्या द्विज शूद्र का बंटवारा आर्य अनार्य से अलग, सामाजिक विकास की किसी और परिघटना से सम्बद्ध है? डॉ. आम्बेडकर ने इस बारे में बहुत महत्वपूर्ण तथ्य दिये हैं। उन पर ध्यान देने की जरूरत है। इसकी चर्चा थोड़ी देर में।
वेदव्यास शूद्र थे, ब्राह्मण बन गये। उनसे भिन्न उदाहरण पृषध्र ऋषि का है। पृषध्र मनु के दस पुत्राों में एक थे। वे वैदिक ऋषि भी थे। ऋग्वेद में उनके मंत्रा हैं। बालरिवल्य सूक्तों में एक जगह पृषध्र इंद्र से प्रार्थना करते हैं कि मुझे सौ घोड़े, सौ गायें और सौ दास दोᄉ शंतदासः अतिसृजः। उनका उल्लेख के. नाथ और डॉ. आम्बेडकर दोनों ने किया है। के. नाथ ने अपने विवरण में बताया है कि इंद्र ने पृषध को गोचारण सौंपा। उनकी गायों में गुरु वशिष्ठ की गायें भी थीं। एक रात बाघ घुस आया और उसने एक गाय को पकड़ लिया। पृषध्र ने अंधेरे में तलवार से बाघ पर हमला किया लेकिन भूल से गाय का सिर कट गया। वह वशिष्ठ की गाय थी। कुपित होकर वशिष्ठ ने उन्हें शाप दे दियाᄉ ''जाओ, तुम शूद्र हो जाओ।'' (उप.,पृ.32) आम्बेडकर ने विष्णुपुराण के हवाले से इस कथा का उल्लेख इस प्रकार किया हैᄉ ''मनु का पुत्रा प्रशाध (पृषाध्र) अपने गुरु की गाय के वध के पाप से शूद्र हो गया।'' (शूद्रों की खोज, समता प्रकाशन, नागपुर, द्वितीय आवृत्ति, 1999. पृ. 44)। पृषध्र की तरह राजा सत्यव्रत यानी त्रिाशंकु और उनके पुत्रा हरिश्चंद्र भी शूद्र बन गये! (दे. उप., पृ. 67-68)
व्यास शूद्र थे, ब्राह्मण बन गये; पृषध्र ब्राह्मण थे, शूद्र बन गये। त्रिाशंकु और हरिश्चंद्र भी क्षत्रिाय थे, शूद्र बन गये। यदि ब्राह्मण और शूद्र का सम्बंध आर्य अनार्य जैसी भिन्न और विरोधी जातियों से होता तो ऐसा वर्णान्तरण सम्भव न होता। अपने ही तथ्यों के विपरीत प्रचलित धारणा के अनुसार के. नाथ मानते हैं कि ''दैत्य का अपभ्रंश दास है, दास का शाब्दिक अर्थ दलित हो सकता है। यही दलित अस्पृश्य, अंत्यज और बहिष्कृत, दस्यु आदि नामों से शोषित किये गये।'' (आर्य अनार्य वंश कथा, पृ. 6) वाक्यांश गड़बड़ है लेकिन आशय स्पष्ट है। यहां ÷दलित' जिन नामों से सम्बद्ध हैं, उन्हें दैत्य, दास, दस्युु आदि बताया गया है और उन्हीं को अंत्य, अंत्यज, बहिष्कृत भी कहा गया है।
शूद्र या दलित अगर दैत्यों से संबद्ध हैं तो ब्राह्मण देवों से। ब्राह्मण स्वयं भी देव कहे गये हैं। दैत्यों और देवताओं की शत्राुता उतनी ही प्रसिद्ध है जितनी ब्राह्मणों और शूद्रों की। पुराणकथाओं के रचयिता दलित नहीं हैं। लेकिन उन्हें दलितवादी दृष्टि से पढ़ें तो एक नयी दुनिया सामने आती है। के. नाथ ने मानो निचोड़ पेश करते हुए लिखा हैᄉ ''सामने से युद्ध में देव जाति के लोग दैत्यों से कभी जीत नहीं पाये हैं।'' (उप., पृ. 9) अधिसंख्य कथाओं में दैत्य, असुर, राक्षस शासक हैं और देवता छल छद्म से उन्हें पराजित करते हैं। इन असुरों दैत्यों को अनार्य मानना आवश्यक नहीं है क्योंकि उनमें भी बहुत से ब्राह्मण क्षत्रिाय हैं। रावण राक्षस था, ब्राह्मण भी था; कंस असुर था, उसका भांजा कृष्ण जन्म से उसी की तरह क्षत्रिाय और परवरिश से यादव था। इसलिए देवता दानव, द्विज शूद्र, आर्य अनार्य का विभाजन या कल्पना बाद को की गयी है। यहां चित्रिात संघर्ष सामाजिक विकास की अवस्थाओं से सम्बंधित है, ÷सभ्यताओं का संघर्ष' नहीं है।
दानवों के सारे गुण देवताओं में हैं। छल कपट में इंद्र का कोई मुकाबला नहीं है। तुलसीदास की सरस्वती ने इसी इंद्र के लिए कहा था, ÷उ+ंच निवास नीच करतूती, देखि न सकई पराइ विभूती।' उसकी नीच करतूतों से दलितवादी पाठ में देव संस्कृति की जो तास्वीर बनती है, वह प्रचलित धारणा को छिन्न भिन्न कर देती है। सबसे रोचक तथ्य विष्णु के बारे में है। वे दस अवतारों के स्रोत और परब्रह्म जैसे हैं। उनका चरित्रा इंद्र से बहुत अलग नहीं है। समुद्र मंथन से लेकर वामनावतार तक उनके कार्यकलाप का वर्णन के. नाथ ने किया है। विदित है कि विष्णु ने ही सुंदरी बन कर धोखे से दानवों को विष और देवताओं को अमृत दिया था। महान दानी दैत्यराज बलि से ब्राह्मण रूप धर कर विष्णु (वामन) ने ही राजपाट ले लिया था। बलि राक्षस होकर भी यज्ञ करता था; वामन ÷घूमते घूमते राजा बलि की यज्ञशाला में आया।' (उप., पृ. 27) वैदिक यज्ञ का विरोध सभी दैत्य नहीं करते थे !
÷का रहीम हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात।' भृगु कौन था? उसने विष्णु को लात क्यों मारी थी?
राजा बलि की सम्पत्ति हड़पने का प्रयास देवता बहुत पहले से कर रहे थे। बलि के गुरु शुक्राचार्य थे और शुक्राचार्य के पिता भृगु। विष्णु ने भृगु की पत्नी का गला सुदर्शन चक्र से काट दिया था। उनका दोष यह था कि उन्होंने देवताओं को शुक्राचार्य के आश्रम पर आक्रमण करने से रोका। देवता न माने तो योग विद्या से उन्होंने देवताओं को परास्त कर दिया। उनकी मृत्यु से आहत भृगु ने विष्णु को दंड और शाप दिया। तब उन्हें प्रसन्न करने के लिए विष्णु ने दूसरी ब्राह्मणी भेंट की और शुक्राचार्य को प्रसन्न करने के लिए इंद्र ने अपनी पुत्राी जयंती को भेज दिया। (पृ. 10) गुरु का प्रतिशोध लेने के लिए बलि ने स्वर्ग पर हमला किया। भयभीत इंद्र देवगुरु बृहस्पति के पास गये; बृहस्पति ने कहाᄉ ''देवताओं के दुश्मन भृगुवंशी ब्राह्मणों ने ही उसे सलाह दी है कि अमरावती पर चढ़ाई कर दो। क्योंकि बलि ने देवशत्राु भृगुवंशी ब्राह्मणों को पनाह दी है और तुम सपरिवार कहीं जाकर छिप जाओ।'' (पृ. 26) भृगु का प्रसंग ब्राह्मणों की श्रेष्ठता का उदाहरण नहीं रह गया!
ब्राह्मण दैत्यों की शरण लेते हैं, देवताओं से लड़ते हैं, शरणदाता को लड़+ने के लिए उकसाते भी हैं! बहरहाल, इंद्र के नेतृत्व में पराजित देवता छिप गये। देवों की माता अदिति थीं। वे दुःखी हुईं। उनके पति कश्यप थे। प्रह्लाद के पिता हिरण्यकश्यप में ÷कश्यप' उन्हीं का द्योतक है। कश्यप की दो पत्नियां थीं। दिति, जिनसे दैत्य हुए और अदिति, जिनसे देवता हुए। दैत्य देवता एक वंश के थे, एक ही पिता की संतान थे। उनका रक्त सम्बंध कौरवों पांडवों से भी ज्यादा घनिष्ठ था। इसीलिए देवों और दानवों के सांस्कृतिक जीवन में समानताएं मिलती हैं। बलि तपस्या करता था, रावण तपस्या करता था, प्रह्लाद तपस्या करता था, अयोध्या का दैत्य राजा ह्यग्रीव भी हजार वर्ष तपस्या कर चुका था, खुद कश्यप तपस्या कर रहे थे जब दैत्यों की माता दिति ने कामातुर होकर वीर्यदान के लिए उन्हें विवश किया।
दैत्यों ने देवताओं को परास्त करके उनकी सम्पत्ति छीन कर उन्हें भगा दिया। इससे दुःखित अदिति को जब कश्यप भी समाधान नहीं दे पाये, तब विष्णु छिप कर आये। बोले, मैं पतिवेश में तुम्हारे पास रहूंगा, ''अपने वीर्य से एक पुत्रा उत्पन्न करूंगा जो बलि की सम्पूर्ण सम्पत्ति दान में ले लेगा।'' (पृ. 26) लगता है, इंद्र और अहल्या ने विष्णु और अदिति का अभिनय दोहराया था! यह अकेला प्रकरण नहीं है। तुलसी को विष्णुप्रिया कहा जाता है। वह शंखचूड़ की पत्नी थी। युद्ध में देवता जीत नहीं रहे थे क्योंकि तुलसी का अखंड स्त्राीत्व शंखचूड़ का कवच था। उधर युद्ध चल रहा था, ''इधर विष्णु जी शंखचूड़ का वेश धारण कर संज्ञा बेला पर शंखचूड़ के महलों में आ गये।'' युद्ध का परिणाम पूछने पर कहा, ''थोड़ा अवकाश लेकर तुम्हें देखने चला आया।'' स्वभावतः तुलसी भी प्रसन्न होकर ''पत्नीव्रत व्यवहार करने लगी।'' सतीत्व नष्ट होते ही रणभूमि में ''देवताओं ने शंखचूड़ को मार गिराया।'' (त्राासदी, उत्पीड़न के पुरातन शास्त्राीय आख्यान, जयप्रकाश बाल्मीकि, अनिल प्रकाशन, जयपुर, 1997, पृ. 29)
छल, कपट, युद्ध, रक्त सम्बंधों का विघटन, नैतिक मान्यताओं की अस्थिरता आदि एक पिछड़ी हुई सामाजिक अवस्था का चित्रा उपस्थित करते हैं। सवर्णों के लोकप्रिय विश्वासों को उलट कर दलित लोकप्रिय विश्वास इन वृत्तांतों से अपना समकालीन बोध निर्मित करता है, ÷देवों के छल छद्म के समांतर दानवों के मूल अधिकार और सदाचरण के माध्यम से नैतिक और सांस्कृतिक गरिमा का भाव अर्जित करता है। स्वभावतः इस अध्ययन की एक भूमिका अस्मिता निर्माण में भी सक्रिय होती है।
आस्था और आत्मसम्मान
पहले सुर असुर संग्राम, फिर ब्राह्मण क्षत्रिाय, द्विज शूद्र संघर्ष; मानो ÷सभ्यता' का विकास युद्धों से ही हुआ है। आधुनिक काल में आर्य द्रविड़ भावना और जुड़ गयी है! शूद्रों की तरह द्रविड़ भी मूलनिवासी थे जिन्हें आयोर्ं ने खदेड़ा था। (एस.एल.सागर, मैला उठाने वाला अस्पृश्य समाज, सागर प्रकाशन, मैनपुरी, 1996, पृ.6) संस्कृत में उपलब्ध सारा धार्मिक पौराणिक साहित्य आयोर्ं की रचना है। उसमें शूद्रों की तरह द्रविड़ों की अवहेलना भी होगी ही!! ÷पेरियार रामायण' नाम से विख्यात अत्यंत विवादास्पद पुस्तक की भूमिका में ही बता दिया गया है कि बाल्मीकि रामायण में ''तमिल के निवासियों को बंदर और राक्षस कह कर उनका उपहास किया गया है।'' (सच्ची रामायण, पेरियार ई.व्ही. रामास्वामी नायकर, पॅमीलान प्रकाशन, नागपुर, 1997, पृ. 6) पुस्तक के आरम्भ में बताया गया है कि ''रामायण और वरेथन (महाभारत) आर्य ब्राह्मणों द्वारा चालाकी और चतुरतापूर्ण (ढंग से) निर्मित प्रारम्भिक प्राचीन कल्पित कथाएं हैं।'' (पृ. 7)
अगर काल्पनिक कथाएं हैं तो उनमें उद्देश्य प्रधान होगा। उसके रचयिता ÷आर्य ब्राह्मण' हैं। उद्देश्य स्पष्ट है। जिन अनायोर्ं अब्राह्मणों को बंदर और राक्षस कहा गया है, उनकी भावनाएं अवश्य आहत हुई होंगी। ÷सच्ची रामायण' उसका जवाब है। उसका उद्देश्य भी स्पष्ट है। प्रचलित रामायण के झूठ का प्रतिवाद करना। फलतः मुकदमेबाजी हुई। सोद्देश्य लेखन वस्तुगत ऐतिहासिक तथ्य को पृष्ठ भूमि में ठेल कर आत्मगत भावना के अनुसार एक वृत्तांत निर्मित करता है। अस्मिता की राजनीति इसी उद्देश्यवत्ता के अनुरूप अपना पाठ निर्मित करती है। उसमें ÷अपनी' पहचान के ढांचे में ÷पराये' की दमनकारी रणनीति का विखंडन निहित होता है और प्रकट रूप में वह उत्पीड़ितों पर होने वाले सदियों के अन्याय का प्रत्युत्तर देती है। पेरियार रामायण इस दृष्टि से अस्मितामूलक अध्ययन की प्रस्तावना भी है। समस्या केवल यह है कि उसमें पौराणिक कथाओं के विखंडन के साथ साथ प्रतिशोध की उत्तेजना भी है जिसके चलते वह बहुत से अनर्गल ब्योरों में जा फंसती है।
उदाहरण के लिए पेरियार भी विष्णु के घृणित अनैतिक चरित्रा का उल्लेख करते हैं। (दे. पृ. 9-10) राम, दशरथ, कौशल्या आदि के भी छल, पाखंड, अन्याय का वर्णन करते हैं। इसके लिए विभिन्न राम कथाओं और आधुनिक शोधों का उपयोग करते हैं। इस दृष्टि से उनका कार्य विद्वतापूर्ण है लेकिन पूर्व निश्चित या प्रचलित धारणाओं को उलटने की धुन में पेरियार अतिवाद तक जाते हैं। एक उदाहरण देखें। कौशल्या आदि मां कैसे बनीं? दशरथ से? यज्ञ से? नहीं; दशरथ ने होता, अवयवु और युवध नामक तीन पुरोहितों से ''अपनी तीनों रानियों से सम्भोग करने की प्रार्थना की।'' पुरोहितों ने ''अपने अभिलषित समय तक उनके साथ यथेच्छ सम्भोग करके उन्हें राजा दशरथ को वापस कर दी।'' (पृ. 11)
ऐसे वर्णन न तथ्यपूर्ण कहे जायेंगे, न अस्मितामूलक, बल्कि कुत्सापूर्ण कहे जाऐंगे। ब्राह्मणवादी मनुवादी व्यवस्था में दलितों के साथ स्त्रिायां भी उत्पीड़ित हुई हैं। कौशल्या आदि को उनका वृद्ध नपुंसक पति अगर पुरोहितों को समर्पित करता है और पुरोहित उन रानियों से यथेच्छ सम्भोग करते हैं तो इससे स्त्राी की परवशता ही साबित होती है। दलित स्त्राीवाद ने जिसे ढांचे का विकास किया है, वह पेरियार की इस दृष्टि से बहुत अलग है। पेरियार का नजरिया उनके उपशीर्षकों से भी समझ में आता है, ÷दशरथ का कमीनापन' (पृ. 33), ÷सीता की मूर्खता', (पृ. 35), ÷रावण की महानता' (पृ. 38), इत्यादि। इस पक्षधर लेखन की प्रकृति को पूरी तरह समझने के लिए, दशरथ के उक्त कमीनेपन के विपरीत, रावण के प्रति पेरियार की हमदर्दी का उदाहरण भी देखना चाहिए। (कृपया नीचे उद्धृत अंश में अनुवाद की भ्रष्टता के लिए पेरियार को दोषी न समझें!) उनका कहना हैᄉ
''यदि हम रावण के प्रति निर्दिष्ट उस अभियोग का मामला, कि उसने सीता का स्त्राीत्व भ्रष्ट किया। वह उसे छल से ले गया। खुफिया विभाग के किसी अधिकारी को अनुसंधान के लिए सौंप दें। तथा खुफिया विभाग की रिपोर्ट किसी निष्पक्ष न्यायाधीश के समक्ष निर्णय के लिए प्रस्तुत की जाय और यदि राम को अभियोगी तथा रावण को अभियुक्त समझ कर राम की सुविधानुसार ही मामले का निर्णय किया जायᄉ तो हमें पूर्ण विश्वास है, कि न्यायाधीश रावण के पक्ष में ही अपना यह निर्णय देगा कि रावण निर्दोष तथा निष्कलंक है। उसे डरा व धमका कर निष्प्रयोजन फांस दिया।'' (पृ. 44)
जांच अधिकारी, वकील और निष्पक्ष न्यायाधीश की सारी जिम्मेदारियां मानो पेरियार ने खुद ही सम्भाल ली हैं!
ऐसी ÷आलोचना' का सामाजिक या सांस्कृतिक दृष्टि से क्या उद्देश्य है? यह शोधपूर्ण हो सकती है, तार्किक नहीं है। शुरू में पेरियार ने कहा थाᄉ ''राम और सीता में किसी प्रकार की कोई दैवी तथा स्वर्गीय शक्ति नहीं है।'' (पृ. 6) लेकिन रावण को निर्दोष तथा निष्कलंक सिद्ध करने के लिए जांच अधिकारी की हैसियत से वे पुराण कथाओं पर विश्वास कर बैठते हैं। उसका व्यभिचार न्यायसंगत है क्योंकि विष्णु ने जलंधर की पत्नी वृंदा का सतीत्व नष्ट किया था, बदले में वृंदा ने शाप दिया था कि ''ठीक यही दुःखद घटना तेरी स्त्राी के प्रति हो।'' (पृ. 52) अगर सीताहरण पूर्वजन्म के अभिशाप के कारण हुआ तो कथा में दैवीतत्व निहित मानना पड़ेगा। तर्क के बदले उत्तेजना से किये गये इस अध्ययन को आस्था की प्रतिलोम राजनीति कहा जा सकता है! यह ÷राजनीति' उत्पीड़ितों के आत्मसम्मान में सहायक नहीं होती। विद्वानों के इस चिन्तन से साधारण दलित लेखकों की समझ इसी बिन्दु पर अलग ही नहीं होती, श्रेष्ठ भी ठहरती है।
सवर्ण आस्था हो या दलित आस्था, वे परस्पर पूरक हैं। उसका विकल्प है तार्किक ऐतिहासिक दृष्टिकोण। बुल्के ने रामकथा के सभी रूपों का विस्तृत अवगाहन करके यह सुचिन्तित निष्कर्ष प्रस्तुुत किया है कि ''....विभिन्न नागरिक समुदाय का विभिन्न रामायणों आदि में विश्वास है। इससे स्पष्ट है कि करोड़ों की आबादी वाले भारत में किसी भी ग्रंथ से किसी व्यक्ति या नागरिक समुदाय की धार्मिक भावनाओं को आज तक न तो कोई चोट पहुंची है, न अपमान हुआ है और भविष्य में भी न तो चोट पहुंचेगी, न अपमान होगा। इसका सबसे बड़ा साक्ष्य यह है कि आज तक इस बीमारी में किसी भी व्यक्ति का न हार्ट फेल हुआ न मरा। आदि आदि।.... वास्तव में किसी भी व्यक्ति के विश्वास को न चोट पहुंचती है आर न अपमान होता है, बल्कि कुछ धूर्त राजनीतिक नेता सत्ता हथियाने और सामाजिक नेता झूठा बड़प्पन प्राप्त करने के लिए गरीबों और कमअक्ल लोगों को बरगला कर बवंडर खड़ा करके अपने स्वार्थ की सिद्धि करते हैं। जागृत समाज को चाहिए कि उपरोक्त ऐसे दम्भी नेताओं की बातों में कभी न आयें।.... किसी बात को तब मानिये जब वह बात तर्क की कसौटी पर खरी उतरे।'' (सच्ची रामायण की चाभीः राम कथा, कल्चरल पब्लिशर्स, लखनऊ, प्रथम बार (हिन्दी) सन्‌ 1971, पृ. 60)
ऐसे ÷दम्भी नेता' किसी एक समय और एक जाति तक सीमित नहीं हैं। कामिल बुल्के का कथन ऐतिहासिक महत्व का है। उसमें व्यक्त विचार इतने स्पष्ट हैं कि बिना किसी टीका टिप्पणी के, अपने प्रत्यक्ष अनुभव से लोग इसकी सत्यता ग्रहण कर लेते हैं। बुद्धिजीवियों को इन ÷दम्भी नेताओं' में अपनी गिनती नहीं कराना चाहिए। दलित आत्मसम्मान का रास्ता आम्बेडकर के रचनात्मक दृष्टिकोण से निकलता है, पेरियार के उत्तेजनापूर्ण चिन्तन से नहीं। शोषित श्रमिकों और उत्पीड़ितों का सम्मान तभी हो सकता है जब सामाजिक विषमता दूर हो और घृणित समझे जाने वाले कायोर्ं में कुछ मानव समुदायों का जन्मजात सम्बंध खत्म हो। अतीत के प्रति भी निषेध का रुख अपनाना मुक्तिकामी लक्ष्यों के विपरीत जाता है। खुद डॉ. आम्बेडकर की विचारधारा आधुनिक मूल्यों और धार्मिक प्रेरणाओं को मिला कर बनी थी। आर. संगीता राव ने उनका यह कथन उद्धृत किया है कि ÷मेरे दर्शन की जड़ धर्म है।' (8 अक्तूबर 1954, आम्बेडकर और मार्क्स, पृ. 3)
पहले हिन्दू धर्मसुधार, फिर बौद्ध धर्म की दीक्षा, डॉ. आम्बेडकर न धर्म के प्रति निषेधवादी थे, न अतीत के प्रति। प्रगतिशील दलित चिन्तक कंवल भारती ने डॉ. धर्मवीर से पहले दलित धर्म की प्रस्तावना करते हुए दिखाया था कि डॉ. आम्बेडकर मध्यकालीन संत कबीर रैदास के धार्मिक मूल्यों के अनुयायी थे। (दलित धर्म की अवधारणा और बौद्ध धर्म, कदम, दिल्ली, पृ. 16) धर्मवीर के वर्चस्ववादी सपनों के विपरीत कंवल भारती का रैदासपंथी धर्म श्रम के मूल्यों को अपनाता है। उन्होंने रैदास का यह दोहा भी उद्धृत किया हैᄉ
श्रम को ईश्वर जान के जो पूजहिं दिन रैन।
रैदास तिनहिं संसार महं सदा मिलहि सुख चैन॥ (उप. पृ. 8)
श्रम की मूल्यवत्ता प्रभुत्व और नियति दोनों को चुनौती देती है। इसी मूल्यबोध के नाते ''धार्मिक विरासत ने ही उन्हें (डॉ. आम्बेडकर को) प्रतिरोध की संस्कृति दी थी।'' (उप. पृ. 16) यह बात भी महत्वपूर्ण है कि श्रम की मूल्यवत्ता के नाते डॉ. आम्बेडकर हो या कंवल भारती, उनके लिए संघर्ष का मोर्चा अतीत नहीं है, वर्तमान है।
लोकप्रिय दलित लेखन में पेरियार की अपेक्षा आम्बेडकर की प्रेरणा ज्यादा है। संगीता राव ने बुद्ध, आम्बेडकर और मार्क्स में सम्बंध देखने का जा प्रयास किया है, वह उचित है। तीनों के चिन्तन का सारतत्व है सामाजिक परिवर्तन का विश्वास। डॉ. आम्बेडकर शताब्दियों से बद्धमूल, विषमता, अस्पृश्यता को मिटाने के लिए इस तरह लड़े कि आगे चल कर दलितों और शोषितों ने उन्हें अपने स्वाभिमान का प्रतीक बना लिया। मार्क्स ने दर्शन का पहला काम ही यह बताया था कि वह दुनिया को बदले। बुद्ध का क्षणवाद हर चीज को परिवर्तनशीन मानता है, स्थायी कुछ भी नहीं है, वर्णव्यवस्था भी स्थायी नहीं है। (डॉ. आम्बेडकर और मार्क्स, पृ. 6) बुद्ध से अधिक मार्क्स और आम्बेडकर की आधुनिक विचारधारा परिवर्तन को एक सचेत दिशा बनाने पर जोर देती है। वह दिशा एक जातिविहीन, वर्गविहीन तथा अखंड भारत की स्थापना की है। (उप., पृ. 2)
संगीता राव भावुक विचारक नहीं हैं। वे आम्बेडकरवादी हैं। उन्होंने पहले यह स्पष्ट किया है कि मार्क्स और आम्बेडकर यथार्थवादी हैं जबकि ''बुद्ध के मूल उपदेश आदर्शवाद की ओर ले जाते हैं।'' (उप. पृ.22) हालांकि आम्बेडकर खुद ऐसा नहीं मानते हैं। बुद्ध के प्रति मार्क्स और आम्बेडकर की विचारधारा का फर्क स्पष्ट करने के बाद वे मार्क्स और आम्बेडकर में भी अंतर करते हैं। एक तो ''मार्क्सवादियों की ओर से जाति व्यवस्था इसके मौलिक विकास और इसके अंशों के सम्बंध में मूल्यांकन करने में कमी रही है।'' (उप. पृ. 13) जबकि आम्बेडकरवादी विचारधारा के अनुसार, ''सबसे पहले जाति व्यवस्था को तोड़ना चाहिए।'' (पृ. 17) यह बात विचारणीय हो सकती है क्योंकि अगर डॉ. आम्बेडकर ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद को मजदूर वर्ग का एक बराबर शत्राु मानते थे तो दोनों प्रणालियां एक दूसरे की पूरक होंगी और उन्हें एक साथ तोड़ना होगा। प्राथमिकता के अलावा, मार्क्स और आम्बेडकर का फर्क सर्वहारा की तानाशाही को लेकर भी था। (पृ. 25)
मार्क्स और आम्बेडकर की विचारधाराओं में तुलना बहुत से दलित लेखक करते हैं। डॉ. आम्बेडकर मार्क्स और बुद्ध दोनों का अध्ययन अंतिम दिनों में गहराई से कर रहे थे। इसलिए कई लोकप्रिय दलित लेखक बुद्ध और मार्क्स की तुलना करते हैं। राहुल सांकृत्यायन ने ऐसी तुलना काफी पहले की थी। डॉ. धर्मकीर्ति ने ऐसी अत्यंत दिलचस्प तुलना हाल में की है। उनके विवेचन का एक अंश देखना महत्वपूर्ण होगाᄉ
बौद्ध धर्म मार्क्सवाद
1. बौद्ध धर्म ब्रह्म, ईश्वर आत्मा 1. मार्क्सवाद भी ईश्वर और आत्मा को आदि को नहीं मानता। नहीं मानता
2. वर्ण व्यवस्था, जातिभेद व 2. सभी मनुष्य समान हैं, उनमें वर्ग भेद
छुआछूत नहीं होते हैं । नहीं होता।....
7. भूख व गरीबी महापाप और 7. भूख व गरीबी मानव जाति के विकास
दुःखों के जनक हैं। में बाधक है।
8. वर्ण और जाति के अुनसार 8. वर्ण, जाति नहीं है, इसलिए रुचि के
व्यवसाय निर्धारित नहीं। अनुसार व्यवसाय चुनना होता है।
11. शोषण की समाप्ति के लिए 11. शोषण वर्णसंघर्ष से ही समाप्त हो
संघर्ष किया जाना चाहिए। सकता है।...इत्यादि।
(डॉ. धर्मकीर्ति, डी. लिट्, दर्शनशास्त्रा, शोषितों और दलितों के नाम खुला पत्रा, सम्यक प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ. 13)
वर्ण व्यवस्था विरोधी संघर्ष में प्राचीन बौद्ध कवि अश्वघोष की ÷वज्रसूची' (हीरे की सुई) पर ध्यान देना जरूरी है। उन्हें राहुल जी ने ब्राह्मण कुल में उत्पन्न बताया था। ÷वज्रसूची' 53 श्लोकों की छोटी सी रचना है जिसमें हिन्दू धर्मशास्त्राों की आलोचना करते हुए जीवन व्यवहार और इतिहास को साक्ष्य बताया गया है। उसकी भूमिका में डा. तुलसीराम ने लिखा है कि अनेक प्राचीन दार्शनिकों ने वर्ण व्यवस्था का विरोध किया, किन्तु वह टस से मस नहीं हुई। वज्रसूची उपनिषद्, अश्वघोष अनुवादᄉ भंते ग. प्रज्ञानंद, गौतम बुक सेंटर, दिल्ली, चतुर्थ संस्करण, पृ. 5) इससे समझना चाहिए कि वह कोई षडयंत्रा न होकर ऐतिहासिक प्रणाली थी। अश्वघोष जिस समाज में थे, वह व्यापारिक उन्नति का समाज था। इसके लिए भेदभाव रहित विचार आवश्यक था। अश्वघोष ने ऐसे अकाट्य तर्क दिये, जिनका उत्तर वर्णव्यवस्था प्रेमियों के पास न तब था, न अब है। वे आत्मा, शरीर, गुण, आचार, ज्ञान किसी भी आधार पर द्विज शूद्र भेद का औचित्य नहीं ठहरने देते। उत्पत्ति सिद्धांत की आलोचना करते हुए उन्होंने बताया कि गूलर, कटहल जैसे वृक्षों में टहनी, तना, जोड़, जड़ सब जगह फल लगते हैं लेकिन वे ÷अलग अलग जातियों के नहीं होते; सिर में लगा गूलर ब्राह्मण और तने में लगा गूलर शूद्र नहीं होता, उसी प्रकार मनुष्य सब एक समान हैं। एक पिता के पुत्राों की भांति उनमें भेद नहीं है।' (उप. पृ. 26)
अश्वघोष के तर्क कहीं कहीं कबीर की याद दिलाते हैं। जैसे, ब्राह्मण मुख से उत्पन्न हुए हैं, और ब्राह्मणी? वह भी! तब ÷वह ब्राह्मण की बहन हुई। (भवतां भागिनीप्रसंगस्यात्‌।)' (पृ. 26) तब वर्ण कहां आये? उनकी यह निभ्रान्त समझ आज भी बहुतों के पास नहीं है कि ÷चार वर्ण की उत्पत्ति कर्म अर्थात्‌ श्रम से हुई है।' (उप.) श्रम विभाजन से पहले एक ही वर्ण था, यह बात ÷महाभारत' तक लोगों को याद थी, ''हे युधिष्ठिर! पुराने समय में, संसार में एक ही वर्ण था। चार वर्णों की उत्पत्ति कमोर्ं की भिन्नता के अनुसार हुई है।'' (कर्मक्रियाविशेषण चातुर्वर्ण्य प्रतिष्ठितम्‌।) (उप., पृ. 28) कमोर्ं की भिन्नता अर्थात्‌ श्रम का विशेषीकरण (विभाजन)। आश्चर्य की बात यह है कि अश्वघोष के समय मार्क्स का जन्म नहीं हुआ था और मार्क्स ने भी अश्वघोष को नहीं पढ़ा था! विश्वास की जगह इतिहास और वास्तविकता पर ध्यान देने से आग्रह छूट जाते हैं। सम्भव है, ÷अस्मिता' निर्माण में ऐसा आग्रहमुक्त चिन्तन बहुत सहायता न करे!
बुद्ध से अश्वघोष तक प्राचीन भारत में जातिविरोधी बौद्ध धर्म के प्रति दलितों की सहानुभूति समझ में आती है। लेकिन उसे आग्रहपूर्ण श्रद्धा का रूप लेने से बचना चाहिए। वरना कंवल भारती जैसे प्रबुद्ध चिन्तक भी इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि ÷केवल बौद्ध धर्म ही दलित धर्म का नया रूप ले सकता है।' (दलित धर्म की अवधारणा और बौद्ध धर्म, पृ. 19) इसलिए दलित धर्म की प्रतिज्ञाओं में एक यह भी है कि ÷मैं बौद्ध धर्म के विरुद्ध किसी भी बात को नहीं मानूंगा।' (पृ. 20) जबकि ऐतिहासिक अध्ययन से यह पुष्ट नहीं होता कि बौद्ध धर्म समतामूलक है। डॉ. सुवीरा जायसवाल ने प्रारम्भिक पालि स्रोतों के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला है कि गहपति (गृहपति) और उसके ÷आश्रित श्रमिक' की हैसियत एक न थी, उनमें उच्च और ÷निम्न श्रेणी' का सोपान था। (÷बौद्ध धर्म में सामाजिक सोपान'; जातिवर्ण व्यवस्था, ग्रंथशिल्पी, प्रथम हिन्दी संस्करण, 2004, पृ. 209) गृहपतियों में ÷कस्सक' (कृषक) और ÷सेट्ठि' (व्यापारी) का अंतर था, (पृ. 210) लेकिन वे गुलामों और वेतनभोगी श्रमिकों से उ+पर थे; उनसे अलग ''बेस्स (वैश्य) तथा सुद्द (शूद्र) को एक कोटि में रखने की प्रवृत्ति बहुत स्पष्ट है जिससे प्रकट होता है कि शारीरिक श्रम करने वालों की स्थिति में गिरावट आ गयी थी।'' (उप. पृ. 211) धर्म को सामाजिक प्रणाली से अलग मानने की भाववादी प्रवृत्ति इस सत्य को झुठला कर आस्था के मार्ग पर ले जाती है!
बौद्ध धर्म के अलावा कभी कभी इस्लाम को लेकर विचार किया जाता है। एक दलित विचारक कहीं उसे उदार, सहिष्णु और राष्ट्रवादी सिद्ध करता है (दे. एस.एल. सागर, धर्म निरपेक्षता बनाम साम्प्रदायिकता, सागर प्रकाशन, मैनपुरी, पृ. 94-95) और कहीं दलितों को घृणित पेशे में ठेलने वाला सिद्ध करता है, ''यह मुसलमानों का ही काल था जब अछूतों को पाखाना उठाने वाली कौम बनाया गया।'' (एस.एल.सागर, मैला उठाने वाला अस्पृश्य समाज, सागर प्रकाशन, मैनपुरी, 1996, पृ. 7) कारण यह कि पर्दानशील मुस्लिम औरतें बाहर नहीं निकलती थीं, घरों में ही संडास बना लिए गये थे! (पृ.11) इससे दलित प्रश्न में नयी जटिलताएं उत्पन्न हुईं। कंवल भारती का विचार भी कुछ कुछ ऐसा ही है, ''... मुस्लिम शासकों ने ब्राह्मणवाद से यह समझौता कर लिया था कि वे हिन्दू समाज व्यवस्था को ध्वस्त नहीं करेंगे। उन्हें भी सेवकों की जरूरत थी....।'' (दलित धर्म, पृ. 11) शासक और सेवक के रूप में विचार करने पर धार्मिक आग्रह गौण हो जाते हैं! ऐसा बौद्ध धर्म के प्रति प्रायः नहीं दिखता।
शासक और सेवक का अंतर ही प्रकारांतर से जातियों का अंतर है। इसीलिए धर्मांतरण के बाद भी मुसलमानों और ईसाइयों में दलितों का अलगाव और निम्न स्थान कायम रहता है। श्री चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु ने मुसलमानों और सिक्खों में वर्ण व्यवस्था का परिचय देते हुए लिखा है कि ''....। मुसलमानों में भी शेख, सैयद, मुगल, पठान नामक चार वर्ण एवं धुना, जुलाहे, हज्जाम, कुंजड़े, कस्साब, कसगर, मोमिन, मौरासी, मनिहारा, रंगरेज, दर्जी, गद्दी, डफाली, नक्काल इत्यादि नाना जातियां बन गयीं। उधर सिक्खों में भी जाट, अहलुवालिया, खत्राी, खाती, मजहबी आदि जातियां बनीं और ईसाइयों में भी अछूत जातीय, उच्चजातीय ईसाई एवं यूरोपियन और यूरोशियन ईसाइयों में भी जातिभेद की दुर्गंध निकलती देखी जाती हैं।'' (जाति तोड़ो, बहुजन कल्याण प्रकाशन, लखनउ+, पृ. 51) इसलिए जाति का प्रश्न ÷हिन्दू' समाज का नहीं, भारतीय समाज का है। उसके स्रोत धर्मग्रंथों में नहीं, समाजिक आर्थिक प्रणाली में हैं। धर्मग्रंथ उस प्रणाली को विश्वास में ढाल कर टिकाउ+ बनाने में मददगार होते हैं।
अंग्रेजी राज और समकालीन भारत
कम्युनिस्ट पार्टी ने अंग्रेजी पूंजी, यूनियन जैक, दंगे और विभाजन के साथ आयी आजादी को ÷झूठी' कहा था तो उसे ÷देशद्रोही' बताया गया था। लोकप्रिय, बल्कि ÷उपेक्षित' दलित लेखक गुरु प्रसाद मदन ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण पुस्तिका लिखी है ÷झूठी आजादी'। अपनी सरलीकृत समझ के कारण एस.एल. सागर जैसे जुझारू लोग भी मान बैठते हैं कि पहली बार अंग्रेजों ने धर्मांतरण करके दलितों को खानसामा और सैनिक बनाया! (मैला उठाने वाला अस्पृश्य समाज, पृ. 12) गुरु प्रसाद मदन भी उन्हीं की तरह साधारण दलितों के बीच आंदोलन और जागरण का काम करते हैं। लेकिन उनके विचार दूसरे हैंᄉ ''अंग्रेजों ने भारत को दो तरफ से लूटना प्रारम्भ किया। आर्थिक स्तर पर और सांस्कृतिक स्तर पर।'' दोनों स्तरों पर उन्होंने भारत को खोखला किया! आजादी के बाद भी ''आम आदमी को सही आजादी नहीं मिली। पहले की ही तरह पूंजीवादी, शासनवादी, वर्णवादी शासन की उन्हीं कुर्सियों पर वही कायम रहे जो अंग्रेजों के समय थे।'' (झूठी आजादी, भारतीय बौद्ध परिषद, रीवा, 1987, पृ. 13)
सामाजिक कार्यकर्ता के दृष्टिकोण की स्पष्टता के नाते (व्याकरण व्यवस्था की अस्पष्टता के बावजूद) मदन जी का निष्कर्ष सिर्फ दलितों के लिए नहीं, पूरे समाज के लिए महत्वपूर्ण है। रैदास, आम्बेडकर, कंवल भारती की तरह वे श्रम का मूल्य पहचानते हैं। इसलिए इतिहास की उनकी समझ भी अभिजात दलितों से अलग हैᄉ ''जिस भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता रहा है, उसके निर्माण में गरीबों, शोषितों, बहुजनों का योग था! उनकी श्रमसाध्यता का प्रतीक था।'' (उप., पृ. 11) अतीत की आर्थिक और सांस्कृतिक समृद्धि में श्रमिकों (दलितों) का योग थाᄉ यह विचार तभी आयेगा जब हम सत्तावादी ढांचे में जगह पाने के बदले सामाजिक ढांचे में बदलाव का लक्ष्य रखेंगे।
मदन जी ने आजादी के बाद दिनोंदिन बढ़ती विषमता और उसके परिणामस्वरूप उग्र होती जातिवादी घृणा का परस्पर सम्बंध रेखांकित किया है। साथ ही, सामाजिक परिवर्तन के लिए सच्चे नेतृत्व के प्रश्न पर विचार किया है। (पृ. 26 और आगे) भांति भांति के दलित हितैषियों, दलितवादियों और दलित नेताओं का जैसा विश्लेषण उन्होंने किया है, वह कांशीराम की अत्यंत लोकप्रिय पुस्तक ÷चमचा युग'में भांति भांति के चमचों के वर्गीकरण की याद दिलाता है। (दे. ज्ीम ब् ींउबीं ।हमए ।द म्तं वि ज्ीम ैजववहमे प्रकाशकᄉ कांशीराम, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1984, पूना समझौते की 50वीं सालगिरह पर, पृ. 90-102) (अवसरवादी नेताओं की इससे मिलती जुलती आलोचना सागर ने भी की है। दे. मैला उठाने वाला अस्पृश्य समाज, पृ. 18-19, 22-23) संघर्ष और परिवर्तन के लिए ललकारते समय मदन जी इतिहास को याद करते हैंᄉ जिन श्रमिकों ने भारत को सोने की चिड़िया बनाया, उन्होंने ही ÷बड़े बड़े साम्राज्यों को धराशायी कर दिया,' ÷कभी न डूबने वाले सूरज, अंग्रेजी साम्राज्य का धूल धूमिल हो गया।' (झूठी आजादी पृ. 28) यथार्थ बोध क्रांतिकारी उ+र्जा से मिल कर आवेगपूर्ण तर्क बन जाता है। सुविधा के लिए मान लें कि ÷अस्मिता' प्रतिष्ठित दलितों की समस्या है और ÷स्वाभिमान' उपेक्षित दलितों की, तो दलित आंदोलन और दलित विमर्श का फर्क स्पष्ट होगा। डॉ. धर्मवीर अस्मिता, विमर्श और वर्चस्व की दिशा में चलते हैं, कांशीराम संघर्ष, स्वाभिमान और परिवर्तन की दिशा में। ÷एक जिन्दा देवीः मायावती' के लेखक एच.एल. दुसाध ने कांशीराम के योगदान की चर्चा करते हुए लिखा हैᄉ ''बहुजन नायक कांशीराम सिर्फ हजारों साल के गुलामों में शासक बनने की भावना भर कर शांत न रह सके। बहुजन समाज में भौतिक सुखों की चाह पैदा हो, वह झोपड़ी छोड़ कर महलों के ख्वाब देखे इस बात के लिए वे एक मनोचिकित्सक की भांति बराबर प्रयास करते रहे हैं।'' कांशीरामवाद को साकार करती एक जिन्दा देवीः मायावती, सम्यक प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2006 पृ. 41)
कांशीराम ने अपने अभियान की शुरुआत में दो काम किये थे। मायावती का चुनाव और ÷चमचा युग' पुस्तक का प्रकाशन। दोनों काम बिना सोचे समझे न किये होंगे। मायावती को ÷जिन्दा देवी' बताने वाले चिन्तक देव दानव की सामान्य दलित धारणा से मुक्त नहीं हैं, फिर भी वे अपने नायक को ÷मूल निवासी' दैत्यों के वंशज बना कर पेश नहीं करते! यह सामाजिक संस्कार हैं जो दलितों को भी, आग्रहों के परे हटा कर, एक ही सांस्कृतिक जीवन का अंश साबित करता है। कांशीराम के लिए ÷चमचा युग' की शुरुआत गोलमेज सम्मेलन में (24 सितम्बर1932 को) दलितों के पृथक निर्वाचन के अस्वीकार हो जाने और संयुक्त निर्वाचन के थोप दिये जाने के बाद हुई। इसलिए कांशीराम ने उसे दलित स्वाभिमान और पहचान के मुद्दे के रूप में स्थापित किया। उनकी राय से, संयुक्त निर्वाचन मेंᄉ ''गांधी जी अलग निर्वाचन के जरिए एक वास्तविक प्रतिनिधि चुनने के बजाय संयुक्त निर्वाचन के जरिए दो चमचे स्वीकार करने पर राजी हो गये।'' ;ज्ीम ब्ींउबीं ।हमए ।द म्तं वि ैजववहमेद्ध वही (पृ. 94)
जाहिर है, इस पुस्तक का उद्देश्य इतिहास की व्याख्या करना न होकर अपने समय के दलित आंदोलन को इतिहास से जोड़ना था। इसके लिए उन्होंने पूना समझौते में सम्बंधित दस्तावेज, आम्बेडकर के प्रस्ताव, गांधी के पत्रा और ब्रिटिश प्रधानमंत्राी का उत्तर, सभी चीजें अपने पाठक के सामने प्रस्तुत कर दीं। इस प्रकार यह पुस्तक एक साथ कई स्तरों पर संवाद (या विवाद) करती है। उसका ऐतिहासिक संदर्भ गांधी आम्बेडकर विवाद है और तात्कालिक संदर्भ रिपब्लिकन पार्टी के महासचिव, दलित पैंथर और आम्बेडकर के महार समुदाय के कुछ खास सदस्यों द्वारा पूना समझौते की स्वर्ण जयंती के लिए बनायी गयी समिति में हिस्सेदारी थी। कांशीराम के अनुसार चमचा युग का ÷सबसे त्राासद पक्ष' है ÷प्रबुद्ध चमचे या आम्बेडकरवादी चमचे।' (ज्ीम ब्ींउबीं ।हमए पृ.100-101) चमचों की जरूरत सच्चे और वास्तविक लड़ाकुओं का विरोध करने के लिए सत्ता को होती है। (पृ. 90)
इस तरह वे दलितों का ÷सच्चे और वास्तविक' जुझारू नेतृत्व में संगठित करने के लिए और उनकी अलग पहचान या राजनीतिक दावेदारी के लिए पूना समझौते को निमित्त बनाते हैं। यह लोकप्रिय दलित लेखन की एक अलग रणनीति है। स्वभावतः उनके लिए ऐतिहासिक घटना की वस्तुगत व्याख्या के बजाय समकालीन राजनीतिक निहितार्थ महत्वपूर्ण था। यह निहितार्थ दलितवादी पाठ का आधार है, पूरी तरह पक्षधर निर्मिति है। एक उदाहरण काफी होगा। गांधी ने जान की बाजी लगा कर पृथक निर्वाचन के साम्प्रदायिक निर्णय का विरोध किया था। (चमचा युग, हिन्दी, समता प्रकाशन, नागपुर, 1998, पृ. 38) ब्रिटिश प्रधानमंत्राी के नाम अपने पत्रा में उन्होंने यह भी लिखा था कि अगर पृथक निर्वाचन को हिन्दुओं और दलितों के लिए ÷हानिकारक मानने का मेरा निर्णय' दोषपूर्ण है तो ÷जीवन दर्शन के अन्य हिस्सों के संदर्भ में मेरा सही होना सम्भव नहीं है।' (उप. पृ. 39) इससे पहले वे यह स्वीकार कर चुके थे कि हिन्दुओं ने जिस सुविचारित अपमान से दलितों पर शासन किया है, उसकी क्षतिपूर्ति ÷किसी भी तरह के प्रायश्चित से' नहीं हो सकती। (उप. पृ. 34-35)
गांधी के पत्राोत्तर में मैकडोनाल्ड ने लिखा कि दलित ÷भयंकर निर्योग्यता से पीड़ित' हैं; गांधी के अनशन का उद्देश्य उन्हें ÷सीमित संख्या में' अपने ऐसे प्रतिनिधि चुनने लायक बनने से रोकना है जो विधायिकाओं में उनकी आवाज उठा सकें। (पृ. 42) बेशक, यह नितांत मौलिक अर्थ था जो फूटपरस्त अंग्रेजी शासन ही दे सकता था। गांधी ने उत्तर दियाᄉ ''...मेरे निर्णय का जो अर्थ आपने निकाला है, वैसा आशय मेरे दिमाग में कभी नहीं आया।'' (पृ. 43) उन्होंने दोहराया कि पृथक निर्वाचन से हिन्दू समाज विखंडित होगा। (पृ. 43) इससे यह स्पष्ट होता है कि अंग्रेजी कूटनीति आजादी के संघर्ष को सामाजिक फूट और विघटन के किस रास्ते पर ले जाना चाहती थी।
डॉ. आम्बेडकर ने पृथक निर्वाचन की तरफदारी में चेतावनी देते हुए कहा किᄉ ''यदि दलितों ने हिन्दू समाज से बाहर जाने का दृढ़ संकल्प कर लिया तो इस प्रकार का दबाव उन्हें हिन्दू ढांचे में वापस लाने में सफल नहीं होगा।'' (पृ. 51) दलित हितों की उनकी पैरवी को राष्ट्रीय आंदोलन के खिलाफ बता कर तथाकथित राष्ट्रीय प्रेस ने आम्बेडकर को राष्ट्रीय ध्येय के विरुद्ध देशद्रोही के रूप में चित्रिात किया। (पृ. 51) जिस तरह गांधी के विचार को अंग्रेजों ने दलित विरोधी घोषित किया, उसी तरह ÷राष्ट्रीय' प्रेस ने आम्बेडकर को देशद्रोही घोषित किया। साम्राज्यवादी शासकों से यह आशा नहीं थी कि वे राष्ट्रीय हित और दलित हित को एक करते। समस्या यह थी कि पूंजीवादी राष्ट्रीय नेतृत्व या तत्कालीन दलित नेतृत्व में भी यह क्षमता नहीं कि वह वर्गीय आधार पर राष्ट्रीय और दलित हितों का सामंजस्य कर पाता।
फिर भी, अंग्रेज जिस तरह साम्प्रदायिक विभाजन पैदा करने में सफल हो गये, उस तरह जातिगत विभाजन करने में सफल नहीं हुए। इसका कुछ श्रेय आम्बेडकर को भी दिया जाना चाहिए। उन्होंने गांधी के अनशन की धमकी पर कहा थाᄉ ''किन्तु मैं विश्वास करता हूं कि महात्मा मुझे उनके जीवन तथा मेरे अपने लोगों के अधिकारों के बीच किसी एक को चुनने की आवश्यकता तक नहीं घसीटेंगे। क्योंकि मैं आने वाली पीढ़ियों के लिए अपने लोगों को, हाथ पैर बांध कर, सवर्णों के हवाले करने की रजामंदी कभी नहीं दे सकता।'' (पृ. 52) लेकिन अनशन शुरू हो जाने के बाद उन्होंने अपना आग्रह त्याग दिया। कम से कम इसके बाद राष्ट्रीय प्रेस को ÷देशद्रोही' आम्बेडकर के खिलाफ अपने प्रचार अभियान पर खेद प्रकट करना चाहिए था! कांशीराम ने भी इस बात का जिक्र नहीं किया है क्योंकि वह उनके भी उद्देश्य के विरुद्ध जाता है!!
साम्राज्यवाद के साथ साम्प्रदायिक भेद का और सम्प्रदायवाद के साथ जाति भेद का अटूट सम्बंध है। दोनों समस्याओं को काबू में करने के लिए एस.एल. सागर ने सामूहिक विवाह, सामूहिक भोज और सामूहिक गोष्ठियां आयोजित करने तथा भेदभावपूर्ण आचरण मिटा कर प्रजातंत्रा को सही अथोर्ं में भारत में लागू करने का सुझाव दिया है। (धर्म निरपेक्षता बनाम साम्प्रदायिकता, सागर प्रकाशन, मैनपुरी, पृ. 91-92) साम्प्रदायिक प्रश्न अतीत से उठ कर समकालीन भारत तक चला आया है। पिछले दो दशकों से राम मंदिर का विवाद हिन्दी प्रदेश में साम्प्रदायिकता का प्रमुख स्रोत बना हुआ है। सागर ने उसके विषय में बड़ा दिलचस्प तर्क पेश किया हैᄉ ''अकबर के काल में ही तुलसी और अबुल फजल काव्य रचना करते रहे हैं तो हिन्दू और मुसलमान एक भी रचनाकार द्वारा राम के मंदिर को ढहा कर बाबरी मस्जिद बनवायी गयी का वर्णन नहीं है।'' (पृ. 100) इससे साम्प्रदायिक प्रश्न को आस्था के बजाय तर्क से सुलझाने का रास्ता खुलता है। व्यवहार में ऐसा हो नहीं पाता, यह सही है। लेकिन प्रतिष्ठित दलित लेखन से अलग लोकप्रिय दलित लेखन में समाज की इतनी व्यापक समस्याओं के प्रति सरोकार झलकता है, यह महत्वपूर्ण है।
अंत में, इस बात का उल्लेख करना उचित होगा कि लोकप्रिय दलित लेखन में मतभेद, असहमति, अंतर्विरोध, असंगति वगैरह तो हैं ही, जिनमें कुुछ का प्रसंगवश विश्लेषण किया जा चुका है, लेकिन कभी कभी मुख्य धारा के दलित विचारकों से विवाद भी दिखायी देता है। मसलन, एच.एल. दुसाध ने ÷डाइवर्सिटी' की अपनी अवधारणा पेश की है और ÷मायावती' वाली पुस्तक में आदि से अंत तक कंवल भारती से बहस चलायी है। मायावती की बर्थ डे पार्टी से लेकर आम्बेडकर प ार्क बनाने तक, सभी आडम्बरपूर्ण कायोर्ं पर कंवल भारती की आलोचना को पूरी तरह खारिज करते हुए दुसाध उन कायोर्ं को उचित ठहराते हैं। (दे. दलित देवी; मायावती, पृ. 42-45, इत्यादि) इसी प्रकार, प्रेमचंद पर जारकर्म का आरोप लगा कर मिथ्या दलित स्वाभिमान का झंडा उठाने वाले धर्मवीर के साथ तीखी बहस करते हुए दुसाध कहते हैं किᄉ ''उन्होंने जो कसौटी दी है उसके अनुसार जारकर्म और उसके परिणामों पर केन्द्रित साहित्य ही दलित साहित्य है, जिसमें दलितों की भूख, पीड़ा और त्राासदी के लिए कोई जगह नहीं है।'' (पृ. 167)
अभिजात, प्रतिष्ठित, मुख्यधारा के ÷दलित' लेखन और उपेक्षित, लोकप्रिय, साधारण जन के दलित लेखन में यह अंतर है। दलित लेखन जब भूख, पीड़ा और त्राासदी का प्रश्न उठाता है तब व्यापक समाज का प्रतिनिधित्व करता है। इसी में उसकी शक्ति और जीवन के स्रोत हैं। इसी स्तर पर वह समाज की मुक्ति का स्वप्न देखता है और जाति वर्ग की समस्याएं हल करता है। 
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साभार: तद्भव दलित विशेषांक http://www.tadbhav.com/dalit_issue/tasber_ka_dusra.html#tasber

अम्बेडकर के विचारों की अभिव्यक्ति ही दलित साहित्य है : ओमप्रकाश वाल्मीकि

यहाँ प्रस्तुत है जाने माने हिंदी साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि का साक्षात्कार , जिसे मूलतः डॉ शगुफ्ता नियाज द्वारा http://hindivangmay1.blogspot.com/2009/01/blog-post_10.html पर 10 जनवरी 2009 को प्रस्तुत किया गया | हम उनका आभार प्रकट करते है |यह साक्षात्कार आज भी प्रासंगिकता लिए हुए है | यहाँ वे अपने साहित्य संघर्ष , दलित साहित्य की अवधारणा और उसके विभिन्न आयामों बे वारे में बात कर रहे हैं |
ओमप्रकाश वाल्मीकि 

पारिवारिक और साहित्यिक पृष्ठभूमि के बारे में बताइये?
मैं, बरला, मुजफ्फर नगर के एक साधारण परिवार में पैदा हुआ और उन दिनों दलित परिवारों के बच्चे स्कूल नहीं जाते थे। जो स्कूल जाने की  कोशिश करते थे, उनको जाने नहीं दिया जाता था। जो जाना भी चाहते थे, उनको रोकने की कोशिश की जाती थी। जो पहुँच जाते थे, उनको भगाने की कोशिश की जाती थी। शिक्षकों की मानसिकता जातिवादी होती थी और वे ऐसा कोई मौका नहीं चूकते थे जहाँ वे जाति के आधार पर अपमानित किया जा सके। बचपन की ऐसी अनेक घटनाएँ हैं जिनका चित्रण मैंने जूठन में किया है जो दलित जीवन के दग्ध अनुभव हैं। ऐसी स्थितियों में शिक्षा पाना बहुत मुश्किल होता था। परिवार की आर्थिक स्थिति भी ऐसी नहीं होती थी कि शिक्षा ग्रहण कर सके। इन हालात में शिक्षा पाकर साहित्य की तरफ मुड़ना बहुत ही मुश्किल काम था, लेकिन मैं जैसे-जैसे आगे बढ़ता रहा मेरे मन में साहित्य के प्रति आकर्षण भी बढ़ा और साहित्य ने ही मुझे हीनता-बोध से बाहर निकाला और जब मैं ७-८वीं कक्षा में था, तभी से कविता, कहानी लिखने की कोशिश करने लगा था, लेकिन सही दिशा मुझे मिली जब मैंने महाराष्ट्र में दलित पेंथर के आन्दोलन को बहुत करीब से देखा और डॉ. अम्बेडकर के जीवन दर्शन को अपनी व्यथा-कथाओं में अभिव्यक्त करने की प्रेरणा मिली।
आपकी नजरों में दलित कौन है? शब्द दलित क्यों और कब प्रचलन में आया?
 

ओमप्रकाश वाल्मीकि
अगर सीधे-सीधे दलित को परिभाषित किया जाये, तो दलित वह है, जिसे संविधान में अनुसूचित जाति, जनजाति कहाँ गया है और जिसे सामाजिक जीवन में उसके मानवीय हक़ों से दूर रखा गया है। वर्ण-व्यवस्था में जो अस्पृश्य, अन्त्यज, अछूत है, वही दलित है।
दलित शब्द डॉ. अम्बेडकर के आन्दोलन से बाहर आया है और इसे राष्ट्र स्तर पर स्वीकार किया गया। ऐसा पहली बार हुआ है कि दलितों ने दलितों द्वारा अपने लिए किसी शब्द को चुना। अभी तक जितने भी शब्द दिये गये थे, वे तमाम शब्द गैर दलितों द्वारा दिये गये थे, इस शब्द ने उनकी आकांक्षा और अस्मिता को एक पहचान दी है। इस शब्द का प्रचलन तब और अधिक बढ़ा जब मराठी दलित साहित्य आन्दोलन का सूत्रापात हुआ। आज यह शब्द संघर्ष का प्रतीक बन गया है।
आपकी दृष्टि में दलित साहित्य क्या है? दलित साहित्य के सैद्धान्तिक पक्ष पर अपनी राय प्रकट कीजिए?

ओमप्रकाश वाल्मीकि संबोधित करते हुए
 
दलित साहित्य वही साहित्य है जिसमें दलितों की पीड़ा की अभिव्यक्ति हो और जिसकी अन्तर्ऊर्जा में दलित चेतना का समावेश हो। दलित चेतना का केन्द्र बिन्दु हजारों साल का उत्पीड़न, शोषण है और उससे मुक्त होने की कोशिश ही दलित चेतना है। दलित चेतना का सरोकार डॉ. अम्बेडकर के जीवन संघर्ष से जुड़ता है। इसीलिए हम यूं भी कह सकते हैं कि जिस साहित्य में अम्बेडकर विचार हो वही दलित साहित्य है। अम्बेडकर के विचार से विहीन साहित्य, भले ही वह लिखा हो किसी दलित ने वह हरिजन साहित्य हो सकता है, लेकिन दलित साहित्य नहीं हो सकता है। यदि कोई गैर दलित इस विचार के तहत अपनी रचनाधर्मिता की अभिव्यक्ति करता है तो उसे भी हम दलित साहित्य कह सकते हैं। लेकिन गैर दलित को जातीय भावना से मुक्त होना चाहिए, वर्ण व्यवस्था में अटूट विश्वास रखने वाला कोई लेखक दलित साहित्य लिखेगा तो वह सिर्फ दिखावा ही होगा।
हिन्दी साहित्य के सौन्दयशास्त्र और दलित साहित्य के सौन्दयच्चास्त्र में आपको कोई भेद लगता है। अगर लगता है तो बताने का कष्ट करें।
हिन्दी साहित्य का सौन्दयशास्त्र संस्कृत के काव्य शास्त्र के आधार पर तैयार किया गया है। जिसके तहत उसकी तमाम मान्यताएं सामंतवादी हैं  और उसके जीवन मूल्य ब्राह्मणवादी विचारधारा से संचालित होते हैं। उस साहित्य में आनन्द और रस की जो महत्ता स्थापित होती है, उसे दलित साहित्य स्वीकार नहीं करता है। दलित साहित्य आनंद के लिए नहीं लिखा जाता है, बल्कि मनुष्य की स्वतंत्राता, समता, भाई चारे की भावना को महत्ता देता है और उसके केन्द्र में मनुष्य ही सर्वोपरि है। उन तमाम मान्यताओं का विरोध करता है, जिनमें महाकाव्यों का नायक उच्च कुलोत्पन्न होना चाहिए। ऐसी तमाम चीजों को दलित साहित्य स्वीकार नहीं करता साथ ही भारतीय समाज व्यवस्था जो वर्ण व्यवस्था से संचालित होती है। उसे मनुष्य विरोधी मानता है।
आपकी दृष्टि में दलित-चेतना क्या है?

ओमप्रकाश वाल्मीकि यतीन्द्र मिश्रा के साथ  
 
जैसा कि उससे पहले कहा गया है कि दलित चेतना हजारों साल के उत्पीड़न से मुक्त होने की इच्छा ही दलित चेतना है।
दलित लेखन में दलित लेखकों और गैर-दलित लेखकों की अपनी-अपनी भूमिकाएँ क्या हैं? क्या ग़ैर दलित लेखक दलित साहित्य के प्रति पूर्व धारणा से ग्रस्त है साथ ही इस बात पर भी प्रकाश डालने का कष्ट करेंगे कि क्या दलित साहित्यकारों पर सवर्ण विचारधारा का प्रभाव है?
दलित लेखन में दलित लेखकों और गैर दलित लेखकों की भूमिकाएँ अलग-अलग ही हैं। अभी तक जो हिन्दी साहित्य में गैर दलित लेखकों द्वारा लिखा गया साहित्य सामने आया है उसका मुख्य स्वर यथास्थिति बनाए रखने का है। वह आदर्शवादी और सुधारवादी दृष्टिकोण के तहत लिखा गया है, और एक मुख्य बात है कि उन रचनाओं में दलित व्इरमबज की तरह इस्तेमाल हुए हैं, ...की तरह नहीं। जहाँ ... की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश हुई है, वहाँ भी दलितों के आन्तरिक चित्रण का अभाव दिखाई पड़ता है। दलित लेखकों ने दलित पात्रों को ...की तरह लिखा और उनकी सामाजिक भूमिकाओं को प्रतिबद्धता के साथ चित्रित किया है। जहाँ तक दलित साहित्यकारों पर सवर्णों के प्रभाव का कारण है। दलित साहित्य के पूर्व अनेक रचनाकार उसी प्रभाव में आकर लेखन कार्य कर रहे थे। आज भी ऐसे अनेक जन्मा दलित लेखक हैं जो कहते हैं वे दलित लेखक नहीं हैं। उनकी रचनाओं में सवर्ण-सोच का प्रभाव दिखायी पड़ता है, उनकी रचनाओं में दलित चेतना और दलित-संघर्ष का अभाव साफ-साफ देखा जा सकता है।
सदियों का सन्ताप और बस बहुत हो चुका आपके दो कविता संग्रह है। सलाम एवं घुसपैठिए आपके कहानी संग्रह है तथा जूठन आपकी आत्मकथा है। दलित साहित्य का सौंदर्य शास्त्र पुस्तक भी आपने लिखी है। मैं जानना चाहती हूं कि आपको दलित साहित्य की रचना करने में कौन-कौन सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, क्या सवर्णों के अलावा आपके अपनों ने भी आपको आहत किया?

ओमप्रकाश वाल्मीकि
 
जब मैंने लिखना शुरू किया तो बहुत सारी कठिनाइयाँ और चुनौतियाँ मेरे सामने थीं। छपने-छपाने की समस्याओं से भी जूझना पड़ा। उस समय की चर्चित पत्रिका सारिका ने दस वर्ष तक मेरी कहानी अपने पास रखकर लौटाई थी इस आशय के साथ यदि और इन्तजार कर सकते हैं तो भेज दीजिए हम उसे छापेंगे। अब आप इसी से अन्दाज लगा सकते हैं कि हिन्दी सम्पादकों का रवैया दलित लेखक के साथ कैसा रहा, किसी भी लेखक के लिए दस वर्ष बहुत होते हैं लेकिन सम्पादकों को यह करते समय कतई शर्मिन्दगी नहीं हुई और वे लगातार दलित रचनाओं के साथ यही करते रहे। जहाँ तक अपनों का सवाल है, ऐसे कई दलित प्रकाशक थे जिनके पास मैं अपनी पुस्तकें लेकर गया, लेकिन वहाँ भी जातिवाद कुण्डली मारे बैठा था और दलित लेखकों में मैं अकेला लेखक था जिसकी कोई भी पुस्तक प्रकाशित नहीं हुई थी।
दलित कविता लिखने का विचार आपके मन में कब और कैसे आया?
मैंने अपने बचपन में ही इस बात को महसूस कर लिया था कि हमारा समाज तमाम प्रताड़नाओं, उत्पीड़न, शोषण को चुपचाप सह रहा है। ऐसा नहीं है कि उसको बयान नहीं करते थे। वे अपने घरों में या बिरादरी के छोटे-मोटे समारोहों या कार्यक्रमों में शोषण के खिलाफ बोलते थे। लेकिन उनकी आवाज अनसुनी रह जाती थी, और जब मेरा परिचय साहित्य से हुआ तो मुझे लगा कि साहित्य ही इस आवाज को दूसरों तक पहुंचा सकता है। मैंने बचपन में ही कविताएं लिखनी शुरू कर दी थीं।
कहानी लिखने के पीछे कौन-सा दर्द छिपा है?

ओमप्रकाश वाल्मीकि
 
कहानी लिखने के पीछे भी वही स्थितियाँ मौजूद थीं जो बात कविता में सीधे-सीधे नहीं कही जा सकती है। वह कहानी के माध्यम से ज्यादा आसानी से लोगों तक जा सकती है। जीवन का यथार्थ, उसके उसी रूप में, जैसा मौजूद है, पाठकों तक पहुंचाने में कहानी विधा की अपनी महत्ता है। जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है। कथाकथन कार्यक्रमों के माध्यम से ये अनुभव और ज्यादा गहरे हुए थे। दिल्ली की दलित बस्तियों में राजेन्द्र यादव जी के साथ ऐसे अनेक कार्यक्रम हुए जहां आम आदमी सीधे कहानियों से जुड़ता था।
डॉ. अम्बेडकर और महात्मा गाँधी में से प्रेमचन्द पर किसका प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। क्या प्रेमचन्द का कुछ लेखन दलितों के लिए समर्पित है?
प्रेमचन्द पर गाँधी के प्रभाव से पहले आर्य समाज का प्रभाव था। उनकी बहुत सारी रचनाएं आदर्शवाद की मानसिकता के साथ लिखी गईं। बाद में वे गाँधी जी के प्रभाव में आते हैं और कर्मभूमि, रंगभूमि जैसी रचनाएं लिखते हैं। अम्बेडकर का प्रभाव उन पर सीधे-सीधे नहीं दिखाई देता लेकिन सामाजिक दबाव के तहत उन्होंने कुछ ऐसी कहानियाँ लिखीं, जिन पर अम्बेडकर का प्रभाव साफ दिखाई पड़ता है। उदाहरण के तौर पर ठाकुर का कुंआ, दूध का दाम और मंत्र जैसी कहानियाँ अम्बेडकर के प्रभाव की कहानियाँ हैं। लेकिन ३५० कहानियों में से तीन-चार कहानियाँ लिखकर वे दलित के प्रति समर्पित नहीं हो सकते। उनकी ज्यादातर कहानियाँ गाँधीवादी प्रभाव के सुधारवादी दृष्टिकोण की कहानियाँ हैं।
दलित साहित्य के बारे में हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचकों का नजरिया क्या है?

ओमप्रकाश वाल्मीकि
 

आरम्भिक दौर में हिन्दी के आलोचकों का नजरिया दलित साहित्य के प्रति नकारात्मक ही रहा है। आज भी ऐसे अनेक आलोचक हैं जो दलित साहित्य को साहित्य मानने को तैयार नहीं हैं। लेकिन दलित साहित्य को ऐसे आलोचकों की स्वीकृति की जरूरत नहीं है, क्योंकि दलित साहित्य का फलक व्यापक है। वह समाज की बेहतरी के लिए समर्पित है और समाज में बदलाव की प्रक्रिया का समर्थक है। उसका उद्देश्य भिन्न है। जो लोग भारतीय समाज व्यवस्था के समर्थक हैं उन्हें दलित साहित्य क्यों स्वीकार होगा। ऐसे आलोचक ब्राह्मणवादी मानसिकता के साथ साहित्य को पढ़ते हैं।
दलित विमर्श पर आज लगभग हर पत्रिाका अपने विशेषांक निकाल रही है। क्या दलित विशेषांक निकालने वालों के यथार्थ से अवगत करायेंगे साथ ही यह भी बताना चाहेंगे कि दलित विमर्श के पीछे का विमर्श क्या है?

 
हाँ, प्रत्येक पत्रिाका दलित विशेषांक निकाल रही है लेकिन उनमें से बहुत सारी पत्रिकायें हैं, जो आज भी दलित रचनाकारों को छापने का मन नहीं बना पा रही हैं। बल्कि उनके विरोध में ही कभी टिप्पणियाँ, कभी लेख प्रकाशित करने में पीछे नहीं हैं। इसीलिए ऐसे सम्पादकों के तमाम गठजोड़ कोई महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं कर पाते हैं। ऐसे सम्पादकों को अवसरवाद के बजाए पहले अपनी मानसिकता को बदलना होगा और दलित विमर्श में सक्रिय भागीदारी करनी होगी। दलित विशेषांक निकालने से पहले दलित रचनाओं को स्थान देना होगा। दलित साहित्य के उद्देश्य को भी समझना होगा।
दलित और स्त्रीदोनों ही सामाजिक शोषण के शिकार रहे हैं। क्या आप इससे सहमत है?
हाँ, बिलकुल सहमत हूँ। मैं स्वयं इस बात को मानता हूँ जिन स्थितियों से दलितों को गुजरना पड़ा है। उन्हीं स्थितियों से स्त्रियाँ भी गुजर रही हैं। दलित यदि मन्दिरों में नहीं जा सकते हैं तो दक्षिण के एक मन्दिर में स्त्री के प्रवेश को लेकर हंगामा मचा हुआ है। दलित के भगवान की मूर्ति छू लेने से भगवान अपवित्रहो जाते हैं वही स्थिति महिलाओं की भी है। दक्षिण ही नहीं उत्तर भारत में अनेक ऐसे मन्दिर हैं जहाँ स्त्रियों के प्रवेश को निषेध किया गया है। घरेलू स्तर पर भी स्त्रियों के अधिकार नगण्य हैं। उन्हें पांव की जूती मानने वालों की कमी नहीं। तरह-तरह के बंधनों में उन्हें जकड़ा हुआ है और यह सब धर्म और संस्कृति के नाम पर होता है।
दलित साहित्य को लेकर आपकी भविष्य में क्या रणनीति है और क्या योजना है?
दलित साहित्य को लेकर भविष्य में रणनीति और योजना को लेकर इस तरह अभिव्यक्ति नहीं किया जा सकता है। किसी एक लेखक के करने से कुछ नहीं होता। एक समूह होता है लेखकों का। वह अपनी रचनाओं के माध्यम से आने वाले समय को तय करता है।
वरिष्ठ दलित साहित्यकारों ने मार्ग तैयार किया है उस पर चलने के लिए उभरते दलित रचनाकारों का आप कैसे मार्ग दर्शन करना चाहेंगे?
उभरते रचनाकारों को अपनी दृष्टि को साफ करने के लिए अपनी अध्ययनशीलता को बढ़ाना होगा और साहित्य के सरोकारों को गम्भीरता के साथ विश्लेषण करके समझना होगा। आज जिस तरह से स्थितियां बदल रही हैं, उनमें कई तरह की चुनौतियाँ हमारे सामने हैं। उन चुनौतियों को दूर करना और अपनी प्रतिबद्धता के द्वारा समाज में बदलाव की प्रक्रिया को, रचनाओं के द्वारा रेखांकित करना होगा।
क्या हिन्दी दलित साहित्य पर मराठी दलित साहित्य का प्रभाव है?
दलित साहित्य की शुरुआत महाराष्ट्र से हुई है और डॉ. अम्बेडकर का आन्दोलन भी पहले महाराष्ट्र में शुरू हुआ और इसके बाद ही देश के अन्य राज्यों में उसका विस्तार हुआ। इस विस्तार के कारण ही हिन्दी में दलित साहित्य का विकास हुआ और यह कोई अनुचित बात नहीं है। एक जगह से दूसरी जगह पर साहित्य का प्रभाव पड़ता है। हिन्दी में इससे पूर्व ऐसी घटनाएं हुई हैं। भक्ति काव्य दक्षिण के प्रभाव से शुरू हुआ। छायावाद पर यूरोप के रोमान्टिक प्रभाव को देखा जा सकता है। निराला पर विवेकानन्द और रामकृष्ण परमहंस का प्रभाव देखा जा सकता है। प्रेमचन्द पर आर्य समाज का प्रभाव, गाँधीवाद का प्रभाव देखा जा सकता है। प्रगतिवाद और प्रयोगवाद पर मार्क्स का प्रभाव देखा जा सकता है। जनवादी दौर की तमाम कहानियाँ वामपंथी प्रभाव से मुक्त नहीं हैं।
आप कहानियाँ लिखते हैं आप अपनी कहानियों के माध्यम से शोषितों को क्या संदेश देने का प्रयास कर रहे हैं, विस्तार से बताने का कष्ट करेंगे, साथ ही यह भी बताने का कष्ट करेंगे कि समाज में घुसपैठिए कहाँ-कहाँ पर मौजूद हैं?
कहानी मैं सिर्फ शोषितों के लिए नहीं लिख रहा हूँ। मैं कहानियाँ लिख रहा हूँ शोषितों के दर्द को, उनकी वाणी को शब्द देने के लिए ताकि शोषकों के छद्म और शोषण की सही-सही तस्वीर साहित्य के माध्यम से लोगों तक जा सके। वे तमाम लोग जो ये कहते हैं कि देश में जातिवाद नहीं है उन्हें बताया जा सके कि देश में जातिवाद की जड़ें बहुत गहरी हैं और जहाँ तक घुसपैठियों का सवाल है ऐसे लोगों की कमी नहीं है। जो दलितों की हर-एक गतिविधि को अपने कार्य क्षेत्रों में अनावश्यक घुसपैठ मानते हैं। जबकि यह उनकी घुसपैठ नहीं, बल्कि ये उनका मौलिक अधिकार है कि वे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कर सकें।
कुछ दलित साहित्यकार अपने को डॉ. अम्बेडकर से भी बड़ा स्थापित करने की जुगाड़ में रहते हैं? उनसे दलित साहित्य का कितना भला होगा।
ऐसे लोगों से साहित्य का भला तो बाद की बात है, वे पहले अपने को ही बड़ा बना लें और यदि कोई व्यक्ति डॉ. अम्बेडकर से अपने को ही बड़ा बना लेता है तो यह हीनता की नहीं गर्व की बात होगी लेकिन उससे पहले उसे अपने इर्द-गिर्द अच्छी तरह से देख लेना चाहिए कि वह कहाँ खड़ा है। झूठ ज्यादा दिन नहीं चलता, मुखौटे में भी चेहरा तो दिखायी दे ही जाता है।
साहित्य में दलित विमर्श क्या है? साहित्य में यह कब प्रारम्भ हुआ और वर्तमान में उसकी क्या स्थिति है?
साहित्य में दलित विमर्श से सीधा-सीधा तात्पर्य दलित साहित्य आन्दोलन और अम्बेडकर विचारधारा से है। इसका सूत्रापात डॉ. अम्बेडकर के आन्दोलन से हुआ जो आज भी जारी है। यह विमर्श दलित मुक्ति से जुड़ा है।
दलित आन्दोलन का दलितों के व्यापक धरातल पर क्या कोई प्रभाव पड़ रहा है? अगर पड़ रहा है तो किस प्रकार?

बिलकुल पड़ रहा है जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में दलितों ने अपनी उपस्थिति दर्ज की है। जिसकी प्रेरणा उन्हें दलित आन्दोलन से ही मिली है और भविष्य में भी इसके सकारात्मक परिणाम दिखायी देंगे। आज दलितों में मुक्ति की छटपटाहट बढ़ी है। वे समाज में समता, बंधुता के लिए संघर्षरत हैं और यह सब दलित आन्दोलन से प्रेरित होकर हुआ है, इसमें दलित साहित्य ने सकारात्मक भूमिका निभायी है।

ओमप्रकाश वाल्मीकि की रचनाएँ :
(अधिक जानकारी के लिए इन शीर्षक फोटो व कैप्शन पर क्लिक करें )  

दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र

घुसपैठिये

जूठन

सफाई देवता



ओमप्रकाश वाल्मीकि के बारे में :
ओमप्रकाश वाल्मीकि एक विख्यात हिंदी साहित्यकार हैं और प्रसिद्ध आत्मकथा जूठन (1997)  के लेखक हैं, जिसे अंग्रेजी में अरुण प्रभा मुखर्जी द्वारा Joothan: A Dalit's Life (Samya, 2003)  शीर्षक से अनुवादित किया है | इसे न्यू इंडिया फ़ौंडेशन बेस्ट बुक अवार्ड 2004 मिला | इनके तीन कविता संग्रह सदियों का संताप ( Centuries Old Anguish, 1989), बस बहुत हो चुका (Stop It! That's Enough, 1997), व अब और नहीं (Not Any More, 2009) और दो लघु कहानी संग्रह सलाम (Obeisance, 2000) व घुसपैठिये (Intruders, 2004) प्रकाशित हुए हैं | उन्होंने दलित साहित्य का सौंदर्य शास्त्र (The Aesthetics of Dalit Literature, 2001) और वाल्मीकि समाज का इतिहास  सफाई देवता (God of Cleanliness ,2009) रचनाएँ भी लिखी हैं |

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